कॉलेज में पहले वर्ष में ही कॉलेज की हवा लग गयी, झाबुआ जी हाँ यह मध्यप्रदेश में एक आदिवासी क्षैत्र है और यहाँ के भील भिलाले बहुत प्रसिद्ध हैं। पहले भी एक पोस्ट लिखी है यहाँ चटका लगाकर देख सकते हैं “झाबुआ के भील मामा”।
अपने कॉलेज जाते समय बीच में दो तालाब पड़ते थे, पहला तालाब तो हमारे घर के पास ही था और उसमें पानी थोड़ा कम होता था, केवल बरसात में पुरा जाता था। दूसरा तालाब हमारे कॉलेज के पास था जिसे पार करने के बाद ही कॉलेज जाया जा सकता था। बहुत ही सुन्दर दृश्य बनता था, और खासकर बारिश में तो कहने ही क्या, पुल के ऊपर एक फ़ीट पानी बहता था और कॉलेज आने जाने वाले रेलिंग के सहारे तालाब पार किया करते थे। तालाब में कमल के फ़ूल खिला करते थे कभी कोई कमल पास में खिल गया तो हम उसे ऐसे ही तोड़ लिया करते थे।
दूर से ही तालाब का पुल दिखाई पड़ता था, वहीं दूर से ही कोई हरे,नीले रंग की स्कर्ट पहनी हुई लड़की दिखाई देती, तो साईकिल और तेज कर देते, पता है पास जाकर देखते कि भील जा रहा है, वहाँ के भील लोगों का पहनावा है यह, शाल को लँगी जैसा लपेट लेंगे और दूर से ऐसा लगेगा कि लड़की जा रही है, पास जाकर देखा तो भील मामा।
एक शेर अर्ज किया करते थे –
“दूर से देखा तो लगा हेमामालिनी बाल हिला रही है,
पास जाकर देखा तो पता चला कि भैंस पूँछ हिला रही है।”
वहीं पास में भील कमल की जड़ याने कि कमलककड़ी वहीं से तोड़कर बेचते थे। कमल में लक्ष्मीजी रहती हैं, इसलिये हम कमल को बहुत पसंद किया करते थे, एक हमारा मित्र था नाम उसका भी कमल था, बस काला था तो हमने उसका नाम कालिया रख दिया था, और हम लोग कहते थे कमल कालिया, काला पड़ने की भी कहानी है, झाबुआ आने के पहले उसके पिताजी खरगोन में रहते थे, और खरगोन निमाड़ में आता है, कहते हैं निमाड़ की गर्मी में अच्छे अच्छे जल जाते हैं, इतनी झुलसती हुई गर्मी होती है निमाड़ में।
कॉलेज के इस तालाब के एक किनारे शायद मंदिर था और दूसरे किनारे सर्किट हाऊस था, फ़िर थोड़े आगे जाने पर बायीं तरफ़ आदिवासी होस्टल था और फ़िर कॉलेज, कॉलेज के गेट के पहले एक रास्ता बायीं तरफ़ जाती थी जो कि गोपाल कॉलोनी का शार्टकट था और मेन रोड से बसें और अन्य परिवहन साधन रानापुर की ओर जाते थे, आगे कहाँ जाते थे वह हमें अब याद नहीं आ पा रहा है।
कॉलेज के गेट में प्रवेश करते ही पार्किंग के लिये दो स्टेंड बने हुए थे जिसमें शेड भी लगे थे, और आगे जाने पर “शहीद चंद्रशेखर आजाद” की प्रतिमा लगी थी, और हमारे कॉलेज का नाम है “शहीद चंद्रशेखर आजाद महाविद्यालय, झाबुआ”, फ़िर कॉलेज की इमारत और पीछे की ओर बड़ा मैदान। जहाँ पर हम एन.सी.सी. की परेड किया करते थे फ़िर बाद में करवाते थे। बहुत सी यादें जुड़ी हुई हैं।
शहीद चंद्रशेखर आजाद को मेरा नमन
ग़नीमत है कि आपको कॉलेज के पहले साल ही कॉलेज की हवा लग गई , बहुत से लोगों को निकल जाने के बाद भी नहीं लगती और फिर वे उम्र भर पछताते हैं ।
लक्ष्मी कमल में रहती थी ? सही कह रहे है ?
अब तो स्कर्ट और लुंगी मे फर्क समझ् मे आने लगा होगा हाहाहा।
बहरहाल वो दिन भी क्या दिन थे जब पसीना गुलाब की तर्ज़ पर यह संस्मरण बहुत अच्छा लगा .. यह कहना बेमानी होगा कि अपने दिन याद आ गये
बडा रोचक वृतांत है भई….और ये तालाब और भील मामा….वाह…।
कॉलेज के दिन भी कितने सूकून भरे होते हैं….।
बढियां मजेदार ,चलते रहिये!कमलनाल की सब्जी खाई है ?
शहीद चंद्रशेखर आजाद को मेरा नमन
बहुत अच्छा लगा. धन्यवाद
चन्द्रशेखर आजाद को नमन। भील मामा भी बहुत सुहाये।
" कॉलेज में पहले वर्ष में ही कॉलेज की हवा लग गयी, …" निश्चित जानिये यह हवाखोरी करने वाले आप अकेले नहीं हैं 🙂
Aah…bada achha laga padhke…college ke dinon me man laut gaya…wo itminaan kee masti bhare din kaun yaad na kare??
अच्छा हुआ कि कभी भील मामा को छेड़ नहीं दिया वरना भाले की चोट हो लेती..
रोचक संस्मरण.