प्रत्येक वर्ष के अन्त में युद्धशाला में एक विशाल यज्ञ हुआ करता था। उस यज्ञ के लिए गुरु द्रोणाचार्य ने एक विचित्र प्रथा चला रखी थी। युद्धशाला के प्रत्येक शिष्य को यज्ञ में बलो देने के लिए एक-एक जीवित प्राणी अरण्य से पकड़कर लाकर अर्पण करना पड़ता था। किसी ने उनसे उस प्रथा के सम्बन्ध में पूछा था। उसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा था कि इससे विद्यार्थी स्वावलम्बी और साहसी बनता है।
एक बार वार्षिक यज्ञ के समय एक अविस्मरणीय घटना घटी। हम सभी लोग जीवित प्राणी लाने के लिए राजनगर से अरण्य की ओर चले। अरण्य प्रारम्भ होते ही सभी लोग भिन्न-भिन्न दिशाओं में फ़ैल गये। मैंने पूर्व दिशा को पकड़ा। चलते-चलते मन में विचार आया कि इससे पहले हरिण, साँभर, वन्य शूकर आदि प्राणी मैं अर्पण कर चुका हूँ। इस वर्ष इनसे बलवान कोई प्राणी मुझको अर्पण करना चाहिए। इनसे अधिक बलवान प्राणी कौन-सा है ? हाथी ? छि:, लकड़ियाँ तोड़नेवाला भारी-भरकम और कुडौल प्राणी है वह तो ! अश्व ? नहीं जी, अश्व को पड़ा तो जा सकेगा। फ़िर कौन-सा प्राणी ? चित्रमृग, वृक, तरस ? छि: सबसे अधिक सामर्थ्यवान प्राणी कौन-सा है? बाघ ! बस, इस वर्ष में बाघ ही अर्पण करुँगा। उसके लिए घोर अरण्य में जाना पड़ेगा। कोई चिन्ता नहीं। अवश्य जाऊँगा। सीमा पार करते हुए ही मैंने निश्चय किया।
लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ, चौकन्नी दृष्टि से चारों ओर देखता हुआ मैं आगे बढ़ने लगा। दिन-भर घनघोर अरण्य में भटका। अनेक प्राणी मिले, प्रन्तु बाघ दिखाई ही नहीं दिया। दिन-भर भटकने के कारण प्यास बड़ी जोर की लग रही थी। सन्ध्या घिरती जा रही थी। विहग नीड़ों की ओर लौट रहे थे। मुँह का पसीना पोंछता हुआ मैं बहुदा नदी के किनारे पर आया। वहाँ खड़े होकर मैंने सूर्यदेव को वन्दन किया और मन ही मन कहा, “आज आपके शिष्य का संकल्प व्यर्थ हो रहा है।“
एक काले पत्थर पर बैठकर मैंने अंजलि में पानी लिया। उस पानी को मुँह से लगाने ही जा रहा था कि एक प्रचण्ड भारी-भरकम पशु पीछे से मेरे ऊपर आ गिरा। मेरा सन्तुलन बिगड़ गया और मैं आगे बहुदा नदी के पानी में गिर पड़ा। मेरे साथ ही वह पशु भी पानी में आ गिरा। बहुदा का जल खबीला हो गया। मैंने उस पशु की ओर देखा। श्वेत और काले धब्बोंवाला वह एक चीता था। सन्ध्या होने के कारण वह पानी पीने के लिए घाट पर आया था। उसका मुख कुम्हड़ा-जैसा गोलमटोल था। उसकी आँखें गुंजा की तरह लाल थीं।
मेरी आँखें आनन्द से चमकने लगीं। मैं पानी में हूँ, मेरे वस्त्र भीग गये हैं – इन बातों का मुझको बिलकुल भान नहीं रहा। मुझको मारने के लिए उसने अपना पंजा उठाया, उसे मैंने अपने हाथ से ऊपर का ऊपर ही पकड़ लिया और उसको खींचता हुआ एकदम पानी के बाहर ले आया। परन्तु पानी के बाहर आते ही चीते की और अधिक आवेश आ गया। मेरे हाथ से झटका देकर उसने अपना पंजा छुड़ा लिया। जल के स्पर्श से तथा मेरे विरोध से वह बौखला गया था। उसकी क्रुद्ध आँखों से आग बरसने लगी। जोर-जोर से गर्जना करता हुआ वह बार-बार मुझपर भयानक आक्रमण करने लगा। कभी-कभी वह पाँच-छह हाथ ऊँची छलाँग लगाता। उसकी रक्तवर्ण जीभ मेरा रक्त पीने के लिए निरन्तर लपलपाने लगी। जबड़ा फ़ाड़कर वह मेरे ऊपर झपटा। मैं उसके आक्रमणों का प्रत्युत्तर देने लगा। आधी घड़ी तक मैं अपनी रक्षा करने का प्रयत्न करता रहा। लेकिन मैं उसको रोक नहीं पा रहा था। मैंने अपनी देह की ओर देखा। उस क्रूर वन्य पशु ने सैकड़ों बार झपट्टे मारे होंगे, परंतु फ़िर भी उसके तीक्ष्ण दाँतों की अथवा नाखूनों की जरा-सी नोंक भी मेरी देह में घुसी नहीं थी। मेरी त्वचा अभेद्य है। यह अकेला ही क्या, ऐसे दस चीते मुझको नींद में भी नहीं खा सकते। विद्युत की एक तरंग-सी मेरी देह में सनसनाती चली गयी। क्षण-भर में ही मेरा शरीर रथ की तप्त हाल की तरह जलने लगा। मेरी सम्पूर्ण त्वचा अभेद्य है – केवल इस प्रतीति मात्र से ही मेरा शरीर अंगारे की तरह फ़ूल उठा। अकस्मात मैंने उस क्रूर पशु के मुँह पर कसकर तमाचा मारा।
bahut hi badhiya jankari………shukriya.
सुन्दर बाते, अच्छी जानकारी।
ब्लोग चर्चा मुन्नाभाई की
बहुत सुंदर, यूंही जारी रखिये.
रामराम.
बहुत हिम्मत वाला था कर्ण जो एक चीते से डरना तो दुर उसे बिना हथियार पकडना चाहाता था.
बहुत सुंदर. धन्यवाद इस अच्छी जानकारी के लिये
story is superb, novel is also superb