बोधिपुस्तक पर्व की एक कहानी की पुस्तक, नाम है “गुडनाईट इंडिया” और लेखक हैं प्रमोद कुमार शर्मा, इसमें लेखक ने एक से एक बढ़कर कहानियाँ दी हैं, जो कि भारत के सामाजिक तानेबाने की गहन तस्वीरें दिखाती हैं, अमूमन तो पढ़ने का समय मिल नहीं पाता, परंतु रोज घर से कार्यस्थल आते समय बस में मिलने वाला समय अब पढ़ने में लगाते हैं, पहले सोचा था कि पतली सी किताब है जल्दी ही खत्म हो जायेगी, परंतु एक कहानी के बाद दूसरी कहानी में जाना सरल नहीं, उस कहानी के मनोभाव में डूबकर नयी कहानी के मनोभावों में जाना बहुत ही कठिन प्रतीत होता है, कल यह कहानी पढ़ी थी कहने को तो छोटी कहानी है। लेखक ने अपने पात्रों को सुघड़ और सामाजिक परिवेश में रचा बसा है कि ऐसा लगता ही नहीं कि यह मुझसे दूर कहीं ओर की कहानी है।
“दूध की बोतल” जैसा कि कहानी के नाम से ही प्रतीत होता है, कि यह कहानी दूध की बोतल पर लिखी गई है, इसमें एक छोटा सा परिवार पात्र है जो कि ग्राम्य परिवेश में रहता है और घर में बच्ची होने के बाद अपनी कुलदेवी को धोक देने कुलदेवी के स्थान जा रहा है। परिवार में माता पिता पुत्र बहू और छोटी सी पोती जो कि कुछ ही माह की है, बड़ी मुश्किल से पोती हुई है उसके लिये जातरा बोली थी, इसलिये वो कुलदेवी के स्थान जा रहे हैं।
परिवार मध्यमवर्गीय है, पर बहू भारत की आधुनिक विचारों वाली नारी है जो कि अच्छे और बुरे का अंतर अपने हिसाब से करती है, शादी के कुछ दिन बाद ही उसके पैर भारी हो जाते हैं, तो वह अपने पति से कहती है कि वह बच्चे को दूध नहीं पिलायेगी, बच्चे को ऊपर का दूध दूँगी। नहीं तो मेरी छातियाँ लटक जायेंगी, पति उसे बहुत समझाने की कोशिश करता है कि बच्चे के लिये तो माँ का दूध अमृत समान होता है और माँ को दूध पिलाने पर अद्भुत संतोष मिलता है, परंतु वह अपने आधुनिक विचारों में पढ़े लिखे होने और अपनी परवरिश का हवाला देकर बिल्कुल जिद पकड़ लेती है, पति भी अपनी आधुनिक युग की सोच वाली पत्नी को मना नहीं पाता।
बच्चा मुश्किल से होता है, जच्चा और बच्चा दोनों स्वस्थ हैं, पर माँ को दूध ही नहीं उतरता। कुलदेवी की जातरा जाने के लिये पिताजी ने जीप कर ली है, और चल पड़े हैं कुलदेवी को धोक देने के लिये, बीच में बच्ची रोती है तो पिताजी कहते हैं कि बेटा जरा पोती को दूध पिला दो, तो बेटा थैलों में बोतल ढूँढ़ता है पर बोतल नहीं मिली, वह कहता है कि बोतल तो घर पर ही छूट गई, तो ड्राईवर कहता है कि कुलदेवी के स्थान पहुँचने में और १ घंटा लगेगा, वहाँ कटोरी चम्मच से दूध पिला देना। पिताजी कहते हैं कि बच्ची भूख से बेहाल है और गरमी भी इतनी हो रही है, थोड़ा पानी ही पिला दो, थोड़ा पानी पिलाने के बाद बच्ची चुप हो जाती है, रास्ता खराब है, पर थोड़ी देर के बाद ही हाईवे आ जाता है, थोड़ी आगे जाने के बाद ही जीप खराब हो जाती है, और ड्राईवर और बेटा पास के गाँव में पार्ट लेकर ठीक करवाने जाते हैं। पीछे बच्ची की हालत भूख और गर्मी के मारे खराब होती जा रही थी, पर वह मन ही मन अपने को दिलासा भी देती जा रही थी कि अरे मरेगी थोड़े ही.. (माँ ऐसा भी सोच सकती है !!) तभी उसकी ममता जाग उठती है और वह जोर से अपनी छाती से बच्ची को लगा लेती है, तो उसे अचानक महसूस होता है कि उसकी छातियों में दूध उतर आया है, वह पिलाने ही जा रही होती है कि तभी उसके मन में विचार आया कि “क्या कर रही है, अभी जो बच्ची को दूध पिला दिया तो रोज की आफ़त हो जायेगी”, बच्ची रोते रोते सो गई।
डेढ़ घंटे बाद ड्राईवर बेटे के साथ आ गया तो बोला कि बड़ी मुश्किल से बोतल मिली है, लो निपल लगाओ बच्ची के मुँह में, पर बच्ची निपल मुँह में नहीं ले रही, जबरदस्ती मुँह में निपल को ठूँसा तो देखा कि धार मुँह से बाहर निकलने लगी, पिताजी जोर से चिल्लाये कि “अरे बच्ची ठीक तो है !! देखो दूध क्यों नहीं पी रही”, अन्तत: ड्राईवर बोला “साहब वापस चलते हैं, बच्ची अब नहीं रही।” ड्राईवर की बात सुनते ही बहू चीख मारकर बेहोश हो गई। पूरा परिवार शोकाकुल हो गया, केवल ड्राईवर ही होश में था और उसे पूरा विश्वास था कि वह दुख की इस घड़ी में परिवार की मदद कर सकेगा।
संवाद जो बहुत दिन बाद पढ़े –
“प्रविसे नगर कीजै सब काजा, ह्रदय राखी कौसलपुर राजा…।”
“देखो… मैं अपने पापा के यहाँ स्वतंत्र विचारों से पली-बढ़ी हूँ। मुझे ये दकियानूसी तरीके ठीक नहीं लगते।”
इस कहानी को पढ़ने के बाद मुझे भी अवसाद ने जकड़ लिया, और उसके बाद कुछ भी सोचने की हिम्मत ही नहीं हो रही थी, लेखक ने अपने पात्रों के साथ बराबर न्याय किया और पाठक तक बात पहुँचाने में सक्षम भी रहा। लेखक ने अवसाद को अपनी कलम से खूब लिखा है। मैंने घर पहुँचकर अपनी घरवाली को बोला कि आज एक कहानी पढ़ी थी तो उसके बाद से मुझे अवसाद ने घेर लिया, और जैसे ही मैंने कहानी का नाम लिया “दूध की बोतल”, तो बोली हाँ मैंने भी पढ़ी थी और उस कहानी के बाद उसके आगे की कहानियाँ पढ़ने की हिम्मत ही नहीं हुई, और अभी तक कोई किताब पढ़ भी नहीं पाई। लेखक के लेखन से मैं मुग्ध हूँ।
आप भी ये किताबें मँगा सकते हैं, मात्र १०० रुपये में बोधिपुस्तक पर्व की किताबें उपलब्ध हैं, जिसमें हिन्दी की १० किताबें हैं। सब एक से बढ़कर एक।
१०० रुपये का मनीऑर्डर भेजने पर वे घर पर भेज देते हैं –
पता – बोधि प्रकाशन, एफ़- ७७, सेक्टर ९, रोड नं ११, करतारपुरा इंडस्ट्रियल एरिया, बाईस गोदाम ,जयपुर, – ३०२००६
दूरभाष – 0141 – 2503989, 98290-18087
मंगवाते हैं.
मार्मिक सत्य कहें इसे या बेवकूफी।
पाण्डेय जी की टिप्पणी दोहराता हूं…
उफ़ ..क्या ये सत्य हो सकता है???ऐसी भी माँ हो सकती है??
आदरणीय समीर जी की टिप्पणी दोहराता हूं..
ये सिर्फ एक कहानी है सत्य नहीं | विज्ञानं पढ़ने वाले बता सकते है की दूध आने के बाद भी उसे ना पिलाना माँ के लिए और भी हनिकारका है और उसे असहनीय पीड़ा दे सकता है और वो उसे रोक भी नहीं सकती …………..
यह एक ही कहानी काफी है, आप पूरी पुस्तक का पता बता रहे हैं.
प्रवीण जी ने सही कहा -ऐसा कोई मां कर सकती है भला ?
आप ने कहानी हमे पढवाई हे ओर हम ने ऎसी ही एक मां देखी हे, जो अपने बच्चो को इस लिये दुध नही पिला रही हे कि उस की देह खराब ना हो जाये, उस की छाती ना डलक जाये… होती हे ऎसी भी माऎ…..