संतुष्टि बड़ी गजब की चीज है, किस को कितने में मिलती है इसका कोई मापद्ण्ड नहीं है और मजे की बात यह की इंसान को हरेक चीज में संतुष्टि चाहिये चाहे वह खाने की चीज हो या उपयोग करने की। इंसान जीवन भर अपनी इंद्रियों को संतुष्ट करने मॆं लगा रहता है। इंद्रियाँ शैतानी रुप लेकर इंसान से अपनी तृप्ती पूर्ण करती रहती हैं।
किसी को केवल पेट भरने लायक अन्न मिल जाये तो ही संतुष्टि मिल जाती है, और प्रसन्न रहता है, पर इंसान की इंद्रियाँ बड़ी ही शक्तिशाली होती जा रही हैं, और केवल पेट भरने से आजकल कुछ नहीं होता, घर, गाड़ी, बैंक बैलेंस सब चाहिये, क्यों ? केवल इंद्रियों की संतुष्टि के लिये, अगर यह सब होगा तो गर्व नामक तरल पदार्थ की अनुभूति होती है ? पर इस सब में इंसान अपने भक्ति की संतुष्टि को भुल जाता है।
वैसे भी संतुष्टि इंसान की इंद्रियों की ही देन है और उसकी सोच पर ही निर्भर करता है कि उसकी इंद्रियाँ उस पदार्थ विशेष की कितनी मात्रा मिलने पर तृप्त होती हैं, उस इंसान की जीवन संरचना का भी इंद्रियों पर विशेष प्रभाव होता है। केवल इंद्रियों की तृप्ति याने संतुष्टि के लिये इंसान बुरे कार्यों के लिए उद्यत होता है, अगर इंद्रियाँ तृप्त होंगी तो बुरे कार्य भी नहीं होंगे।
इंसान को जीने के लिये चाहिये क्या दो वक्त की रोटी और तन ढ़कने के लिये कपड़ा, और भगवान ने हर इंसान के हाथों को इतनी ताकत प्रदान की है कि वह अपने लिये खुद यह सब कमा सके। परंतु इंसान ने अपनी ग्रंथियों के पदार्थों की संतुष्टि के लिये दूसरों की रोटी पर भी अधिकार करना शुरु कर दिया, अब हमें केवल रोटी की चिंता नहीं होती, हमें चिंता होती है ऐश्वर्य की, पर इंसान की ग्रंथियाँ यह नहीं समझ रहीं कि ऐश्वर्य पाने के चक्कर में वह कितने लोगों की रोटी ग्रन्थी की संतुष्टि से दूर कर रहा है।
कहाँ ले जायेगी इंद्रियों की तृप्ति के लिये यह संतुष्टि हमें अपने जीवन में यह तो हम भी नहीं जानते ? परंतु इतना तो है कि अगर सही दिशा में सोचा जाये तो कभी न कभी तो खोज के निष्कर्ष पर पहुँचेगें। खोज जारी है अनवरत है… वर्षों से… हम भी उसका एक छोटा सा हिस्सा हैं…
Bilkul sahi
मनुष्य के अंतिम अभीष्ट की खोज सदियों से चल रही है सदियों तक चलेगी …
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जब हम अपनी खुशियों के बारे में सोचते हैं, तो ये आत्मा अतृप्त रहती है, जब हम दूसरों की ख़ुशी के लिए कुछ करते हैं। तो परम सुख की अनुभूति करते हैं. आत्मा तृप्त हो जाती है। जब हम निस्वार्थ होते हैं तो expectations शून्य होती है और ह्रदय में संतोष होता है।
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सुंदर प्रस्तुति
मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ॥
हिन्दी, भाषा के रूप में एक सामाजिक संस्था है, संस्कृति के रूप में सामाजिक प्रतीक और साहित्य के रूप में एक जातीय परंपरा है।
इच्छाएं बरगद के पेड़ की डालियों के समान होती हैं, पेड से निकलती हैं और स्वयं तना बन जाती हैं। फिर नयी निकलती हैं, क्रम चलता रहता है। इसलिए ही भारतीयता में कहा जाता है कि जिसने भी इन्द्रियों को जीत लिया वह भगवान बन जाता है। हम मनुष्य हैं इसलिए हम कर्म भी करते हैं और मनुष्य यदि कर्म को ही महत्व दे तब प्रतिदिन उगने वाली इच्छाओं को शान्त किया जा सकता है। अच्छा विषय उठाया है, बधाई।
शिक्षक दिवस पर अच्छी शिक्षा प्रदान करती प्रस्तुति ।
सही है , यदि आप संतुष्ट हैं , तभी सुखी हो सकते हैं ।
सही कहा!
हिंदी ब्लॉग संकलक हमारीवाणी
मुझे लगता है असंतुष्टि ही हमें बेहतर करने की प्रेरणा देती है यदि हम सभी संतुष्ट हो कर बैठ जाये तो दुनिया में न तो इतने सारी सुविधाए होंगी न हमारा जीवन इतना सरल होगा | चाहे ट्रांसपोर्ट के साधन हो या चिकित्सा की नई तकनीक ये सभी चीजे हमारे और ज्यादा चाहत का परिणाम है | आपने सही कहा यदि असंतुष्टि सही दिशा में हो तो वो अच्छा परिणाम देती है |
वाह वाह ————-बहुत सुन्दर !
बहुत बढ़िया प्रस्तुति …
आपकी आज चर्चा समयचक्र पर…
संतुष्टि को परिभाषित कर पाना बहुत कठिन कार्य है।