शाम को बस में बैठते लोगों की दिन भर की भड़ास सुनने को मिलती है, अगर दो लोग हैं तो आपस में चिकिर चिकिर और और अगर अकेला है तो फ़ोन पर या फ़िर मन ही मन में पर भड़ास तो निकलती ही रहती है।
कल भी कुछ ऐसा ही हुआ, दो बंदे आई.टी. कंपनी के थे और धड़ाधड़ चिकिर चिकिर कर रहे थे।
यार आज मेरा मैनेजर पूरा माथा खा गया पूरे दो घंटे रेंटिंग पर डिस्कसन कर रहा था, अच्छा भला वर्क फ़्रोम होम कर रहा था, पर ये रेटिंग के डिस्कसन के कारण ऑफ़िस आना पड़ रहा है, जिंदगी में पहले बार २ घंटे का कम्यूटिंग कर रहा हूँ, ऑफ़िस आओ तो काम तो होता नहीं है, मैनेजर से डिस्कसन में ही टाईम निकल जाता है। मुझे बोलता है कि थोड़ी देर बाद फ़िर डिस्कसन के लिये बैठते हैं, मैंने तो कह दिया मेरा एक अर्जेंट कॉनकाल है, मैं नहीं आ पाऊँगा, तो बोलता है कि चलो कल आओगे तो ब्रेन स्टोर्मिंग करेंगे, मैंने तुरत फ़ुरत कह दिया, बोस कल मैं ऑफ़िस नहीं आ रहा हूँ, कल मैं वर्क फ़्रॉम होम कर रहा हूँ। यहाँ ऑफ़िस आकर काम नहीं होता केवल डिस्कसन होता है।
दूसरे ने पूछा डिस्कसन में क्या बोला मैनेजर – तो पहला बोला अरे भाई साल भर की जो ऐसी तैसी करी है, उसकी बाल की खाल खींचते हैं, अगर अच्छा काम करो तो बोलते हैं कि ऐसा करते तो और अच्छा होता और अगर कोई काम समय पर नहीं होता है तो बस बंबू, कैसे भी करके मैनेजर खरीखोटी सुनायेगा। उसे ज्यादा रेटिंग नहीं देना है क्योंकि उसके पास भी टार्गेट होता है और उसके लिये तो उसे बकरा फ़ँसाना ही होता है।
ये अच्छा है कि एक बंदे को हायर करो और फ़िर उसे तीन चार लोगों के वर्कलोड से लोड कर दो और उसकी अच्छी बैंड बजाओ, जब हायर करो तब बोलो कि वी नीड यू वेरी अर्जेंटली टैल मी व्हेन यू कैन ज्वॉईन, तो मैंने उनको बोल दिया था कि आई नीड वन मंथ लीव, आई हैव टू गो माई नैटिव, तो ये बोले थे कि ज्वॉईन कर लो, प्रोजेक्ट लो और नैटिव से ही काम कर लेना, नो नीड टू कम टू ऑफ़िस, मैंने उनको कह दिया सर देयर इस कनेक्टिविटी प्रॉब्लम सो इट विल नॉट बी पॉसिबल।
अब यह हालत है कि ऑफ़िस आओ तो पूरे ५ घंटे बर्बाद होते हैं दिन के, और पर्सनल लाईफ़ की तो बैंड बज गई है। दस बजे ऑफ़िस आओ तो साढ़े दस तक तो सैटल ही हो पाते हैं फ़िर थोड़ा काम करो, और साथ में ऑफ़िस आये हैं तो कुछ कलीग्स मिलने आ जाते हैं, कभी कोई अपनी स्क्रिप्ट की प्रॉब्लम लेकर आ जाता है और कभी अपन किसी के पास डिस्कसन के लिये चले जाते हैं, कब दो बज जाते हैं पता ही नहीं चलता है, फ़िर लंच के लिये चले जाओ और फ़िर आने के बाद छ: बजे तक जितना काम होता है बस उतनी ही प्रोडक्टिविटी होती है, घर से काम करो तो प्रोडक्टिविटी बराबर रहती है।
प्रोजेक्ट मैनेजर को बिल्ड की डिलिवरी हमेशा २ वीक पहले चाहिये होती है और उसके एक वीक पहले से जान खाना शुरू देता है, जब उसको बोलो कि आईपी सेटअप करने में ही एक दिन चला गया था, क्लाईंट की कनेक्टिविटी नहीं थी, तो उसको कोई फ़र्क नहीं पड़ता, बस उसको उसकी डिलीवरी टाईम पर चाहिये, ये नहीं कि क्लाईंट को ब्लैम करके डिलीवरी डेट आगे बढ़ा ले, बस जो काम करे उसकी तबियत बजाओ बैंड, यह तो सोच लिया और दिमाग में सैट हो गया है कि ऐसा ज्यादा दिन नहीं चलने वाला है और जिस दिन अपना दिमाग सटक गया उसी दिन पेपर डाल दूँगा, फ़िर भले ही हाथ में दूसरा ऑफ़र हो या नहीं हो, फ़िर बाद में आई विल सर्च इन मार्केट, लेकिन इनको झेलना मुश्किल है।
बातें तो बहुत सारी हुईं, जितनी याद रही लिख दी, वैसे हर आई.टी. वाले का अपना दर्द होता है जो आई.टी. वाला ही अच्छे से समझ सकता है। वहीं बस के टेप में गाना बज रहा था –
“पहला नशा पहला खुमार,
नया प्यार है नया इंतजार,
कर लूँ मैं क्या अपना हाल ऐ दिले बेकरार….”
हाय उफ़्फ़ …इस दो टकिए की नौकरी में लाखों का सावन जाए ..बहुत जुलुम है भाई ।
सीरीयस नोट ये कि सच में ही गलाकाट प्रतिस्पर्धा ने दबा बढा दिया है निजि क्षेत्रों में ।
निजी क्षैत्र में प्रतिस्पर्धा तेजी से बड़ती जा रही है।
वर्तमान की सभी नौकरियों का यही हाल है। तीन बंदों का काम एक से ही लेते हैं। इसलिए लोग छोड़ भी रहे हैं लेकिन छोड़कर भी करेंगे क्या, यही प्रश्न उन्हें घेरे रहता है।
खुद कुछ करके औरों को नौकरी दे सकते हैं।
सुकून अब कहीं नहीं रहा.
सुकून कहीं नहीं है।
हाय, अच्छा किये आईटी से १६ साल पहले ही हट लिये, नहीं तो यह कहानी बिल्कुल अपनी जैसी लगती..
अगर आप १६ वर्ष से आईटी में होते तो यह सब आपके लिये गुजरे जमाने की बात हो गई होती, क्योंकि आप अब तक मैनेजर के भी मैनेजर बन चुके होते 🙂
आई टी?
हम जब मप्र विद्युत मंडल में 1989 में नौकरी पर लगे थे तो 9 सबस्टेशनों के मेंटेनेंस के लिए 11 इंजीनियर थे.
2012 में 13 सबस्टेशनों के लिए अभी 3 इंजीनियर हैं!!!
पर फ़िर भी लोगों में तो यही भ्रांति है कि सरकारी कर्मचारी काम नहीं करते, और ये इंजीनियर तो सरकारी कर्मचारियों में फ़िर सर्वश्रेष्ठ हैं।
🙂
अच्छा तो आप भी आये थे 🙂
ह्म्म…..
विवेक भाई…. आई टी वाले की पीडा आई टी वाला ही जानें…
सबकी अपनी-अपनी दुनिया। अपना-अपना काम। अपना-अपना दुख।
नानक दुखिया सब संसार।
जिस फील्ड में देखो, उसमें ऐसी ही कहानी है!
भाईसाब गलत तो नहिये बोल रहे थे. रेटिंग के चक्कर में जो न होए भैया!!