क्या आप २० रुपये में एक दिन का खाना खा सकते हैं ?
यह प्रश्न बहुत ही व्यवहारिक है, क्योंकि सरकार ने गरीबी रेखा के लिये जो सीमा निर्धारित की है वह है २० रूपये प्रतिदिन, अगर कोई २० रूपये प्रतिदिन से ज्यादा कमाता है तो वह गरीबी रेखा में नहीं आता है।
भारतीय प्रबंधन संस्थान, बैंगलोर के ७५ छात्रों ने समूहों में बँटकर गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों का जमीनी संघर्ष जाना। भारतीय प्रबंधन संस्थान के छात्रों के लिये २० रूपये कोई बहुत बड़ी चीज नहीं है, जब वे चले तो उन्होंने अपने पास केवल २० रूपये ही रखे और खाने की कोई भी सामग्री नहीं रखी।
जब उन्होंने २० रूपयों में पूरा दिन गुजारा तो उन्हें पैसे की कीमत पता चली और उन्होंने देखा कि गरीबी रेखा के नीचे वाले कैसे जीवन यापन करते होंगे। २० रूपये से ज्यादा की तो एक दिन में नाश्ता या सिगरेट पीने वाले प्रबंधन संस्थान के छात्र सकते में थे, और इन लोगों के लिये मूलभूत सुविधाओं को कैसे जुटाया जाये ये सोचने पर मजबूर थे। मूलभुत सुविधाओं का न होने के लिये सरकार को ही दोषी नहीं माना जा सकत है।
इस महँगाई के जमाने में उन्हें अगर सब्जी खाना हो तो पत्तेदार सब्जी थोड़ी बहुत आ सकती है, या फ़िर शाम को बची हुई गली सी सब्जी में से उन्हें सब्जी खरीदनी पड़ती है। चावल भी अगर १० रूपये किलो मिले तब जाकर उनके लिये खाना २० रूपये में एक दिन का पड़ेगा। परंतु चावल अगर देखें तो कम से कम २०-२२ रूपये है, वह भी लोकल सोना मसूरी मोटा चावल। अगर गेहूँ ही देखें तो कम से कम १६ रूपये किलो है और पिसवाने का ४ रुपये तो २० रूपये किलो तो आटा भी पड़ता है।
अपने को तो सोचकर ही पसीने आते हैं, कि कैसे २० रूपये में दिन भर में खाना खाया जा सकता है जबकि १० रूपये की चाय या कॉफ़ी ही बाजार में मिलती है। नाश्ते में भी २० रूपये कम पड़ते हैं।
वाकई २० रूपये में एक दिन निकालना बहुत मुश्किल है, और गरीबी रेखा के नीचे वालों को तो तब तक दिन निकालने हैं, जब तक कि वे इस गरीबी रेखा को पार नहीं कर लेते।
भारतीय प्रबंधन संस्थान के छात्रों ने गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों का जीवन स्तर सुधारने और मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध करवाने के लिये संकल्प लिया।
"भारतीय प्रबंधन संस्थान के छात्रों ने गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों का जीवन स्तर सुधारने और मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध करवाने के लिये संकल्प लिया।"
और संकल्प लेने के बाद उन्होंने क्या किया?
आपका यह लेख अतीत में ले गया जब छोटा बेटा 11वीं में पढ़ता था..जिस तरह हम 8वीं तक आते आते माता-पिता से कुछ माँगने में शर्म करते थे अनायास यही आदत बच्चों में भी आ गई…किसी कारणवश बेटे को न लंचबॉक्स दे पाई थी और न ही पैसे…स्टॉफरूम में आने की झिझक…किसी से उधार लेने की शर्म से बचते हुए भूख शांत करने के लिए कुछ नया करने की सूझी….यहाँ स्कूलों में लड़के लड़कियों के लिए अलग अलग कैंटींज़ होती हैं.पहले अपनी कैंटीन मे जाकर मैनेजर को कहा कि मैन्यू बोर्ड खूबसूरती से लिखा होना चाहिए और अगर लिखा पसन्द आए तो क्या मेहनताना होगा..मैनेजर शायद कला का पारखी था या बच्चे की भूख से वाकिफ़..दोनों कैंटींज़ के मैन्यूबोर्ड साफ और खूबसूरत लिखवा कर दोनों तरफ से लंच दिलवाया…उस दिन बेटे ने भूख, मेहनत, और पैसे की कीमत को ही नहीं आँका..एक भूखे की भूख शांत करने की भी ठान ली….
सरकार में अब भी कई ऐसी मुलभूत सरंचनाएं है जिन्हें बदले जाने की जरूरत है….२० रुपये में एक दिन का खाना तो अब स्वप्न में ही सोचा जा सकता है…. ऐसा लगता है हमारी सरकार अब भी सो रही है उसी स्वप्न में…. आपकी यह कोशिश शायद नींद से जगाने की पहल बने, यही उम्मीद करती हूँ.
२० रुपे प्रतिदिन के हिसाब से खाना और जीवन यापन हो सकता है ?
इसका उत्तर या तो नीली छतरी वाला दे सकता है या फिर नीली पगड़ी वाले..
जय राम जी की.
सोच के ही रूह काँप जाती है।
मैं बस एक प्रश्न पूछना चाहूँगा उनसे।
आप उनकी तरह कुछ दिनों जीने की सोच सकते हैं, आवश्यक पर यह है कि वे किस तरह आपकी तरह पढ़ पायें।
भगवान करे वे अपने संकल्प में सफल हों.
@निशांत जी – अभी ये छात्र प्रबंधन संस्थान में पढ़ रहे हैं, तो आगे क्या करते हैं और कैसे करते हैं, आगे पता चलेगा। परंतु यह तो है कि अगर प्रबंधन संस्थान स्नातकों ने संकल्प को गंभीरता से लिया तो वे स्थिती को बेहतर तरीके से सुधार सकते हैं।
उम्मीद कर सकता हूं कि अपने लफ्जों पर कायम रहेंगे. अन्यथा हर मिस इंडिया/मिस यूनिवर्स समाज सेवा और न जाने कौन सी सेवा को अपना ध्येय बताती है और फिर फिल्मों में हीरोइन बनकर समाज सेवा करती है.
बस एक उम्मीद है कि संकल्प पूरा हो…
संकल्प पूरा हो कैसे , कई सवालिया निशान जो हैं?
भारत को और भारतीय समाज की समस्याओं/विसंगतियों/विराधाभासों को समझने/अनुभव करने का यही तरीका सही है। मुमकिन है, ये छात्र भविष्य में इस बारे में कुछ नहीं कर पाऍं किन्तु यह अनुभव वे आजीवन भूल नहीं पाऍंगे और उनकी परियोजनाओं में यह कहीं न कहीं परिलक्षित होगा ही।
सम्भव हो तो इन छात्रों के अनुभवों को भी सार्वजनिक करें।
आपने बहुत ही अच्छी जानकारी दी।
विचारणीय.
अच्छी जानकारी है! मन दुखी हो गया लेकिन। कितने हाल चौपट हैं अपने देश के! 🙁