आज सुबह से बहुत सारी पोस्टें पढ़ीं, जिसमॆं सुरेश चिपलूनकर जी की पोस्ट ने बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर दिया। क्यों हम लोग विरोध करने से पीछे हटते जा रहे हैं ?
यहाँ मैं केवल किसी एक मुद्दे के विरोध की बात नहीं कर रहा हूँ, यहाँ मैं बात कर रहा हूँ हर विरोध की, चाहे वह कहीं पर भी हो, गलत बात का विरोध, घर में, बाहर, कार्य स्थान पर कहीं पर भी ! क्यों ?
मानसिकता क्यों ऐसी होती जा रही है कि हमें क्या करना है, जो हो रहा है होने दो, विरोध दर्ज करवाने से भी क्या होगा, वगैराह वगैराह, क्या यही हमारी भारतीय संस्कृति रही है !!
या यह प्रवृत्ति हम धीरे धीरे पश्चिमी सभ्यता से उधार लेकर अपने जीवन में पूरी तरह से उतार चुके हैं, मन उद्वेलित है, कुछ समझ नहीं आ रहा है।
यह पोस्ट शायद १ नवंबर को लिखी थी, पर व्यस्तता और कुछ आलस्य के कारण छाप नहीं पाया।
विवेक,यह विरोध न करने की संस्कृति पश्चिमी नहीं पूर्णतया भारतीय ही है। हमें सदा सबकुछ सहना ही सिखाया जाता है और अधिकारी,सत्ताधारी,शक्तिशाली का तो विरोध हम कभी करना ही नहीं जानते।आज्ञाकारी व सहनशील होना ही हमारा सबसे बड़ा गुण माना जाता है। सदा डर डर कर रहना ही हमें सिखाया जाता है।
घुघूती बासूती
विरोध करने के लिये हाथ पैर चलाने पड़ेंगे मतलब परिश्रम करना पड़ेगा.और हाथ पैर चलाये कौन.
विरोध करने में सुख के छिन जाने का डर रहता है। और सुख का छिनना भारतीय संस्कृति का अंग नहीं है। हम तो त्याग की ही बात करते हैं। चाटुकारिता भारतीय संस्कृति का अंग नहीं है। भारतीय संस्कृति कहती है कि कमजोर की भी रक्षा होनी चाहिए। जो भोग वाद को अहमियत देते हैं वे विरोध नहीं करते।
हम पहले सहन कर के देख लेना चाहते हैं कि सहन करने योगेय है कि नहीं। बाद में आदत बन जाती है।
अब पहले सुरेश जी की पोस्ट तो पढ लूं, तो मामला समझ में आये.