यह एक बहुत बड़ा सवाल है, क्या सरकार को हमसे किसी भी प्रकार का कर लेने का हक है ? जब सरकार आम आदमी की रक्षा नहीं कर सकती, आम आदमी को मूलभूत सुविधाएँ नहीं प्रदान कर सकती तो सरकार हमसे कर कैसे ले सकती है ?
जब हमें सड़क अच्छी नहीं मिल सकती, बस अच्छी नहीं मिल सकती और तो और सरकार चलाने वाले जनता के मुलाजिम हैं क्योंकि उनको तन्ख्वाह जनता के जमा किये गये कर से मिलती है, वे मुलाजिम ही जनता से आँखें लड़ाते हुए अपना रूतबा दिखाते हैं और जिस काम की तन्ख्वाह लेते हैं, उसका शुल्क भी जनता से भ्रष्टाचार के रूप में बटोरते हैं और बेचारी निरीह जनता इनके दमन चक्र में पिसी जा रही है, अगर कोई आवाज उठाता है तो सचान को जैसे मारा वैसे मारकर मुँह बंद करवा दिया जाता है या फ़िर बाबा रामदेव के ऊपर जैसा दमनकारी चक्र सरकार ने चलाया, चला दिया जाता है।
सरकार अपनी ताकत केवल जनता पर दिखा सकती है, सरकार आतंकवाद, माओवाद और नक्सलियों से निपटने में असक्षम है और वहाँ केवल अपनी राजनीति की रोटियाँ सेकने में लगी है, क्या अगर सरकार सेना की टुकड़ी को नक्सली इलाके में भेज दे तो ये नक्सलवाद एक दिन में खत्म नहीं हो सकता ? या माओवाद खत्म नहीं हो सकता ? हमारे खूफ़िया विभाग समय पर सभी सुरक्षा विभागों को जानकारियाँ दे देते हैं, परंतु उन जानकारियों को फ़ाईलों में दबा दिया जाता है और ढुलमुल रवैया अपनाया जाता है। सुरक्षा विभाग आपस में ही एक दूसरे से बराबर संपर्क में नहीं रहते और समय पर इस प्रकार की जानकारियों का उपयोग नहीं कर पाते, ये लोग असक्षम नहीं है, बल्कि इसके पीछे राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी है।
इतने सब के बाद भी सरकार को क्या हमसे किसी भी प्रकार का कर लेने का हक है ? सरकार हमसे हरेक चीज में तो कर ले रही है, फ़िर वह खाना, पहनना हो या ऐश करना, उस कर से भी पेट नहीं भरता तो तरह तरह के घोटाले भी सामने आते हैं ? और जनता के साथ धोखा किया जाता है ?
हम किसी भी प्रकार का कर देने में कोई आपत्ति नहीं है, परंतु हमारे कर के रुपयों से क्या किया जा रहा है, वह तो हमें बताया जाये।
मानते हैं कि सेना का शासन अच्छा नहीं होता, परंतु अब स्थिती इतनी खराब हो चुकी है कि अगर सेना का शासन लगा दिया जाये तो भी हमें अपने भारत को सुधारने में बहुत समय लगेगा, या फ़िर जनता को ही कानून अपने हाथ में लेकर अपने हिसाब से कानून का पालन करवाना पड़ेगा ?
क्या हम सरकार से प्रश्न पूछने के लायक है ?
१. क्या हम चुनावो मे वोट देने जाते है ?
२. क्या हम नियम कानुनो का पालन करते है ?
३. क्या राह चलते समय हम कचरा सड़क पर नही फेकंते है?
४. क्या हम यातायात नियमो का पालन करते हैं?
५. क्या हम टीटीई को पैसे देकर सीट पाने की कोशीस नही करते है ?
६. क्या हम हर खरीददारी का बील मांगते है ?
विवेक भाई, प्रश्न तो ढेरो खड़े किये जा सकते है। समाधान के लिए सोचना और कार्य करना ज्यादा महत्वपूर्ण है!
पता नहीं, हम तो दे देते हैं।
आप सही लिख रहे हैं, अति हो चुकी है.
॒ आशीष जी – अगर सब कुछ स्वयं ही ठीक कर लिया जाता तो शायद दुनिया में कहीं भी किसी नियम-कानून-कायदे-व्यवस्था की आवश्यकता ही नहीं पड़ती..
यह पोस्ट पहली नजर में तो 'सबके मन की बात' लगती है किन्तु इसी के समानान्तर लम्बी बहस भी शुरु कर सकती है। लोकतन्त्र की सामान्य परिभाषा 'जनता का शासन, जनता द्वारा, जनता के लिए' सुनने-कहने-पढने में अच्छी लगती है किन्तु हम अपनी गरेबान में झॉंके कि सरकार बनाने के बाद हम अपनी सरकार के काम काज पर, हरकतों पर कितनी नजर रखते हैं, उन पर कितना नियन्त्रण करते हैं तो खुद पर झेंप आ जाती है। हम लोग वोट देकर (या वोट न दकेर भी) सब कुछ सरकार पर छोड देते हैं। मुझे लगता है, सरकार से जवाबदेही की उम्मीद हमने तब ही करनी चाहिए जब हम चौबीसों घण्टरें सरकार पर नजर बनाए रखें।
बड़ा मुश्किल है। सरकार में शामिल लोग भी तो हम लोगों में से ही हैं। वैसे जो अधिकार सरकारी में शामिल लोगों को सेवा के लिये मिलते हैं उनको अपनी ताकत के रूप में इस्तेमाल करते हैं लोग! 🙂