विकृत मानसिकता जिसे मैं साधारण शब्दों में कहता हूँ मानसिक दिवालियापन या पागलपन, वैसे विकृत मानसिकता के लिये कोई अधिकृत पैमाना नहीं है, अनपढ़ और पढ़ेलिखे समझदार कोई भी हो जरूरी नहीं है कि उनकी मानसिकता विकृत नहीं हो।
और ऐसे ही कुछ उदाहरण मैंने हिन्दी ब्लॉगजगत में देखे पोस्ट पढ़कर पहली बार में ही विकृत मानसिकता का दर्जा मैंने दे दिया। अब यहाँ ब्लॉगर भी बहुत पढ़े लिखे हैं, और जिनके पास बड़ी बड़ी डिग्री है, वे हिन्दी ब्लॉगिंग की प्रगति में महति योगदान निभाने में अपनी जीवन ऊर्जा लगा रहे हैं। धन्य हैं वे ब्लॉगवीर और वीरांगनाएँ जो यह सोचते हैं कि वे हिन्दी लिख रहे हैं तो हिन्दी समृद्ध हो रही है, वाह ब्लॉगरी विकृत मानसिकता।
जितना समय दूसरे ब्लॉगर की टांग खींचने उनकी टिप्पणियों में अनर्गल पोस्ट लिखने में लगा रहे हैं उतना समय अगर किसी अच्छे विषय पर या अपनी दिनचर्या से कोई एक अच्छा सा पल लिखने में लगाते तो शायद उससे पाठक ज्यादा आकर्षित होते। परंतु कैसे स्टॉर ब्लॉगर बनें और कैसे ब्लॉगरों की टाँग खींचे ये सब प्रपंच कोई इन विकृत मानसिकता वाले ब्लॉगर्स से सीखें।
अपन तो अपने में ही मगन हैं, किसी की दो और दो चार में अपना कोई योगदान नहीं है, फ़िर भले ही वे दो और दो पाँच ही क्यों हो रहे हों, पर फ़िर भी पढ़े लिखों की विकृत मानसिकता नहीं देखते बनती। इससे अच्छा है कि … (अब भला मैं ये क्यों लिखूँ, वे खुद ही समझ लें।)
सहमत हूं आपसे।
यदि तोर डाक शुने केऊ न आसे
तबे एकला चलो रे।
इसीलिये अपनी आज की पोस्ट को पहले ही फालतू पोस्ट कह चुका हूं 🙂
जानता हूं कि इस तरह से टांग खिंचाई में समय व्यर्थ करना ठीक नहीं लेकिन कभी कभी यह जरूरी हो जाता है चेताने के लिये कि सब कुछ ठीक जैसा नहीं है ब्लॉगिंग में।
कहीं कुछ गलत भी हो रहा है, उस ओर इशारा करना जरूरी होता है।
विवेक भाई,
आपके विचारो से १०० % सहमत हूँ !
अधिसंख्य में न तो यह सब्र है कि अपनी प्रतिभा के बल पर पाठक बनाए। और न ऐसी विचारशीलता की नविनतम विचारो पर पाठको को प्रभावित कर सके।
बस फ़िर लोगो के पास सब्जीमंडी के तरिके ही शेष बचते है।
पता नही इन सब को क्या मिलता हे
छोटा जीवन है, बहुत समय नहीं है इन सब के लिये।
आपका लेख पढ़ कर बहुत अच्छा लगा |एक दुसरे की टांग खींचने से तो अच्छा है उस समय का
उपयोग कर अपने लेखन में परिष्कार लाया जाए |आज की पोस्ट के लिये बधाई |
आशा
ब्लागिंग की सीमा रेखाएं अभी तय नहीं हुयी हैं !
विवेक भाई , आखिर हैं तो सब इसी समाज का हिस्सा न तो स्वाभाविक रूप से वो सब भी आयात हो कर आएगा ही जो समाज में फ़ैला हुआ है । हां पढने लिखने वालों की भाषा देख कर कभी कभी अफ़सोस हो जाता है कि ऐसा लिख कर आखिर हासिल किसे क्या होता है । फ़िर अभी तो कई रेलगाडियों के शौचालय की दीवारें हैं बची हुईं । सार्थक प्रश्न
मेरा नया ठिकाना
आपकी बात काफी हद तक सही है पर शायद कभी कभी विरोध करना जरूरी हो जाता हो। गलत चीज़ों को नज़र अंदाज करने की भी एक सीमा होती है।
– सब तरह के लोग सब जगह होते हैं।
– उपेक्षा सबसे बडा दण्ड होता है।
बस।