काम निपटाने के बाद वापिस फ़ुटपाथों से होते हुए चर्चगेट स्टेशन की ओर जाने लगे, तो फ़ुटपाथों पर पटरी लगाकर बहुत से लोग बैठे हुए थे, सब अलग अलग तरह की चीजें बेच रहे थे, चीजें वहीं होती जिसे देखकर मन ललचा जाये या जिसकी जरुरत पड़ती रहती हो। और दाम भी इतना कम कि व्यक्ति सोच भी न पाये हाँ मोलभाव तो हर जगह होता है, उसमें महारत होना चाहिये। हम भी चाईनीज खिलौने वाले के पास रुके, बेटेलाल बहुत दिनों से कार की जिद कर रहे थे, कि एक कार और चाहिये, जी हाँ एक और कार क्योंकि एक रिमोट कंट्रोल कार (फ़रारी) पहले ही दिला चुके हैं, वहाँ एक टैंक के रुप वाली कार अच्छी लगी, नैनो भी थी, पर टैंक ज्यादा अच्छा लगा, वह अपने आप चारों तरफ़ अलटता पलटता भी था, दो बैटरी से चलता था, हमें बोला ८० रुपये, हमने कहा सही दाम लगा लो हमें लेना है, भाव नहीं पूछना है, वैसे हम भाव कम ही करते हैं, सामने वाला आदमी अपने आप ही ठीक दाम लगा ले तो भाव करने की जरुरत ही महसूस नहीं होती है। बस उसने हमें बोला कि आखिरी दाम ७० रुपये होगा, तो हम चुपचाप आगे निकल लिये, चर्चगेट स्टेशन के पास पहुँचे तो वहाँ खिलौने वाला एक और दिखा उससे पूछा कि कितना लोगे इस टैंक का वह हमें बोला ६० हम बोले कि ६० में दो सैल भी डालकर दे दो। उसने बिना ना नुकुर करे चुपचाप सैल डाले, गाड़ी चैक की और वापिस डब्बे में गाड़ी पैक करके हाथ में धर दी। हमने रकम चुकाई और चले लोकल पकड़ने के लिये।
स्टेशन पर पहुँचे तो देखा कि ऑटोमेटिक टिकिट वेन्डिंग मशीन बंद पड़ी है, तो टिकिट खिड़की की और १० रुपये लेकर बढ़ लिये, एक बोरिवली का टिकिट लिया और १ रुपया वापिस जेब में रखकर मुड़े ही थे कि देखा कि सामने की तरफ़ दो टिकिट मशीनें लगी हुई थीं, हम रेल्वे प्रशासन को कोसते हुए लोकल की तरफ़ बड़ चले।
चारों प्लेटफ़ॉर्म पर बोरिवली की लोकल के बोर्ड लगे थे, दो बोर्ड पर स्लो थी और दो पर फ़ास्ट, हमने ४ नंबर प्लेटफ़ार्म वाली लोकल पकड़ी क्योंकि उस समय ६.४२ हो रहे थे और वह ६.५२ की फ़ास्ट लोकल थी, तो बैठने की जगह आराम से मिल जाती, और हम आराम से बैठ भी गये, पहले कूपे में ही, क्योंकि हमें कांदिवली उतरना था और वहाँ पुल पहले कूपे के पास में ही आता है। भूख भी लग रही थी, सोचा कि कोई भेलपुरी वाला आता होगा तो ले लेंगे, परंतु किस्मत कि कोई भेलपुरी वाला नहीं आया, और हम वहीं बैठे हुए सफ़र शुरु होने का इंतजार करने लगे। जैसे जैसे लोकल के जाने का समय नजदीक आता जा रहा था, वैसे ही भीड़ का दबाब बड़ने लगा।
बाहर मतलब प्लेटफ़ॉर्म पर और अंदर लोकल में भी लगातार २६/११ के मद्देनजर सतर्कता बरतने की सलाह दी जा रही थी, अगर कोई भी संदिग्ध वस्तु दिखे तो फ़ौरन वर्दी में गश्त कर रहे पुलिस अधिकारियों को जानकारी दें। इस तरह से आतंक के विरुद्ध सघन अभियान चलाया जा रहा था।
हम फ़िर अपना कानकव्वा (हैंड्सफ़्री) मोबाईल में लगाकर एफ़.एम. चैनल सुनने लगे, साथ ही कुछ फ़ोन करने थे, जो करे पर लोकल में होने की वजह से आवाज साफ़ नहीं थी, आवाज कट रही थी, और काल ड्राप हो रही थी, हमने अपने मित्र को बोला कि बाद में काल करते हैं, हालांकि वह काल अभी तक नहीं कर पाये हैं, केवल आलस्य के कारण। लोकल ट्रेन में फ़ोन की आवाज इसलिये साफ़ नहीं आती है, क्योंकि हाई वोल्टेज वायर ट्रेन के पास होते हैं।
तकरीबन ४५ मिनिट में हम कांदिवली पहुँच गये, फ़िर पुल पारकर बस स्थानक की ओर बड़ चले, वहाँ फ़िर लाईन लगी हुई थी, जाते ही २ मिनिट में बस आ गई, मुंबई में सबसे अच्छी बात है कि लोग अनुशासन से रहते हैं, और जो इसका पालन नहीं करता है, उसे सिखा दिया जाता है, और यह अनुशासन हर शहर के लिये जरुरी होता है। बस का टिकिट लिया ७ रुपये का और दूरी होगी मुश्किल से ३-४ किमी., कैसी विसंगती है कि लोकल में ९ रुपये में हम ३५ किमी. आ गये और बस में ७ रुपये में ३-४ किमी., फ़िर भी बेस्ट बोलती है कि किराया और बढ़ाना चाहिये। आखिरकार दिनभर की भागदौड़ के बाद घर पहुँच गये लगभग रात के ९.३० बजे।
ट्रेन का किराया बस की तुलना में बहुत ही सस्ता है। बहुत स्थानों पर एक चौथाई ही है।
भला प्रवीण जी यह मौका कहाँ चूकने वाले थे -इसे कहते हैं प्रोफेसनलिज्म!
मज़ा आया आपकी यह पोस्ट पढके. सस्ती और मजेदार लोकल ट्रेन.
सुन्दर. अब तो १२०० किलोमीटर लम्बी यात्रा के वृत्तांत के लिए पृष्ठभूमि तैयार कर लें.
अच्छा संस्मरण। पढ़ना सुखद रहा।