दिसंबर लगते ही नववर्ष की चहल पहल शुरु हो जाती है, और साथ ही नववर्ष के कैलेण्डर और डायरी का इंतजार भी ।
किसी जमाने में हमारे पास कैलेण्डर और डायरी का अंबार लग जाता था, लोग अपने आप खुद से ही या तो घर पर दे जाते थे, या फ़िर बुला बुलाकर देते थे, हम खुद को बहुत ही गर्वान्वित महसूस करते थे, इन कागज की चीजों को पाकर और अपने अहम को संतुष्ट कर लेते थे।
अब समय के साथ इतना बड़ा अंतर आ गया है कि लोग हमसे इन कागज के कैलेण्डर और डायरी की उम्मीदें करते हैं, हमारे पास होती नहीं है यह अलग बात है। इन कागज की चीजों के तो हम मोहताज ही हो गये हैं, अब उनकी जगह लेपटॉप ने ले ली है।
पहले हम डायरी लिखा करते थे, अब ब्लॉग लिखते हैं। डायरी में बहुत सारी चीजें ऐसी होती थीं जो कि बेहद निजी होती थीं और उस तक केवल अपनी पहुँच होती थी, पर अब ब्लॉग पर लिखे विचार सभी पढ़ते हैं, निजी विचार भी लिखना चाहते हैं, पर अब डायरी में नहीं लिखना चाहते हैं, वैसे ही सभी लोग कागज को बचाने का उपदेश देते रहते हैं, भले ही खुद कागज का कितना ही दुरुपयोग कर रहे हों।
यह विषय संभवत: मुझे कल ऑफ़िस से आते समय बस में मिला, कोई नववर्ष के कैलेण्डर लेकर जा रहा था, तो हमें अपने पुराने दिन याद आ गये और बस कागज की टीस निकल गई।
अब तो हमारे पास एक ही पांचांग होता है लाला रामस्वरूप का पांचांग, कैलेण्डर नहीं, और डायरी अब विन्डोस लाईव राईटर है। पहले इतने कैलेण्डर होते थे कि कई बार तो दीवालों पर नई कीलें ठोंकनी पड़ती थीं, अब वही कीलें हमें याद करती होंगी कि पहले तो कैलेण्डर के लिये ठोंक दिया और अब हम खाली लगी हुई हैं, क्योंकि कील ऐसी चीज है जो हम ठोक तो देते हैं, पर निकालते नहीं हैं। बिल्कुल यह एक हरे जख्म जैसी होती है, जो हमेशा टीस देती रहती है।
अब हम बहुत कम कीलें ठोंकते हैं, जरुरत हो तो भी पहले अपनी जरुरतें कम कर लेते हैं, परंतु कीलों को सोचने पर मजबूर नहीं करना चाहते ।
रही डायरी की बात तो हमने जितनी डायरी लिखी थीं जिसमें हमारी कविताओं की भी डायरी थी, तो जब हम कार्य के लिये घर से बाहर गये हुए थे तो साफ़ सफ़ाई में हमारी डायरी से रद्दी के पैसे आ गये, अब रद्दी वाले भी इतने आते थे कि कौन से रद्दी वाले को पकड़ें, यही समझ में नहीं आया। इसलिये सालों तक हमने उस गम में कविता नहीं लिखी फ़िर सालों बाद लिखना शूरु की, कम से कम अब तो ये रद्दी में कोई बेच नहीं पायेगा।
तो हे नववर्ष अब कभी भी तुम्हारे आने से कैलेण्डर और डायरी का इंतजार नहीं रहेगा।
लाला रामस्वरूप का पंचांग बैंगलोर में कैसे मिल गया? हम तो उसे दिल्ली में ढूंढकर थक गए. झक मारकर भोपाल से मंगाना पड़ा.
सरकारी दफ्तरों में कैलेंडर्स की बड़ी मारामारी है. सबसे अच्छे होते हैं बैंकों के कैलेण्डर जिनपर कोई चित्र नहीं होता, बस बड़ी-बड़ी तारीखें छपी होती हैं.
डायरियां बहुतों के लिए अनुपयोगी हैं. जब भी मुझे कोई मिलती है तो वह बच्चों के काम आ जाती है.
@ निशांत जी – लाला रामस्वरूप का पांचांग बैंगलोर में कहाँ मिलेगा, वह तो हम हमेशा उज्जैन से लाते हैं। हमें भी बड़ी बड़ी तारीखों वाले कैलेंडर ही पसंद हैं, पर अब क्या बतायें, डिजिटल कैलेंडर से अच्छा कुछ नहीं लगता जो हमेशा या तो कम्पयूटर पर या मोबाईल में उपलब्ध रहता है। मेरे लिये डायरी बहुत उपयोगी है परंतु जब मिलना बंद हो जाये तो सोचा कि अब मजबूरी में ही सही इसका भी डिजिटलीकरण कर दिया जाये।
उन्नति (खास कर तकनीकी उन्नति) हमसे कई चीजें छीन लेती है।
अब तो लेपटॉप ही डायरी और कलेंडर है।
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लोहड़ी,पोंगल और मकर सक्रांति : उत्तरायण की ढेर सारी शुभकामनाएँ।
कागज की डायरी पिछले 4 वर्ष से उपयोग नहीं की है।
डायरी लिखना ही भूल गए.
डायरी तो कभी नहीं लिखी । अब तो कलेंडर भी टांगने बंद कर दिए । भाई कील जो गाडनी पड़ती है ।
शुभकामनायें ।
दो कैलेन्डर और एक डायरी एक साल के लिये पर्याप्त है..
वक्त के साथ हर चीज बदलती है।
आपको हार्दिक शुभकामनाएं।
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मुझे नई डायरी बनवानी है 100