२९ जून को रात १० बजे बेटे को अस्पताल में भर्ती करवाने के बाद फ़िर अस्पताल के अनुभव, ओह मन कड़वा हो जाता है।
बेटा बिना मम्मी के सोता नहीं है, मम्मी से ज्यादा लगाव है तो मम्मी को ही रुकना था हम अस्पताल की कार्यवाही करके घर आकर सो गये। पर बेटा अस्पताल में और हम घर में सो रहे थे तो हमें भी नींद नहीं आयी, सुबह ५ बजे ही नींद खुली हम तैयार होकर फ़िर अस्पताल की ओर दौड़ पड़े। अस्पताल पहुँचकर पता चला कि बेटा और बेटे की मम्मी दोनों ही रातभर सो नहीं पाये, रात को सिलाईन चढ़ने के कारण, हाथ सीधा ही पकड़कर रखना था और बेटे को सिलाईन की आदत तो थी नहीं, तो उसे अजीब सा लग रहा था।
हमने कहा जाओ तुम घर जाओ और बेटे को मैं देख लूँगा, सो जाओ नहीं तो तबियत खराब हो जायेगी। बेटे की मम्मी भी घर गयी थोड़ी देर सोयी भीं पर ज्यादा नींद नहीं आयी और खाना बनाकर लौट आयीं। हमने कहा कि चलो कोई बात नहीं, इधर ही बेटे के पास सो जाओ।
किसी तरह दूसरा दिन खत्म हुआ ३ सिलाईन और ४ इंजेक्शन एँटीबायोटिक्स के लग चुके थे। दिन खत्म होते होते तो हमारे बेटेलाल ने चिल्लाना शुरु कर दिया कि हाथ में दर्द हो रहा है जहाँ सिलाईन लगी थी, पर सूजन कहीं भी नहीं थी, हमने कहा कि नाटक मत करो, ये तो होगा ही। घर पर खाना नहीं खाओगे तो सिलाईन से ऊर्जा मिलेगी। अब सोच लो कि घर पर खाना खाना है या ये सिलाईन चढ़वानी है।
बस कल रात १ जुलाई को अस्पताल से छुट्टी मिल गई, एँटीबायोटिक्स का पूरा कोर्स भी हो गया। उम्मीद है कि अब यह ठीक रहेगा।
पिछले चिठ्ठे में जो बातें उठायीं थीं वह सब सही निकलीं, हमने ये अनुभव किया कि डॉक्टर इलाज बहुत अच्छा करता है पर जहाँ मरीज को भर्ती करवाने की बात आती है, वह राक्षस जैसा हो जाता है, अब हमने यह निर्णय लिया है कि इलाज तो इन्हीं डॉक्टर के यहाँ करवायेंगे पर अगर कभी फ़िर से भर्ती करने के लिये बोला तो दूसरे डॉक्टर के पास ले जायेंगे। शायद भर्ती करने की जरुरत ही न हो, पर उसकी भूख को शांत करने के लिये केवल हम ही क्यों शिकार बनें ? और जितने भी आसपास के बच्चे के अभिभावक हैं और जिन्हें हम जानते हैं कि ये सब उसी डॉक्टर से इलाज करवाते हैं। उनहें भी जागरुक करने का जिम्मा हमने लिया है, कि जिससे हम थर्ड ओपिनियन नहीं ले पाये पर वो लोग ले पायें।
जी हाँ थर्ड ओपिनियन, मैंने सबकी टिप्पणियों को पढ़ा और मैं सभी को धन्यवाद ज्ञापित करना चाहूँगा मेरा हौसला अफ़जाई करने के लिये और बेटे के स्वास्थय लाभ के लिये। ये जो था ये सेकंड ओपिनियन ही था और अब आगे से निश्चय किया है कि थोड़ा सा अपना ज्ञान चिकित्सा के क्षैत्र में भी होना चाहिये जिससे कोई बेबकूफ़ न बना सके, क्योंकि जितनी भी डॉक्टरों की दुकान लगी हैं, सब लूटने की ही दुकानें हैं। मैं यह एक जनर्लाइज स्टेटमेंट दे रहा हूँ क्योंकि गेहूँ के साथ तो घुन भी पिसता है।
अब एक सवाल जो तीन दिन के मंथन के बाद मेरे वित्तीय प्रबंधन वाले मस्तिष्क में घूमड़ रहा है, कि डॉक्टर के पास इतना नगदी आता है, तो यह कैसे मैनेज करते होंगे और अगर इस प्रोफ़ेशनल फ़ीस को आयकर में नहीं दिखाते होंगे तो यह तो काला धन हो गया। फ़िर इसे सफ़ेद कैसे करते होंगे। क्या हमारी सरकार का ऐसा कोई नियंत्रण है जिससे यह काला धन ज्यादा होने से रोका जा सके ?
हमने थोड़े से अतिरिक्त समय में लाभ उठाया और सूर्यकान्त त्रिपाठी “निराला” जी की कविश्री की कविताओं का आनंद लिया।
शुभकामनायें !
मेरा अनुभव भी कोई बहुत अच्छा नहीं रहा.. अस्पताल वाले आपकी जेब का आकार देखकर कैची चलाते है…
मैं डा को दिखाने से पहले या बाद में मेरे मित्र (पंजाब में डा है) से जरुर बात करता हूं.. और फिर उचित निर्णय लेता हूं..
अपने दोस्तों में एक अच्छे डा को शामिल कीजिये.. बहुत मदद करता है…
i hope your son is better now….
बच्चे के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना करते हैं. वैसे एक डॉक्टर मित्र का होना फायदेमंद रहेगा.
यह जो आज कल के डा० कर्जा ले कर पढते है, ओर फ़िर डिग्री मिलने पर राजओ की तरह रहते है, आलीशान किलिनिंग बनाते है, क्या यह पेसा इन्हे दिघ्री के संग मिलता है??? अजी नही…. बस यह भी लगे है आम आदमी की जेब काटने पर, गला काटने पर, सारा काला धन यह अपनी ऎशॊ आराम पर खर्च करते है, गरीब चाहे एक एक रोटी को तरसे इन्हे दया नही आती, लेकिन सभी डा० ऎसे नही, कुछ डा० मै आज भी इंसानियत जिन्दा है
जो नगदी आपको इतनी लगती है वह उनको कितनी कम लगती होगी!
घुघूती बासूती
देश की तरह डॉक्टरों में भी इंसानियत कम होती जा रही है ।
लेकिन सरकारी डॉक्टरों में फर्क होता है । किसी सरकारी डॉक्टर से दोस्ती कर लीजिये ।
शुभकामनायें ।
भैया हमारे एक मित्र डॉक्टर हैं
वे एक्सरे भी करते हैं और इलाज भी।
मरीज की जेब को टटोले बिना ही जान जाते हैं कि
इसकी जेब में कितने रुपए हैं।
अब एक एमबीबीएस करने मे आज 30 लाख रुपए लगते हैं।इसकी भरपाई तो मरीजों से ही होगी।
महंगी पढाई के चलते गला काट खेल भी शुरु हो जाता है। क्या किया जा सकता है।
इसलिए किसी ने कहा है कि
उनको क्या काम है मुरव्वत से
वो अपने रुख से मुख न मोड़ेगें
फ़रीस्ते शायद जान भी छोड़ दें
पर डॉक्टर अपनी फ़ीस न छोड़ेगें
प्रसन्नता है कि पुत्र जी स्वस्थ हैं ।
jnaab vese to sbhi doktr aek jese nhin hote lekin sirfire chor doktron ko hi krne ke liyen chikitsa prichan niym 2002 bnaaye gye hen jiske tht sbhi doktr mrizon se binaa kmihn ki dvaa likh kr anaavhyk jaanche nhin likh kr ilaaj krne ke liyen pabn he or is rikord ko tin vrsh tk ke liyen snbhaal kr bhi rkhenge aese men inke khilaaf is qaanun ke tht kaaryvaahi ke liyen pidit log svtntr hen. akhtar khan akela kota rajsthan
उम्मीद है अब बेटा ठीक है !
प्रोफ़ेशनल फ़ीस को आयकर में नहीं दिखाते अलबत्ता इनके वित्त प्रबंधन का आंकडा ये है कुछ प्रापर्टी में लगा देते हैं. कुछ अपनी अगली पीढ़ी को डाक्टर बनाने में खर्च हो जाता है, कुछ क्लिनिक में. ज़यादा हो गया तो अस्पताल खोल लेते हैं. इन्काम टैक्स वाले क्या भाड़ झोंक लेंगे, मरीज ही कौन सा चैक से भुगतान करते हैं.
अच्छा है जब भी वित्तीय संबंधी बात समझनी करनी होती है आप याद आते हैं.. 😛
चटखारों के आगे सभी धन बौने हैं..
शायद कमीनोज़ का पिज़्ज़ा 125 रुपये का आता है ।
अब एक थर्ड ओपीनियन भी..
लोग अपनी बुद्धि और दूसरे का धन सदैव बढ़-चढ़ कर आँकते हैं !
@ सतीश जी – धन्यवाद
@ रंजन जी – शायद अस्पताल का अनुभव किसी का भी अच्छा नहीं होता है, मेरे दो मित्र डॉक्टर हैं, पर संकोच होता है पर अब आगे से संकोच नहीं करुँगा। आपकी बात पर अमल करेंगे।
@ सुब्रमनियम जी – धन्यवाद और आपकी बात पर अमल करेंगे।
@ राज जी – आपसे सौ फ़ीसदी सहमत।
@ घुघूती जी – बिल्कुल सही कहा, माया ऐसी है कि कितनी भी हो कम ही लगती है।
@ डॉ. दराल साहब – अब सरकारी डॉक्टर को ढँढ़ते हैं, धन्यवाद 🙂
@ ललित जी – मतलब डॉक्टर अंतर्ज्ञानी भी हो गये। 🙂
@ प्रवीण जी – धन्यवाद।
@ अख्तर खान जी – कितने भी नियम बना लो पर हमारे यहाँ की जनता उसे तोड़ ही लेती है।
@ शिवम जी – अब बेटा बिल्कुल ठीक है और स्वास्थ्य लाभ ले रहा है।
@ काजल कुमार जी – सब मिलीभगत होती है, चैक से भुगतान लेने में जान निकल जाती है, परंतु बड़े अस्पताल चैक से लेते हैं।
@ दीपक जी – धन्यवाद।
@ डा. अमर कुमार जी – सबसे पहले तो आपको बहुत बहुत धन्यवाद हमारे चिठ्ठे पर पधारने का।
आपकी बात बिल्कुल सही है कि चटखारों के आगे सभी धन बौने हैं, पर गरीब तो "पिज्जा" क्या होता है और उससे पेट भी भर जाता है!! ये भी नहीं जानता है। पर डॉक्टर के शुल्क को भलिभांति जानता है।
बात यह भी बिल्कुल सही है कि लोग अपनी बुद्धि और दूसरे के धन को सदैव बढ़-चढ़ कर आँकते हैं, उसके लिये मेरा आज का चिठ्ठा जरुर पढ़ियेगा।
स्वास्थ्य के लिये शुल्क बिना सोचे समझे और वित्तीय प्रबंधन के लिये सोच समझकर ? [ Fees for Health and Wealth]
उम्मीद है आपकी महत्वपूर्ण राय मिलेगी।
सच कहा हस्पताल में भारती बहुत ही कड़वा अनुभव हुआ करता है ,एक डॉ. मित्र हो तो कुछ आसान हो जाता है ..
बेटा स्वस्थ हो गया इससे ज्यादा क्या चाहिए ..शुभकामनाये.