एक बार मैं और अश्वतथामा दोनों खड़ग के अखाड़े के पास खड़े थे। उस अखाड़े के चारों ओर सब्बल-जैसी मोटी-मोटी लोहे की छड़ों की चहारदीवारी थी। उस चहारदीवारी की एक छड़ की नोक को किसी ने झुकाकर धरती पर टेक दिया था। वह उसी स्थिती में थी। वही एकमात्र छड़ उस चहारदीवारी से बाहर निकली होने के कारण अच्छी नहीं लग रही थी। उसको सीधी करने के विचार से मैंने उसको हाथ लगाया। उस समय बड़ी शीघ्रता से अश्वत्थामा बोला, “रहने दो कर्ण ! सभी इस पर प्रयोग कर चुके हैं। एक दिन क्रोध के आवेश में भीम ने इसको झुका दिया था। अन्य कोई इसको सीधी कर ही नहीं सका। वही कभी क्सको सीधी करेगा।“
“अच्छा ! तो फ़िर मैं इसको सीधी करूँ क्या ?” मैंने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा।
“यह तुमसे नहीं हो सकेगा।“
“अच्छा ?” मैंने पैरों से पदत्राण उतारकर अलग रख दिये। उत्तरीय कटि से लपेटा और उससे बोला, “इस छड़ को बायें हाथ से सीधी कर, जैसी यह थी वैसी ही इसको चहारदीवारी में लगा दूँगा। तुम देखते रहो।“
मैं उस छड़ के पास गया। एक बार आकाश की ओर देखा। गुरुदेव चमक रहे थे। बायें गाथ में सारी शक्ति एकत्रित की । आँख मींचकर पूरी शक्ति से मैंने वह छड़ हाथ से झटके के साथ ऊपर खींची। पहले झटके में ही वह कमर के बराबर ऊँची हो गयी। उसका ऊपर आया युआ सिरा कन्धे पर लेकर बायें हाथ के पंजे से धीरे-धीरे मैंने उसको चहारदीवारी के घेरे में वैसे ही लगा दिया, जैसे वह लगी हुई थी। अश्वत्थामा अवाक हो गया। मेरी पीठ पर थाप मारने के लिये उसने अपना हाथ मेरी पीठ पर रखा। पर फ़िर तुरन्त ही उसने ऊपर ही ऊपर से अपना हाथ उठा लिया।
“क्या हुआ अश्वत्थामन ?” मैंने आश्चर्य से उससे पूछा।
“अरे, तुम्हारी देह तो अग्नि की तरह जल रही है !” भेदक दृष्टि से मेरी ओर देखते हुए उसने उत्तर दिया।
उसके बाद भीम ने वह सीधी की हुई छड़ कभी देखी होगी। वह प्रतिदिन एक छड़ टेढ़ी कर जाता था। मैं प्रतिदिन रात में उसकी टेढ़ी की हुई छड़ को बायें हाथ से सीधी कर दिया करता।
प्रसंग बेहद पसंद आया।
सुन्दर सरल शब्दों मे प्रसंग बहुत पसन्द आया धन्यवाद्
ek dum nayi jankari mili.
आप के लेख से बहुत कुछ नया मिलता है, धन्यवाद