कुछ दिनों से बस से ऑफ़िस जा रहे हैं, पहले पता ही नहीं था कि बस हमारे घर की तरफ़ से ऑफ़िस जाती है। बस के सफ़र भी अपने मजे हैं पहला मजा तो यह कि पैसे कम खर्च होते हैं, और ऐसे ही सफ़र करते हुए कितने ही अनजान चेहरों से जान पहचान हो जाती है जिनके नाम पता नहीं होता है परंतु रोज उसी बस में निर्धारित स्टॉप से चढ़ते हैं।
पहले ही दिन बस में बैठने की जगह मिली थी और फ़िर तो शायद बस एक बार और मिली होगी, हमेशा से ही खड़े खड़े जा रहे हैं, और यही सोचते हैं कि चलो सुबह व्यायाम नहीं हो पाता है तो यही सही, घर से बस स्टॉप तक पैदल और फ़िर बस में खड़े खड़े सफ़र, वाह क्या व्यायाम है।
बस में हर तरह के लोग सफ़र करते हैं जो ऑफ़िस जा रहे होते हैं, स्कूल कॉलेज और अपनी मजदूरी पर जा रहे होते हैं, जो कि केवल उनको देखने से या उनकी बातों को सुनने के बाद ही अंदाजा लगाया जा सकता है।
कुछ लोग हमेशा बैठे हुए ही मिलते हैं, रोज हुबहु एक जैसी शक्लवाले, लगता है कि जैसे सीट केवल इन्हीं लोगों के लिये ही बनी हुई है, ये रोज डिपो में जाकर सीट पर कब्जा कर लेते होंगे।
बेस्ट की बस में सफ़र करना अपने आप में रोमांच से कम भी नहीं है, कई फ़िल्मों में बेस्ट की बसें बचपन से देखीं और अब खुद ही उनमें घूम रहे हैं।
बेस्ट की बसों में लिखा रहता है लाईसेंस बैठक क्षमता ४९ लोगों के लिये और २० स्टैंडिंग के लिये, परंतु स्टैंडिंग में तो हमेशा ऐसा लगता है कि अगर यह वाहन निजी होता तो शायद रोज ही हर बस का चालान बनता, कम से कम ७०-८० लोग तो खड़े होकर यात्रा करते हैं, सीट पर तो ज्यादा बैठ नहीं सकते परंतु सीट के बीच की जगह में खड़े लोगों की ३ लाईनें लगती हैं।
बातें बहुत सारी हैं बेस्ट बस की, जारी रहेंगी… इनकी वेबसाईट भी चकाचक है और कहीं जाना हो तो बस नंबर ढूँढ़ने में बहुत मदद भी करती है… बेस्ट की साईट पर जाने के लिये चटका लगाईये।
एक गाना याद आ गया जो कि अमिताभ बच्चन पर फ़िल्माया गया था –
आप लोगों के लिये एक सवाल कंडक्टर को मुंबईया लोग क्या कहते हैं।
प्रशंनीय
बस ,अब बस से बस !
कभी मौका नहीं लगा मुंबई के बस में सफर करने का…
वैसे एक बात पता है आपको भईया, हम ३ बार मुंबई आयें हैं…और दो बार लोकल ट्रेन से ही सफर किये हैं…एक बार तो एक अंकल की गाडी थी तो आराम हो गया था…
अंतिम बार जब आया था तो कसम से मुंबई के लोकल ट्रेन की भीड़ से परेसान..इरिटेट हो गया था…दादर से कुर्ला आना था, इतनी भीड़ दादर में थी की मैं वहां से टैक्सी में आ गया 😛
और ये गाना तो क्या कहूँ…एक बहुत पुराणी बात याद आई..:)
कुछ भी कह दो भायला
पर मेरा सफर तो मजेदार रहा। जब पिछली बार मुंबई आया था मुंबई ब्लॉगर मिलना में। सूरज प्रकाश जी के घर तक बस से आया था और उनके यहां से उनकी कार पर सवार होकर आया ब्लॉगर मिलना स्थल तक और वापसी में सूरज प्रकाश जी की कार में, उसके बाद डॉ. रूपेश उपाध्याय और एक कलाकार मित्र और एक बिटिया (भूल गया नाम) के साथ फिर से बेस्ट बस में। मतलब कुल मिलाकर अच्छा रोमांच रहा। आपने तब नहीं बतलाया कि आप यह सवाल पूछने वाले हैं, नहीं तो हम कंडक्टर भाई से ही पूछ लेते। खैर … नकल करने की आदत नहीं है हमारी। यहीं पर उत्तरों में पढ़ लेंगे।
रोचक!
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
फ़ुरसत में … हिन्दी दिवस कुछ तू-तू मैं-मैं, कुछ मन की बातें और दो क्षणिकाएं, मनोज कुमार, द्वारा “मनोज” पर, पढिए!
वैसे एक बात तो है पुरानी यादें …. याद हमेशा ही आती है…
महिलाओ को यदि सीट मिल जाये बैठने के लिए तो ठीक नहीं तो वो बिल्कूल भी सुविधाजनक और सुरक्षित नहीं होता है कई बार | मैंने एक दो बार सफर क्या है एक बार तो तब जब ७ जुलाई को बम ब्लास्ट हो गया था और मै बांद्रा में फस गई थी बेस्ट की बस तो इतनी भारी थी की उसमे तो चढ़ना नामुमकिन था ए सी बस कुछ खाली थी उसमे बैठ गई पर इतनी बड़ी मुसीबत के बाद भी ड्राइवर और कंडक्टर सभी को यही कह रहे थे की आप को टिकट कटवान पड़ेगा | उस मुसीबत में भी उसे टिकट की पड़ी थी
बसों का हाल सब जगह एक जैसा है । लेकिन दिल्ली में अब बसें खाली चलती हैं और मेट्रो भरी हुई ।
मुंबई में कंडक्टर टिक टिक बहुत करता है । है ना।
बहुत ठस हो गयी है बस।
चलो, सुनाते चलो..हम भी पुराने दिन ताजा कर लेते हैं.
आप ने हमारी पुरानी यादे ताज़ा कर दी …. रोज लोकल बाद में बस यही तो जिंदगी थी जब मुंबई में थे…पर वो भी अलग मज़ा था दोनों जगह रोज जाने वालो का एक ग्रुप था .. वो बाते वो गाने … I'm missing Mumbai
बहुत अच्छी प्रस्तुती
यानि ये ठूंस के बस भरके चलाने का फैशन हर जगह है.. बेस्ट का नाम ही सुना है सर.. इस बार देख भी लेंगे. 🙂