अभी हाल ही में फ़िल्म “शहंशाह” देखी, जिसमें जे.के. याने के अमरीश पुरी और प्रेम चोपड़ा का एक सीन जहन में अटक गया, दोनों एक होटल में जाते हैं, और शक्ल से ही अमीर लगते हैं, जैसे ही रेस्टारेंट में प्रवेश करते हैं, एक वेटर आकर अभिवादन करता है और अमरीश पुरी अपनी जेब से बटुआ निकालकर एक सौ रुपये का नोट उसे वेटर को टिप देते हैं। प्रेम चोपड़ा बहुत ही अजीब तरीके से और आश्चर्यचकित तरीके से अमरीशपुरी को देखते हैं। जब वे अपनी टेबल पर आते हैं, तो प्रेम चोपड़ा पूछ ही लेते हैं –
“लोग बिल के बाद टिप देते हैं, और तुम हो कि पहले से ही टिप दिये जा रहे हो !, क्या अजीब आदमी हो, क्यों ?”
अमरीश पुरी जबाब देते हैं –
“बिल के बाद टिप देना तो रिवाज है, हम टिप पहले देते हैं जो कि अच्छी सर्विस की गारंटी है।”
बात तो छोटी सी है पर अमरीश पुरी की बातों में दम लगा, वाकई बिल के बाद टिप देना रिवाज है, सर्विस अच्छी मिले या नहीं परंतु आप टिप दे ही देते हैं। पर अगर जिस जगह पर आप जा रहे हैं और वहाँ आप अक्सर जाते रहते हैं तो शायद पहले टिप देने से अच्छी सर्विस मिल सकती है।
अब आते हैं अपनी बात पर तो पहले तो हम टिप देने में यकीन ही नहीं रखते, क्योंकि रेस्टोरेंट में खाना ही इतना महँगा होता है कि ऐसा लगता है कि होटल के मालिक के टिप भी इसमें ही जुड़ी रहती है, खैर फ़िर धीरे धीरे कुछ टिप देने का रिवाज समझ में आने लगा और कुछ रुपये टिप देने लगे। टिप को लेकर मुंबई में कई खट्टे मीठे अनुभव हुए, फ़िर धीरे धीरे यह सीख लिया कि अगर खाना अच्छा हो तो ही टिप दो, और सर्विस भी, क्योंकि खाना अच्छा होना न होना तो बनाने वाले शेरिफ़ पर निर्भर करता है, परंतु अगर आप शिकायत करते हैं या कुछ अन्य चीज आप मंगवाते हैं तो उसे कितनी प्राथमिकता के साथ पूरा किया जाता है।
ऐसी बहुत सारी वस्तुस्थितियाँ होती हैं जो कि यह सुनिश्चित करती हैं कि आप कितनी टिप देते हैं, और वह भी अच्छे मन से या खराब मन से।
हमने मुंबई में सुना है कि कुछ जगहों पर टिप भी बिल में लगाकर दे दिया जाता है, खैर आजतक तो हमें ऐसा कोई होटल नहीं मिला या यूँ कह सकते हैं कि हम इस तरह के होटल में गये नहीं ! 🙂
टिप न मिलने पर वेटर की मुखमुद्रा बता देती है कि वह खुश है या नहीं, और तो और जब आप खाना खा रहे होते हैं, तभी वेटर समझ जाता है कि टिप मिलने वाली है या नहीं।
कुछ वेटर ऐसे भी होते हैं, जब देखते हैं कि कोई टिप नहीं मिल रही है और बिल अदा करके निकले जा रहे हैं, तो भुनभुनाते हैं, या फ़िर इतनी आवाज में बोलते हैं कि कम से कम आपको तो सुनाई ही दे जाये, “क्या कंगले हैं, टिप के पैसे भी जेब से नहीं निकलते हैं”, और कुछ होते हैं जो सीधे पूछ लेते हैं कि “आपने टिप नहीं दी।”
हमारे एक मित्र हैं उनकी फ़िलोसॉफ़ी है कि बिल का १०% टिप देना चाहिये, हमने कहा कि भई अपने बस की बात नहीं कि १०% टिप अपन अफ़ोर्ड कर पायें, जितनी अपनी जेब इजाजत देती है, अपन तो उतनी ही टिप पूर्ण श्रद्धा भक्ति से दे देते हैं।
कैसे हैं आपके अनुभव टिप के बारे में…
jabse service charges add hokar bil milne laga humne tip dena chhod diyaa
मैं तो कभी नहीं देता टिप, मगर मेरी श्रीमती जी बिना दिए मानती ही नहीं, कहती हैं यह उसका अधिकार है !
"…खाना अच्छा होना न होना तो बनाने वाले शेरिफ़ पर निर्भर करता है…"
मुझे लगता है यहां "शेरिफ़" की बजाय "शेफ़" होना चाहिये… शेरिफ़ की मुम्बई में काफ़ी इज्जत होती है (थी)… 🙂 🙂
मैं टिप इसलिए देता हूँ क्योंकि मैं अपने होटलवाले मित्रों के हवाले से यह जानता हूँ की होटलवाले अपने वेटरों को नाममात्र की तनखा देते हैं क्योंकि उनके अनुसार वेटरों की असली कमाई टिप से होती है.
टिप का मतलब ही है to insure promptness. पर बिल के साथ टिप देने से लगता है कि वेटर अगली बार पहचा लेगा…पर अमरीश साबह बाक़ई प्रेक्टिल रहे फ़िल्म में 🙂
मै कभी भी टिप नही देता, जब कि मेरे सथ वाले( भारत मे) बोलते हे अरे टिप्प दो तो मै जल भुन कर ही देता हुं, भाई मेहनत से कमाते हे, तो मुफ़त मे देने से दर्द होता हे
टिप देना विज्ञान है या कला।
प्रवीणजी के सवाल में अपनी हॉं मिलाते हुए अपन आप से शब्दश: सहमत हैं।
चिल्लर देने में हर्ज क्या है..