निर्दय विप्लव की प्लावित माया –
यह तेरी रण-तरी,
भरी आकांक्षाओं से,
घन भेरी-गर्जन से सजग, सुप्त अंकुर
उर् में पृथ्वी के, आशाओं से
नव जीवन की, ऊँचा कर सिर,
ताक रहे हैं, ऐ विप्लव के बादल !
फ़िर फ़िर
बार बार गर्जन,
वर्षण है मूषलधार,
हृदय थाम लेता संसार,
सुन-सुन घोर वज्र हुंकार।
अशनि-पात से शायित उन्नत शत शत वीर,
क्षत विक्षत-हत अचल शरीर,
गगनस्पर्शी स्पर्धा-धीर।
हँसते हैं छोटे पौधे लघु-भार-
शस्य अपार,
हिल हिल,
खिल खिल,
हाथ हिलाते,
तुझे बुलाते,
विप्लव-रव से छोटे ही हैं शोभा पाते।
अट्टालिका नहीं है रे
आतङ्क भवन,
सदा पङ्क ही पर होता जल विप्लव प्लावन
क्षूद्र प्रफ़ुल्ल जलज से सदा छलकता नीर,
रोग शोक में भी हँसता है शैशब का सुकुमार शरीर।
रुद्ध कोश, है क्षुब्ध तोष,
अंगना-अंग से लिपटे भी
आतंक-अङ्क पर काँप रहे हैं
धनी, वज्रगर्जन से, बादल,
त्रस्त नयन-मुख ढाँप रहे हैं।
जीर्ण-बाहु, शीर्ण शरीर,
तुझे बुलाता कृषक अधीर,
ऐ विप्लव के वीर!
चूस लिया है उसका सार,
हाड़मात्र ही हैं आधार,
ऐ जीवन के पारावार !
सुंदर रचना पझवाने के लिए आपका आभार !!
प्रवीण जी सही कहते है.. हिन्दी जानने का अभिमान ध्वस्त होता गया..
गिरिजेश जी की टिप्पणी पढना चाहता था लेकिन टिप्पणिया दिख नही रही :।
kavita ki vyakhya bohot zaruri hein evng woh mujhe chahiye