हमारे वरिष्ठ जो हमें लेने आने वाले थे, न हमने उनको देखा था और न ही उन्होंने हमें देखा था, और फ़िर ट्रेन का समय भी बहुत सुबह का था, तड़के ५.३० बजे तो हम भी समझ सकते हैं कि शायद उठने में देरी हो सकती है, मुंबई में वैसे भी एक जगह से दूसरी जगह जाने में बहुत समय लग जाता है।
ट्रेन बांद्रा पहुँच चुकी थी और लगभग सारे यात्री प्लेटफ़ॉर्म से चले गये थे, हम सभी अपने डिब्बे के पास ही अपना समान प्लेटफ़ॉर्म पर रखकर इंतजार करने लगे, समय बीतता जा रहा था और हम लोगों की चिंता बड़ती ही जा रही थी। जाते जाते हमारे सहयात्री यह भी बोल गये थे कि कम से कम कहाँ जाना है वह पता तो लिया होता। हमें भी अपनी गलती का अहसास हुआ, पर अब क्या कर सकते थे, हम लोगों ने सोच लिया था कि अगर थोड़ी देर और नहीं आते हैं तो एस.टी.डी. से सीधे कंपनी के उसी व्यक्ति से बात करेंगे जिन्होंने हमें नियुक्ती दी थी।
थोड़ी ही देर में एक लंबा सा व्यक्ति, किसी को ढूँढ़ता हुआ सा लगा जो कि उसी समय प्लेटफ़ॉर्म पर प्रविष्ट हुआ था, और उनके हाथ में १.२ एम.बी. की फ़्लॉपी का डिब्बा था तो हमें लगा कि यह क्म्पयूटर/ सॉफ़्टवेयर से संबंधित ही कोई लगता है, हमने उनको कंपनी का नाम बोलकर पूछा तो वे मुस्करा दिये और बोले कि हाँ मैं आप लोगों को ही लेने आया हूँ। फ़िर वे बोले मैं इसीलिये १.२” फ़्लॉपी बॉक्स लाया क्योंकि इससे तुम लोग आसानी से पहचान पाते। और उन्होंने कहा कि “मुंबई में आपका स्वागत है”। हम खुश थे कि चलो आखिरकार सारे अंदेशे गलत निकले।
हमने उनको कहा कि हमें लगा कि शायद हमसे गलती हो गई कि हम मुंबई का पता लेकर नहीं आये तो वे बोले अरे चिंता मत करो अब तुम आ गये हो, और हम तुम्हारे साथ हैं, अब यहाँ से सीधा होटल चलना है। फ़िर तैयार होकर १० बजे तक ऑफ़िस चलना है, हम बहुत सारे लोग होटल पर हैं और जल्दी चले जायेंगे, मैं तुम लोगों को लेने वापिस होटल पर आऊँगा तब तक हमारे सर भी आ जायेंगे, और कहाँ कैसे काम करना है वह भी बता देंगे।
बांद्रा स्टेशन के बाहर निकले तो टैक्सी से हमें जाना था, वही टैक्सी जिसे आजतक रुपहले पर्दे पर देखते आ रहे थे, और आज वह हमारे सामने थी और हम उसमें बैठने का आनंद लेने वाले थे, कितनी ही फ़िल्मों में टैक्सी देखी थी, फ़िल्मों की बदौलत सब जाना पहचाना लग रहा था, जो जीवन हम अभी तक रुपहले पर्दे पर देखते थे, हम उस जीवन का हिस्सा बनने जा रहे थे।
टैक्सी, ऑटो, बेस्ट की बसें, डबल डॆकर बसें देखकर तो बस मन प्रफ़ुल्लित हो रहा था, सब सपने जैसा लग रहा था कि जैसे हम रुपहले पर्दे में घुस गये हों और सारी दुनिया हमें देख रही है।
जारी…
तो मुंबई के आगोश में आ ही गए आप
ट्रेन से उतरने के बाद जब तक कोई आ नहीं जाता है, बड़े व्यग्र-क्षण बीतते हैं।
टेक्सी चलाता कोई फिल्मी हीरो तो नहीं मिला ना?
🙂
अच्छा है..
बढ़िया चल रही है..मुंबई गाथा…बहुत ही आत्मीय विवरण
अगली कड़ी का इंतज़ार
अरे जल्दी जल्दी ओर ज्यादा लिखो ना… क्यो तरसा रहे हो जी:)
बढ़िया प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.