आज फ़िर काम से थोड़ा दूर जाना पड़ा तो वोल्वो में लगभग एक घंटा जाने और एक घंटा आने का सफ़र करना पड़ा, वैसे तो सब ठीक रहा। परंतु हम ऐसे ही आज अपने सफ़र का अध्ययन कर रहे थे, तो सोचा कि क्यों ना डिजिटाईज कर लिया जाये। कितनी अच्छी बात हो अगर कोई ऐसा गेजेट आ जाये कि मन की बातों को अपने आप ही टाईप कर ले हाँ इसके लिये उसे मन से परमीशन और पासवर्ड दोनों ही लेने होंगे नहीं तो बहुत गड़बड़ हो सकती है और तब तो बहुत ही, जब वह पोस्ट बन कर प्रकाशित हो जाये।
जाते समय हम वोल्वो की आगे वाली सीट पर बैठे जिसमें कि चार सीट आमने सामने होती हैं, पहले से ही एक यात्री बैठी हुई थी हम भी उन्हीं के पास में बैठ लिये, फ़िर भी सामने की दो सीटें खाली थीं, उनमें से एक पर हमने अपना बैगपैक एक सीट पर रख दिया और अपने बैग में से इकॉनामिक टॉइम्स निकाल कर पढ़ने लगे, सामने वाली दो सीटें खाली ही थीं और अधिकतर हम उन पर बैठना पसंद नहीं करते क्योंकि वह वोल्वो की दिशा के विपरीत होती है और कई बार उससे असहज महसूस होता है।
थोड़ी देर बाद ही वह यात्री उतर गईं और हमने खिड़की के पास वाली सीट पर कब्जा कर लिया, फ़िर एक और यात्री आईं और वे हमारी पुरानी वाली सीट पर विराजमान हो गईं, उनके साथ ही एक परिवार चढ़ा जिसमें माता, पिता और उनकी लड़की थे, तो वे भी एक एक सीट संभाल कर बैठ लिये और पिता हमारी सामने वाली सीट पर बैठ गये, हमने अपना बैगपैक अपनी गोदी में रखा और अखबार को मोड़कर पढ़ने लगे, तो पीछे वाली साईड से वे सज्जन भी पढ़ने लगे, हम भी कनखियों से देख रहे थे, खैर यह तो सबके साथ होता है।
थोड़ी देर में यह परिवार उतर गया तो हमने अपना बैगपैक सामने वाली सीट पर रख दिया, तब तक हम अखबार को निपटा चुके थे, और फ़िर एक किताब बैग में से निकाल ली, यह किताब भी शुरू किये बहुत दिन हो गये थे और मात्र छ: पन्ने ही पढ़ पाये थे, वहीं से आगे पढ़ने की कोशिश की तो लय नहीं बैठ रही थी, इसलिये वापिस से पहला पन्ना पलटा और पढ़ने लगे, दो ही पन्ने पढ़ पाये थे कि तब तक वोल्वो किसी नई सड़क पर दाखिल हो चुकी थी, जो कि हमारे लिये नई थी, तो किताब बंद करके रास्ता देखने लगे और फ़िर धीरे से किताब को बैग में सरका दिया गया। हम अपने गंतव्य पर पहुंचने के लिये और आगे जाना था, गंतव्य पर बस खाली हो गई और हम पैदल ही चल दिये।
अपना काम निपटाकर वापिस से बस में चढ़ लिये यह वोल्वो बस नहीं थी, साधारण बस थी क्योंकि उस रूट पर वोल्वो चलती ही नहीं है, पूरी बस भरी हुई थी और सबसे आखिरी वाली सीट मिली, परंतु बस बिल्कुल साफ़ थी, जो कि सरकारी बसों के लिये उदाहरण है। खैर अपने बस स्टॉप पर उतरे और वोल्वो में चढ़ लिये घर जाने के लिये, अबकि बार वोल्वो में पीछे की तरफ़ की सीट पर काबिज हुए और खिड़की के पास वाली पर बैठ लिये, साथ वाली पर बैगपैक रखा, ऊपर ए.सी. को बटन से ठीक किया और फ़िर सोचा कि चलो किताब पढ़ना शुरू किया जाये परंतु थकान इतनी हो चली थी कि पढ़ने की इच्छा नहीं थी और भूख भी लग रही थी।
पीछे सीट पर एक लड़की बैठी हुई थी जो कि रास्ते में पड़ने वाले एक मॉल में किसी लड़के से मिलने जा रही थी, और बार बार फ़ोन करके या फ़ोन को रिसीव करके अपनी लोकेशन बता रही थी, अब बातचीत को विस्तारपूर्वक नहीं लिखता नहीं तो पोस्ट बहुत लंबी हो जायेगी।
खैर थोड़ी देर बाद ही हमारी पास की सीट पर फ़िर एक सज्जन आ गये और हमने वापिस से बैग अपनी गोदी में रखा और मोबाईल में कान-कव्वा लगाकर कुछ जरूरी फ़ोन लगाने लगे, पर बैंगलोर में कुछ सड़कों पर मोबाईल के सिग्नल नहीं मिलते हैं, बार बार कनेक्शन एरर करके फ़ोन कट जाता था। सड़क पर ट्रॉफ़िक कम था इसलिये घर जल्दी पहुँच लिये।
अब वोल्वो के बारे में तभी लिखेंगे जब कुछ विशेष होगा।
वोल्वो यात्रा वृतान्त, नयी श्रंखला प्रारम्भ करिये।
अथ श्री वोल्वो कथा ! कान कौवा -बढियां शब्द है !
कल्पना कर रहा हूँ कि कुछ 'विशेष' न होने पर इतना कुछ लिखा जा सकता है तो 'विशेष' होने पर कितना कुछ लिखा जा सकेगा।
रोचक सफ़र! अगला कब होगा?