मेरे पिता कौरवराज धृतराष्ट्र के रथ के राजसारथी थे। वे अधिकतर कौरवों की राजधानी हस्तिनापुर में रहा करते थे। वह नगर तो बहुत दूर था। कभी कभी वे वहाँ से एक बड़ा रथ लेकर चम्पानगरी में आते थे। उस समय मेरे और शोण के उत्साह का रुप कुछ और ही होता था। जैसे ही पर्णकुटी के द्वार पर रथ खड़ा होता था, शोण उसमें कूद पड़ता और घोड़ों की वल्गाएँ पिताजी के हाथों से हठात़् अपने हाथों में लेकर जोर से मुझको पुकारता, “वसु भैया, अरे जल्दी आ । चलो, हम गंगा के किनारे से सीप ले आयें।“ उसकी पुकार सुनकर मैं अपूप खाना वैस ही छोड़कर पर्णकुटी से बाहर आता।
फ़िर हम दोनों मिलकर पिताजी के रथ में बैठकर वायुवेग से नगर के बाहर गंगा के किनारे की ओर जाते। हलके पीले रंग के वे पाँच घोड़े अपने पुष्ट पूँछों के बालों को फ़ुलाकर, कान खड़े कर स्वच्छन्द उछलते जाते। जब वह वल्गाओं से घोड़ो को नियन्त्रित करने की कोशिश करता तो उसे देखते ही बनता और मुझे बुलाता, तो मुझको उससे विलक्षण प्रेम होने लगता। वल्गाएँ मैं अपने हाथ में ले लेता और वह प्रतोद का दण्ड उलटा कर घोड़ों के अयाल तितर बितर कर देता। ’हा ऽऽ हा ऽऽ’ कहकर उनको दौड़ाने के लिये प्रतोद के डण्डे से जब वह मारता तब घोड़े चेतकर पहले की अपेक्षा और अधिक तेज दौड़ने लगते। फ़िर हम दोनों लगभग आधा योजन की दूरी पार कर गंगामाता के किनारे रुकते। लेकिन मेरे हाथ पैर सुन्न हो जाते, अकारण ही मुझे लगता कि अवश्य ही इस पानी से मेरा कुछ संबंध है, उसी क्षण दूसरा विचार आता । छि:, भला पानी से मनुष्य का क्या नाता हो सकता है ? वह तो प्यास से व्याकुल प्राणी को तृप्ती प्रदान करने वाला एक साधन मात्र है वह ! अपनी छोटी-छोटी आँखों से मैं उस पात्र को गटागट पी लेता। उस समय मेरी इच्छा होती कि यदि मेरे सम्पूर्ण शरीर में आँखें होतीं, तो कितना अच्छा होता !
शोण के बालप्रश्नों की बौछारें होने लगती – “भैया, ये सीपियाँ क्या पानी से ही बनती हैं रे ?”
“हाँ”
“फ़िर तो इनपर ये सारे रंग पानी ने ही किये होंगे ?”
“हाँ”
“तो फ़िर पानी में ये रंग क्यों नहीं देखाई पड़ते ?”
और मैं उसके प्रश्नों का उत्तर देना कभी कभी टाल देता था। क्योंकि मैं जानता था कि एक प्रश्न के बाद दूसरा प्रश्न उसके पास अवश्य तैयार होगा। और सच पूछो तो कभी-कभी उसके प्रश्न का उत्तर मुझे भी ज्ञात नहीं होता था। उसके प्रश्नों को दूर करने का प्रयत्न करने के लिये मैं कहता “चल, हम लोगों को बहुत देर हो गयी है।“
जारी रखें यह करणोंपाख्यान !
सालो पहले पढा था और मराठी मे पहली बार मैने पढा था।अरविंद जी सही कह रहे हैं जारी रहे।
bahut hi bahumulya jankari de rahe hain………jari rakhein.
जारी रखिये….आप अमूल्य धरोहर सहेज कर दे रहे है
घर में maujuud होने के बावजूद ये पुस्तक मै पढ़ न सकी ab tak –यहाँ अंश पढ़कर – ruchi jag rahii hai …शुक्रिया