वर्षों बाद सिनेमा हॉल में जाना बिल्कुल नया अनुभव लगा, ऐसा लगा कि शायद फ़िल्म देखने सिनेमा पहली बार गये हैं। सिनेमा हॉल बदल गये हैं, सिनेमा हॉल की जगह बदल गई है यहाँ तक की फ़िल्मों में भी बहुत कुछ बदल गया है।
मुझे याद है बचपन से जैसे हर बच्चे को सिनेमा हॉल में जाना एक भिन्न प्रकार का अनुभव होता है और जो आकर्षण सिनेमा हॉल में होता है फ़िल्मों के लिये वह अद्भुत होता है, जो अनुभव मैंने शायद पहली बार किया था, वही अनुभव आज शायद मेरे बेटे ने किया होगा।
मुझे अपने शहरों के सिनेमा हॉल अभी, तक याद हैं, जिनमें में अपने बाल, किशोरावस्था में गया था। पहले साईकिल से जाते थे और साईकिल स्टैंड पर १ रूपये स्टैंड का किराया होता था फ़िर टिकट के लिये लाईन में लगते थे और हमेशा १५ मिनिट पहले टॉकीज जाते थे जिससे वहाँ लगे उस फ़िल्म के सारे पोस्टर और आने वाली फ़िल्मों के पोस्टर इत्मिनान से देख सकें। उन पोस्टरों में पता नहीं क्या होता था पर जो आकर्षण उन पोस्टरों में शायद मेरे लिये था, वह शायद सब के लिये होता था, तभी तो टॉकीज के अंदर लॉबी में भी पोस्टर देखने की इतनी भीड़ होती थी।
टॉकीज जाकर फ़िल्म देखना मित्र समूह में विशेष बात मानी जाती थी, और अपनी कॉलर ऊपर करके उस फ़िल्म के डॉयलाग बोलना हेकड़ी ! वह जमाना ही कुछ और था अब जमाना बदल गया है।
जब छात्र थे तब कोशिश रहती थी कि सबसे आगे की सीट पर बैठें, और कम कीमत में फ़िल्म देखकर पैसे बचाकर अगली फ़िल्म भी देख लें। फ़िर जैसे जैसे बड़े हुए हमारी सीट टॉकीज में पीछे खिसकती गई, पहले फ़र्स्ट फ़िर स्टॉल, फ़िर स्पेशल स्टॉल फ़िर पहली मंजिल पर बालकनी और उसके पीछे बॉक्स कई बार दोस्तों के साथ फ़ैमिली बॉक्स का भी लुत्फ़ उठाया जिसमें सोफ़े हुआ करते थे
कुछ टॉकीज बेहद प्रसिद्ध थे और उस समय तो टॉकीजों में भी अच्छे से अच्छे होने की प्रतियोगिता चलती थी, म.प्र. का सबसे बड़ा टॉकीज होने का गौरव, पहला डॉल्बी साऊँड होने का गौरव या फ़िर म.प्र. में सुविधा के हिसाब से सबसे अच्छा टॉकीज होने का गौरव।
उस जमाने में हमारे शहर में लगभग १० टॉकीज थे, आज पता नहीं कितने हैं, कुछ टॉकीज तोड़कर तो उसमें आधुनिक बाजार बना दिये गये हैं। कुछ टॉकीज ऐसे थे जिनमें जाना हम अपनी शान के खिलाफ़ समझते थे और कुछ टॉकीज ऐसे थे जहाँ केवल अश्लील याने कि एड्ल्ट फ़िल्में ही चला करती थीं, जहाँ जाना मतलब कि अपनी इज्जत की ऐसी तैसी करना। आज भी याद है एक टॉकीज है “मोहन” जिसमें केवल “एडल्ट” फ़िल्में ही लगती थीं, उसमें लगी “जाँबाज” और हम मित्र मंडली के साथ देखने गये और फ़िल्म के बाद बाहर निकले तो दोस्तों के कुछ रिश्तेदारों ने “मोहन” से निकलते देख लिया और जो हंगामा हुआ, वो तो भला हो कि “एडल्ट” नहीं थी, कुछ टॉकीज ऐसे होते थे कि जिसमें जाना और वापिस घर आना रूतबे का का सबब हुआ करता था।
नये दौर का सिनेमा, चाय पकौड़े और समोसे से पॉपकार्न के टोकरे, शीतपेय का जमाना आ गया है। सब बदल गया है, देखने वाले भी बदल गये हैं और दिखने वाले भी।
आखिरी फ़िल्म जयपुर में प्रसिद्ध टॉकीज “राज मंदिर” में “खाकी” देखी थी और कल लगभग ८ वर्ष बाद “अग्निपथ” सिनेमेक्स में देखी।
हमें तो हर माह ही यह तीर्थयात्रा करनी पड़ती है, अब अग्निपथ भी देख लेंगें..
तीर्थयात्रा ! हम तो आठ वर्ष के अंतराल में गये
हम तीनो को एकसाथ जल्द ही किसी तीर्थयात्रा पर चलना चाहिए 🙂
अब तो उज्जैन में २-३ टॉकीज ही बचे है अब सुन रहे है कि multiplex बनने वाले है . आपकी पोस्ट पढ़ कर मुझे उज्जैन के सभी टॉकीज याद आ गए. त्रिमूर्ति टॉकीज में तो फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखा था .
त्रिमूर्ती में जाने का अपना अलग ही क्रेज था और फ़िर वो गोपाल मंदिर के सामन रीगल जहाँ केवल धार्मिक फ़िल्में ही लगा करती थीं और वहाँ टॉकीज बंद होने के बाद भी गाँववाले नतमस्तक हो जाया करते थे, सब याद है ।
मुझे भी दस वर्ष हो गए हैं हाल में फ़िल्म देखे हुए..
आठ साल? !
ओह, याद नहीं आता कि कब और कहां गया था अंतिम बार सिनेमा हॉल में!
आठ साल बाद? ये बड़ा आश्चर्यजनक लगा…हर्ष बड़ा सीधा लड़का जान पड़ता है की वो पहले कभी आपसे सिनेमा हॉल में सिनेमा दिखाने की जिद नहीं किया. 😛
वैसे कुछ कुछ बातें मुझे भी याद आ गयीं, जब हम अपने पटना में थे और जाते थे फिल्म देखने, हम भी पोस्टर को बड़े ध्यान से देखते थे,और हमारे समय में साइकिल स्टैंड का किराया शायद २ या ३ रुपये था.
बाई द वे, इस रविवार मुझे फिर से अग्निपथ देखने का मन है, आप फ्री हैं क्या 😛 😛 अगर हाँ तो बोलिए मैं पहुँचता हूँ फोरम वैल्यू मॉल 😛
बहुत सुन्दर सार्थक रचना। धन्यवाद।
आठ साल बाद भी आपने ऐसी फिल्म देखी जो बहुत उबाऊ प्रसंगों और कान फोडू ध्वनियों से भरी पड़ी है…राज मंदिर से अपना जयपुर याद आ गया…
नीरज
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हिन्दी सेवा में समर्पित
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आया है मुझे फिर याद वो जालिम,
गुजरा जमाना बचपन का।
ऍसा ही एक अंतराल मेरी जिंदगी में नवीं और इंजीनियरिंग के बीच आया था जब पाँच छः वर्षों के बाद पर्दे पर कोई फिल्म देखी थी। बड़ाअजीब सा अहसास था वो सब कुछ अचानक इतना वृहत देखने का।