ऑफ़िस से पैदल ही बाहर निकल पड़ा था, आज अकेला ही था, कोई साथ न था, या तो पहले निकल गये थे या फ़िर रुके हुए थे, मैं ही थोड़ा समय के बीच से निकल गया था। पता नहीं इन कांक्रीट के जंगलों में सोचता हुआ चला जा रहा था। आज तो वो मूँगफ़ली वाला ठेला भी नहीं था, जिससे अक्सर मैं पाँच रुपये के मूँगफ़ली के दाने बोले तो टाईमपास लेता था, पाँच रुपये में ४-५ कुप्पी, उसका भी अपना नापने का अलग ही पैमाना है, बिल्कुल फ़ुल बोतल के ढ्क्कन के साईज की कुप्पी है उसकी। अपनी पुरानी आदत जो पिछले ५-६ साल से मुंबई में लग गयी है, चलते हुए ही खा लेना।
यहाँ तो सब ऐसे घूर घूर कर देखते हैं, कि जैसे चलते चलते खाकर गुनाह कर रहे हों, या फ़िर जैसे मैं उनका अनुशासन तोड़ रहा हूँ। पर अपन भी बिना किसी की परवाह किये अपने नमकीन वाले मूँगफ़ली के दाने टूँगते हुए अपने बस स्टॉप की ओर बड़ते जाते हैं।
अब मूँगफ़ली वाला नहीं था और भूख भी लग रही थी थोड़ी कुनमुनी सी, जिसमें केवल टूँगने के लिये कुछ चाहिये होता है, वहीं बस स्टॉप के पास के भेलपुरी वाले को देखा था, देखा था क्या रोज ही देखते हैं, सोचा कि चलो आज इसको भी निपटा लिया जाये।
१५-२० मिनिट चलने के बाद पहुँच लिये उसके पास, टमाटर काट रहा था, वो भी धीरे धीरे, उसको देखकर ही लगगया कि ये व्यक्ति यहीं का है, अगर मुंबई का भेलपुरी वाला होता तो पूछिये ही मत उनकी प्याज, आलू और टमाटर काटने की रफ़्तार देखते ही बनती है, वह भी चाकू से नहीं, एक पत्ती जैसी चीज होती है जिस पर उनका हाथ बैठ चुका होता है।
सोचा कि चलो काटने दो, अब इसको क्या बोलें। सब समान भेलपुरी का एक स्टील के भगौने में चमचे से मिलाया और कागज की पुंगी बनाकर उसमें दे दिया और साथ ही एक प्लास्टिक का चम्मच, हमने कहा कि भई अपने को तो पपड़ी चाहिये, और पपड़ी लेकर चल पड़े बस स्टॉप की ओर।
हालांकि भेलपुरी मुंबई की ही फ़ेमस है, परंतु अब तो हर जगह होड़ लगी है, एक दूसरे के पकवान बनाने की, जबकि मुंबई और बैंगलोर में जमीन आसमान का फ़र्क है, यहाँ मिनिटों में लेट होने पर कुछ नहीं होता, पर वहाँ मुंबई मिनिट मिनिट का हिसाब रखती है। |
वहाँ बस स्टॉप पर खड़े होकर बस का इंतजार भी कर रहे थे और साथ में भेलपुरी खाते भी जा रहे थे, तो लोग फ़िर घूर घूर कर देखना शुरु कर दिये जैसे कि मैं कोई एलियन हूँ। बस आई और हम भेलपुरी खाते हुए बस में चढ़ लिये, कंडक्टर टिकट देने आया तो उसके मनोभावों से लग रहा था कि अभी बोलेगा कि बस में भेलपुरी खाना मना है, परंतु वह चुपचाप टिकट देकर और अनखने से निकल लिया, अब बारी आई आसपास वालों की, तो शाम का समय रहता है, सबको हल्की भूख तो लगती ही है, मुंह में पानी भी आ रहा होगा पर करें क्या मांग तो सकते नहीं ना…! 😉 हम चटकार लेकर भेलपुरी खतम किये और वो कागज की पुंगी बेग के साईड जेब में डाली और बोतल निकाल कर पानी पीकर एक अच्छी सी डकार ली।
हालांकि सबके चेहरे अतृप्त लग रहे थे, पर मैं पूर्ण तृप्त था।
इच्छा तो हमारी भी हो रही भेल खाने की…..
जय हो आपकी, इस स्क्रिप्ट पर तो शानदार सीन फिल्माया जा सकता है।
बाँट कर खाना था न 🙂
आफिस से तो हम भी पैदल ही बाहर निकलते हैं। आफिस से अंदर से पैरों के सिवाय कोई गाड़ी बाहर नहीं आती है। लिफ्ट भी सीधे नीचे या ऊपर ले जाती है। वहां तक पैदल ही आना होता है। भेल पूरी जब खाते हैं। मौसम मुंह के भीतर का सुहाना होता है। और प्रवीण भाई, विवेक जी मुंबई में रहे हैं। अपने ब्लॉग पर इन्होंने कई आर्थिक फिल्मों की पटकथा लिखी है। बस अभी तक किसी निर्माता/निर्देशक की उस पर नजर नहीं पड़ी है।
मजेदार।
वैसे मुंबई में किसी को फिक्र नहीं होती कि सामने वाला क्या खा रहा है क्या नहीं…..किसी को फुरसत ही नहीं होती। अगर बस में बैठा हो तो भी अपने में गुम होता है 🙂
विवेक जी, ई त कम्पेरिज़न हो गया…. अरे इससे भी भयानक एक्सपीरियंस हुआ था हमें जब हम मुम्बई से चेन्नई गये थे…..
हर शहर का अपना अपना कल्चर है…. मुम्बई कभी सोती नहीं, कभी रुकती नहीं…. हमेशा भागती हुई रफ़्तार को तेज़ करती हुई…. मुम्बई!!
बढ़िया है.
waah
majedar hai.
अच्छी लगी आपकी ये छोटी सी झलक। विषय बदलकर लिखने से ताजगी बनी रहती है।
सही कहा आपने मुंबई पल-पल का हिसाब मांगती है
बहुत मस्त लगी जी आप की बात. धन्यवाद
"हालांकि सबके चेहरे अतृप्त लग रहे थे, पर मैं पूर्ण तृप्त था।"
एक अतृप्त यहाँ भी है … जोड़ लीजिये … अपनी लिस्ट में |
हाँ भैया, यहाँ वैसा सिस्टम नहीं है की भेलपुरी खाते हुए बस पे चढ़ जाओ…इसीलिए आपको सब वैसे देख रहे होंगे 😉
वैसे अगर मैं भी होता उस बस में तो आपके भेलपुरी के तरफ ललचाई नज़रों से ही देखता 😉
वैसे मूंगफली, वो जो आपने बताया पांच रूपया वाला…उसे मैं भी खाता हूँ, जहाँ भी नज़र आ जाए रोड के किनारे 🙂
मजेदार पोस्ट! भेलपुरी का स्वाद मिल गया। 🙂