ऑफ़िस से आते समय थोड़ा पहले ही घर के लिये उतरना पड़ा तो सिग्नल पर एक आदमी टकराया और बोला “हैलो… हिन्दी आता है क्या?” हमने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और चुपचाप चल दिये कि जैसे अपने को नहीं किसी और को बोला हो।
कई बार ऐसे व्यक्ति मिले हैं, जो कि उत्तर भारतीय लोगों को निशाना बनाते हैं और उनसे मदद के नाम पर ठगी करते हैं, इसलिये अब तो हम बिल्कुल मदद नहीं करते हैं, हाँ इसमें अगर कोई जरूरतमंद होता है तो भी उसकी जानबूझकर मदद नहीं कर पाते हैं।
ये वाक्ये केवल बैंगलोर में ही नहीं भारत में लगभग सभी जगह होते हैं। अगर बात करने रूक जाओ तो उसकी आँखों मॆं विशेष चमक आ जाती है और पता नहीं कहाँ से उसका परिवार भी प्रकट हो जाता है जिसमें अमूमन उसकी पत्नी और एक याद दो बच्चे होते हैं, जो कि फ़टॆहाल होते हैं। और फ़िर शुरू होता है खेल रूपये ऐंठने का । कहा जाता है हम दूर दराज से आये हैं और यहाँ काम नहीं मिल पाया है और अब खाने के भी पैसे नहीं है, खाने के ही पैसे दे दीजिये, घर वापस जाना है कैसे जायें समझ नहीं आ रहा । इस सबसे ही माजरा समझ में आ जाता है कि इन लोगों ने लोगों के हृदय को झकझोर कर रूपये ऐंठने का धंधा बना रखा है ।
क्योंकि जहाँ तक मैं सोचता हूँ आज भी दूर दराज के गाँव का कोई भी व्यक्ति शहर कुछ करने आयेगा तो पहली बात तो वह अकेला आयेगा ना कि अपने परिवार के साथ, और अगर वह कुछ करना चाहता है तो बड़े शहरों में इतना काम होता है कि कोई न कोई काम मिल ही जाता है, और अगर कोई काम न करना चाहे तो वह अलग बात है।
गाँव का व्यक्ति कभी भी अपने स्वाभिमान से डिगेगा नहीं, कि उसे भीख माँगनी पड़ जाये, वह भूखे रह लेगा या वापिस बिना टिकट जैसे तैसे अपने गाँव वापिस चले जायेगा, किंतु शायद ही वह अपने स्वाभिमान से समझौता करेगा, हो सकता है कि कुछ लोगों की परिस्थितियाँ अलग हों। किंतु इतने सारे लोगों की परिस्थितियाँ तो एक जैसी नहीं हो सकतीं।
hindi raashtriy bhaashaa hai kyaa kren bhaai shaayd ise hi raashtriyta khte hai bhaajpaa or rss to is maamle me muhim nhin chlaati .akhtar khan akela kota rajsthan
आपका अवलोकन सही है, स्वाभिमानी लोग वापस घर लौट जाते हैं।
ठग स्वाभिमान का अर्थ नहीं जानते !
यहां दिल्ली में तो लाश के दाह-संस्कार के बहाने करके भी पैसे ऐंठने का धंधा करते हैं लोग्। उनसे कहो कि कहां है मृतक दिखाओ तो दूर होने की बात करते हैं या गायब हो जाते हैं।
ये ऐसा ज्यादातर बस या ट्रेन यात्रियों के साथ करते हैं।
दूसरे प्रकार के ठग वशीकरण या सम्मोहन करके जेबें खाली करने वाले भी बढ रहे हैं।
प्रणाम
अपने अनुभव को आधार बनाने के लिए आपके काफी ठोस तर्क दिए हैं। साधुवाद।
सच कहा आपने…ये इन लोगों का धंधा है जिसके चक्कर में शरीफ संवेदन शील व्यक्ति फंस जाते हैं.
नीरज
तर्क सही हैं। कभी-कभी वाकई परेशान व्यक्ति भी इन दुष्टों के कारण मदद नहीं पाते।
बिलकुल सही कहा आपने। मैं ऐसे अनुभवों से एकाधिक बार गुजर चुका हूँ।
राहुल गांधी ने यही तो कहा है !
आपकी बातों में दम है। ऐसे लोग तो ठगी के लिए ही ऐसा करते हैं।
आपकी पोस्ट की खबर हमने ली है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर – पधारें – और डालें एक नज़र – रोज़ ना भी सही पर आप पढ़ते रहेंगे – ब्लॉग बुलेटिन
ओह, राहुल गांधी जी इन ठगों की बात कर रहे थे?
अस्पतालों के पास भी इसी तरह के मरीजनुमा लोग sympathies ढूंढते मिलते हैं
ठगों की कमी नहीं है, इनकी वजह से ज़रूरत के मारे भी परेशान होते हैं।
bilkul