किसी निजी कार्य की वजह से कई दिनों बाद वापिस मुंबई जाना हुआ, जी हाँ मुंबई जो कि माटुँगा रोड से कोलाबा तक कहलाता है (अगर मैं गलत हूँ तो सुधारियेगा)। मैं रहता हूँ कांदिवली में और कार्यालय है मालाड़ में, जो कि मुंबई महानगरी के उपनगर कहलाते हैं। जब बोरिवली या कांदिवली से लोकल ट्रेन में चढ़ेंगे तो पायेंगे कि कई लोग फ़ोन पर बात करते हुए कह रह होंगे कि आज मुंबई जा रहा हूँ। बाहर से आने वाला व्यक्ति तो बिल्कुल चकित ही होगा कि मुंबई में रहकर भी बोल रहे हैं, कि “मुंबई जा रहे हैं”, वैसे यहाँ अगर चर्चगेट, फ़ोर्ट, नरीमन पाईंट या कोलाबा की तरफ़ जा रहे हैं तो लोग यह भी कहते हुए पाये जाते हैं कि “टाऊन” जा रहा हूँ।
कार्यालय से चर्चगेट का सफ़र सबसे पहले शुरु हुआ ऑटो से, हम उतरे मालाड़ एस.वी.रोड याने कि स्वामी विवेकानन्द रोड जो कि बोरिवली से शुरु होकर लोअर परेल तक है। और हमेशा इस पर जबरदस्त ट्रॉफ़िक रहता है, क्योंकि इस सड़क की चौड़ाई बहुत ही कम है और वाहनों का दबाब ज्यादा, हालांकि लिंक रोड और पश्चिम महामार्ग (Western Express High Way) से काफ़ी सहारा है, नहीं तो अगर एस.वी.रोड पर फ़ँस गये तो बस फ़िर तो गई भैंस पानी में।
एस.वी.रोड पर ऑटो से उतरकर मालाड़ स्टेशन शार्टकट से निकले। बहुत कम ऑटो स्टेशन तक जाते हैं क्योंकि वहाँ ट्रॉफ़िक ज्यादा होता है, ऑटो में बैठने वाला भी सोचे कि इससे तो मैं पैदल ही चलकर चला जाता। टिकिट खिड़की पहले माले पर है, गोरेगाँव की तरफ़ वाली, कांदिवली की तरफ़ वाली टिकिट खिड़की के लिये चढ़ना नहीं पड़ता। अपने पर्स से रेल्वे का कार्ड निकाला और ऑटोमेटिक टिकिट वेन्डिंग मशीन पर जाकर अपना टिकिट लिया, चर्चगेट का। आमतौर पर लोकल के टिकिट के लिये लंबी लाईन होती है और कम से कम १५-२० मिनिट लगते ही हैं, अगर व्यक्ति किसी और शहर से आ रहा हो तो सोचेगा कि कम से कम २ घंटे लगेंगे परंतु यहाँ उतनी ही लंबी लाईन १५-२० मिनिट में निपट जाती है, रेल्वे टिकिट खिड़की पर बैठने वाले कर्मचारी अपने इस कार्य में सिद्धहस्त हैं। आजकल तो कंप्यूटर से टिकिट निकालते हैं, तो प्रिंटर को जितना समय लगता है प्रिंट निकालने में उतना ही, नहीं तो इसके पहले तो जब ये खिड़्कियाँ कम्प्यूटरीकृत नहीं हुई थीं, इससे भी जल्दी टिकिट मिलती थी, तब इतनी लाईन को मात्र १० मिनिट लगते थे, पहली बार कम्प्यूटरीकरण के कारण देरी देखी।
प्लेटफ़ॉर्म नंबर २ और ४ पर चर्चगेट की और जाने वाली लोकल आती हैं, और जहाँ से आप टिकिट लेते हैं, वहीं पर टीवी स्क्रीन पर समय के साथ कौन से प्लेटफ़ार्म नंबर पर लोकल आने वाली है और फ़ास्ट है या स्लो, इतनी सब जानकारी वहाँ पर उपलब्ध होती है। इस जानकारी को देखकर आप अपना निर्णय एकदम ले सकते हैं।
मुंबई तो अब मीरा रोड से चर्च गेट तक कहा जाता है. और आम आदमी की बोली मैं दादर के बाद सभी मुंबई जा रहा हूँ, इस्तेमाल किया करते हैं.
अच्छा लगा आप का यह लेख़.
यहां दिल्ली में भी नांगलोई, नजफगढ, नरेला और जमनापार के इलाके के लोग भी ऐसे ही कहते हैं "कि दिल्ली जा रहे हैं।" जबकि ये इलाके दिल्ली में ही हैं।
प्रणाम
हा हा हा ! हमारे गाँव में अब भी ऐसा ही कहते हैं कि दिल्ली जा रहे हैं । जबकि गाँव दिल्ली में ही है ।
जारी रखें अपनी यात्रा, हम भी आपके साथ हैं इस सफर में.
मासूम साहब के कमेण्ट में कल्याण से सीएसटी भी जोड़ लीजिये… 🙂 सब मुम्बई ही मुम्बई है…
अरे इसी रूट पर तो मैं ९१-९३ के दौरान अक्सर जाता था और कुछ अनुभव तो अभी भी वैसे हैं हाँ तब टिकट वेंडिंग मशीन नहीं थी
आपके सफर में आपके साथ..
बताइए तो..कम्पूटर के कारण ही देरी हो गयी…हा हा 🙂
मैं भी वैसे चौंक गया था जब ये पढ़ा की आप मुंबई गए थे…:)
जारी रखिये भैया.
कभी मुंबै गयी नही मगर आपका संस्मरण पढ कर लगता है मै भी यात्रा कर रही हूँ। जारी रहे सफर। शुभकामनायें।
जीवंत यात्रा वृतांत …… आपने तो सब कुछ समेट लिया …..
वैसे तो ४-५ बार मुंबई जा चुका हूँ पर आपकी निगाहों से मुंबई देखना अच्छा लग रहा है। ज़ारी रखें…