कॉलेज के मेनगेट पर शटर के पास बैठकर दो विल्स मुँह में दबाई और चपरासी काका से शिप माचिस ली फ़िर उसमें से एक तीली निकाली और आग लगाने के लिये जैसे ही माचिस पर घर्षण करने वाले थे कि प्रिंसिपल सर आते दिखे, चुपचाप माचिस साईड में रखी, दोनों विल्स सिगरेट एक हाथ में पीछे दबाई और प्रिंसिपल सर जैसे ही पास आये दूसरे हाथ से झुककर चरण स्पर्श किये, और प्रिंसिपल सर अंदर अपने रुम में चले गये।
फ़िर वापिस से दोनों विल्स मुँह में और माचिस की तीली घर्षण के लिये अग्रसर, और एक सर्र की आवाज से तीली जली और मुँह में लगी दोनों विल्स सिगरेट में जोर से अंदर कश मारा, जिससे दोनों विल्स सिगरेट एक बार में ही जल ली।
एक विल्स सिगरेट अपने दोस्त को दी और दूसरी अपने मुँह में दबाये कश खींचे जा रहे थे, तब सिगरेट पीनी तो आती नहीं थी, बस झांकीबाजी करते थे, मुँह में धुआँ लेकर नाक से निकालने को ही सिगरेट पीना समझते थे।
हमारे एक सीनियर आये जो कि अच्छॆ मित्र भी थे, बोले “ऐ क्यों सिगरेट खराब कर रहे हो”
हम बोले “क्यों”
सीनियर बोले “बताओ हम बताते हैं कि सिगरेट कैसे पीते हैं”
और उन्होंने हमारे हाथ से सिगरेट ली और कश अंदर खींचा और धुएँ का तो अता पता ही नहीं था बोले धुआँ पेट में अंदर तक लो तभी तो नशे का मजा आयेगा। फ़िर थोड़ी देर बाद अपने पेट में से पता नहीं कैसे पूरा धुआँ मुँह से बाहर निकाला। हम तो देखकर ही दंग रह गये, कि ऐसा भी होता है।
सीनियर बोले “अब ऐसा करके बताओ”
हम बोले “लाओ, हम भी करके देखते हैं”
फ़िर जो सुट्टा मारा तो जो खाँसे कि बस आँखें लाल और आँखों से पानी बाहर, सिगरेट पीने का अभ्यास बहुत ही महँगा सा लग रहा था। पर माने नहीं, केवल दो दिन की सिगरेट प्रेक्टिस के बाद उस्तादी हो गई।
साथ ही हमें सीनियर ने बताया कि सिगरेट का असली नशा तो धुआँ अंदर लेने पर ही होता है, और असली नुक्सान भी।
nice
हम्म!..ये शौक तो मैंने भी पाला था 1989 में दो-चार दिन के लिए लेकिन इससे जितना दूर रहा जाए…उतना ही अच्छा
हम तो कभी कभी वालों में से है !!
असल में इत्ते अंदर तक हम न जा सके ठसका लग गया था
बा भैया …वैसे मैंने भी पी थी मगर सिगरेट से मेरा रिश्ता केवल होठों तक रहता था -धुंआ बाहर !वो ऐसा था न की उन दिनों दुस्सरे होठों से संगम तो होता नहीं था इसलिए होठ कुछ न कुछ सटाने को तरसते रहते थे -व्यवहार वैज्ञानिकों ने इसे ही अल्टरनेट लिप इंटीमैसी कहा है !
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
सच बात है। अभी तक न नशा किया न नुकसान।
विवेक भाई, आपकी बेबाकी काबिले दाद है। मजा आ गया आपके संस्मरण सुनकर।
………….
अथातो सर्प जिज्ञासा।
संसार की सबसे सुंदर आँखें।
जी हम तो इन सब बुराइयों से दूर रहने का प्रयास करते हैं
@विवेक रस्तोगी जी
मैं आपको हम सबके साझा ब्लॉग का member और follower बनने के लिए सादर आमंत्रित करता हूँ,
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धन्यवाद
महक
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महक
हम ने भी सब किया छल्ले बनाये छल्लो मै से छल्ले निकालए अब अब २० सालो से इसे छोड दिया
6 साल पहले इस नशा नुकसान से उबर गये..अब किस्सा कहानी और विल्स कार्ड बच रहे हैं पास.
एक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं |
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