पिछले दो दिनों में दो वयस्क फ़िल्में देख लीं, जो कि बहुत दिनों से देखने की सोच रहे थे और ऐसे महीनों निकल जाते हैं फ़िल्में देखे हुए। पहली “देहली बेहली” और दूसरी “मर्डर २”। दोनों ही फ़िल्में अलग अलग कारणों से वयस्क दी गई होंगी। जहाँ “देहली बेहली” एक व्यस्क हास्य फ़िल्म है वहीं “मर्डर २” में गरम दृश्य, थोड़ी बहुत गालियाँ और हिंसक दृश्य हैं ।
अगर गरम दृश्यों की बात की जाये तो “देहली बेहली” में कुछ दृश्य ऐसे हैं जो कि लोगों को आपत्तिजनक लग सकते हैं मगर आजकल की पीढी इसे आपत्तिजनक नहीं मानती और इसे हास्यदृश्य ही मानेगी, तो यहाँ पीढ़ियों के अंतर की बात आ जाती है, और वहीं “मर्डर २” में गरम दृश्यों की जरूरत न होने पर भी ठूँसा गया है जो कि बोझिल से लगते हैं, परंतु उत्तेजना पैदा करने में कामयाब हुए हैं।
अगर गालियों की बात की जाये तो “मर्डर २” में शायद ३-४ गालियों से ज्यादा नहीं हैं, और वे भी बिल्कुल सही तरीके से उपयोग की गई हैं, कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि गालियों को जबरदस्ती ठूँसा गया है या कम गालियों में काम चला लिया गया है। अब जब वयस्क फ़िल्म का सर्टिफ़िकेट लिया ही था तो कुछ गालियों का उपयोग तो कर ही सकते थे, और वह उन्होंने किया।
देहली बेहली के लिये मैंने फ़ेसबुक पर नोट लिखा था वही यहाँ चिपका रहा हूँ।
कल “डैली बैली” ए सर्टीफ़िकेट फ़िल्म देखी, तो लगा कि कई जगह जान बूझकर गाली कम दी गई है, जहाँ ज्यादा गालियाँ होनी चाहिये वहाँ केवल एक ही गाली से काम चला लिया गया है, अगर सही तरीके से गालियों का विज्ञान समझ लिया जाता तो यह संभव था, इसके लिये विशेष रूप से स्कूल और कॉलेज में जाकर समझा जा सकता है। या फ़िर वे लड़के जो होस्टल में रहते हैं, या अपने घर से अलग रहते हैं, उनका रहन सहन और गालियों का उपयोग बकायदा व्याकरण के तौर पर किया जाता है। वैसे आजकल हमारा गालियाँ देना काफ़ी कम हो गया है, परंतु हाँ अपने पुराने मित्रों के साथ आज भी बातें करते हैं तो बिना गालियों के बातें करना अच्छा नहीं लगता है, उसमें आत्मीयता लगती है। हालांकि किसी तीसरे सुनने वाले को यह गलत लग सकती है परंतु अगर व्याकरण का उपयोग नहीं किया जाये तो बात का मजा ही नहीं आता।
अब एक बात और है, जो सभ्य (मतलब कहने के लिये नहीं वाकई सभ्य, जिन लोगों ने अपने जीवन में कभी गालियाँ नहीं दीं) हैं, तो यह फ़िल्म वाकई उन लोगों के लिये नहीं है। यह हम जैसे सभ्यों (हम ऐसे सभ्य हैं, कि समय पड़ने पर इतनी गालियाँ दे सकते हैं और ऐसी ऐसी गालियाँ दे सकते हैं, कि अच्छे अच्छों के पसीने छूट जायें, पर देते नहीं हैं) के लिये है। खासकर युवावर्ग इसे बहुत पसंद करेगा।
हिंसक दृश्यों की बात की जाये तो “मर्डर २” में हिंसक दृश्य अपना पूर्ण प्रभाव नहीं छोड़ पाये, वयस्क सर्टिफ़िकेट था तो हिंसक दृश्य को और बेहतर बनाया जा सकता था, हालांकि प्रशांत नारायन ने अपनी और से कोई कसर नहीं छोड़ी है, हिजड़ा बनने का दृश्य बहुत प्रभावी हैं और जो दृश्य पूर्व में आशुतोष राणा ने निभाये हैं, उनकी टक्कर के हैं। वैसे भी महेश भट्ट की फ़िल्म में अगर हिजड़ा ना हो तो उनकी फ़िल्म पूरी नहीं होती।
“देहली बेहली” में हिंसक दृश्य प्रभावी बन पड़े हैं, जैसे कि अमूमन दृश्य में संवाद बनाये हैं, उससे वे दृश्य प्रभावी बन पड़े हैं, परंतु कुछ दृश्य हास्य पैदा करते हैं।
कुल मिलाकर “देहली बेहली” बहुत अच्छी फ़िल्म लगी और “मर्डर २” ठीक ठाक, मतलब बहुत अच्छी नहीं। अच्छी बात यह है कि दोनों ही फ़िल्मों की पटकथा अच्छी कसी हुई है और अपने से दूर नहीं होने देती है।
अब जल्दी ही “चिल्लर पार्टी” देखने की इच्छा है।
दिल्ली बेली मैंने देखी -ब्लॉग पर समीक्षा भी की है पूरी बकवास है ..मर्डर -२ देख सकते हैं नहीं भी !
इनके साथ अब एक नए ढंग की फिल्मों का प्रचलन चल पड़ा है !
अभी दोनों ही फ़िल्में नहीं देखी है … पर इच्छा है देखने की …
चिल्लर पार्टी की समीक्षा का इंतज़ार रहेगा।
आपकी समीक्षायें काम आयेंगी।
मैं तो नई फिल्में बहुत कम देखता हूं इसलिये मेरे लिये शायद इसका उपयोग नहीं होगा..
छांट के देखी फ़िल्में… दोनों 'A'..:)
@ अच्छी बात यह है कि दोनों ही फ़िल्मों की … यानि पैसा वसूल टाइप.
एक उलझन कम करने के लिए धन्यवाद। अब 'मर्डर-2' नहीं देखना पक्का।
@यह हम जैसे सभ्यों (हम ऐसे सभ्य हैं, कि समय पड़ने पर इतनी गालियाँ दे सकते हैं और ऐसी ऐसी गालियाँ दे सकते हैं, कि अच्छे अच्छों के पसीने छूट जायें, पर देते नहीं हैं) के लिये है।..
चलिए एक खास बात पता चली ,आभार.
दोनों ही पेन्डिंग हैं…मगर लिस्ट में हैं…चलिये, पैसा वसूल तो हो ही जायेगा..
अब तो ये फ़िल्में भी पुरानी हो चलीं! क्या देखा जाये! समीक्षा तो पढ़ ही ली। देल्ही बेली तो वैसे भी मिसिरजी ने मना की है देखने के लिये तो कैसे उनकी बात को टालें! 🙂