कल कार्यालय में सुना कि “कल भारत बंद है” जिज्ञासा हुई कि भारत क्यों बंद है और कौन कर रहा है, कुछ ट्रेड यूनियनों का यह शौक रहा है, सो कही शौक के चलते तो यह हड़ताल नहीं कर दी, सो कल शाम को पान की दुकान पर भी पूछा “भई कल ये हड़ताल क्यों है ?” तो पानवाले ने भी मना कर दिया और कहा “हमें तो आपसे पता चल रहा है कि कल हड़ताल है”, पहले तो पानवाले से हमें पता चल जाता था कि हड़ताल क्यों है और कौन कौन भाग ले रहा है, यहाँ तक कि कब, कहाँ कितने बजे प्रदर्शन है सब कुछ। इसका मतलब कि पानवाले भी आजकल ज्यादा खबर नहीं रखते।
हमें तो आज तक यह समझ में नहीं आया कि हड़ताल से मिलता क्या है, शायद ज्यादातर लोगों को पता नहीं होगा कि सरकारी कर्मचारी अगर हड़ताल पर रहता है तो उसे उस दिन की तन्ख्वाह नहीं मिलती है, हड़ताली कर्मचारियों को एक दिन की तन्ख्वाह का घाटा उठाना पड़ता है। सबसे मजे की बात तो यह है कि कई हड़तालियों को पता ही नहीं होता कि वे हड़ताल किसलिये कर रहे हैं, और हड़ताल का मुद्दा क्या है।
आज सुबह अखबार में पढ़ा तो केवल एक लाईन पढ़ने को मिली कि सरकार की कथित श्रमिक विरोधी नीतियों के विरूद्ध हड़ताल है, अब पिछले कुछ वर्षों से तो सरकार की नीतियों में कोई बदलाव नहीं है, हमें तो नहीं दिखा अगर किसी को दिखा तो बताये कि सरकार ने कौन सी श्रमिक विरोधी नीतियों को बढ़ावा दिया है या नई नीति बनाई है। हमने तो यही देखा है कि श्रमिक काम से ज्यादा पैसा चाहते हैं और न मिलने पर सरकार के विरूद्ध हड़ताल करने में कोई कसर नहीं छोड़ते, हड़ताल का मुद्दा तो हवा हो जाता है।
कुछ कर्मचारी जो कि वाकई बेहद दुखी होते हैं, जिन्हें वाकई सरकार की नीतियों से परेशानी हो रही होती है, हड़ताल केवल उनका हथियार होना चाहिये, उन थोड़े से कर्मचारियों की आड़ में सारी ट्रेड यूनियनों का हड़ताल में उतरना किसी भी राष्ट्र के हित में नहीं है।
आज कार्यालय आते समय एक रैली से सामना हुआ, जो कि कम्यूनिस्ट पार्टी के झंडे लेकर चल रहे थे, वहीं लाल बत्ती हुई थी, हमने एक व्यक्ति जो कि रैली में शामिल था, से पूछ लिया कि
“रैली क्यों निकाल रहे हो”
जवाब मिला “हड़ताल है, और हड़ताल के समर्थन में रैली निकाल रहे हैं।”
हमने पूछा “हड़ताल !, बैंगलोर में है क्या ?”
जवाब मिला “नहीं आज भारत बंद है !”
हमने पूछा “हड़ताल क्यों है?”
फ़िर कोई जवाब नहीं मिला, हमारे प्रश्न पूछते ही वह झट से सरक लिया और वापिस रैली में शामिल हो चला।
तो इससे यह तो पता चल गया कि हर हड़ताली को यह पता नहीं होता कि हड़ताल क्यों है और न ही आम जनता को पता है कि हड़ताल क्यों है, अगर हड़ताल अच्छे मुद्दों के साथ है तो मुद्दे जनता में क्यों नहीं प्रचारित किये जाते, ताकि जनता भी साथ आये। जनता को मुद्दे ना बताने का मतलब और अखबारों में विस्तार से हड़ताल का कारण न बताना हमारी समझ से परे है।
किसी को नहीं मालूम, पर छुट्टी तो होती है..
बहुत आवश्यक है. शोषण का यह दौर गरीब को कहीं का नहीं छोड़ेगा. कान्ट्रैक्ट लेबर एक्ट बनाया गया था शोषण से छुटकारे के लिये लेकिन मजा देखिये कि सरकारी विभागों में भी कान्ट्रैक्ट पर काम होने लगा. क्या आपको पता है कि बिहार, बंगाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश से जो श्रमिक आते हैं वे सौ रुपये से भी कम पर काम करते मिल जाते हैं. हरामखोरों को निकाल कर बाहर का रास्ता अवश्य दिखाया जाये लेकिन ऐसा न हो कि फोड़े के इलाज को मरीज को ही मार दिया जाये.
विषय-वस्तु का पता नही होता है पर हड्ताल जरूर करेंगे.मेरे यहा भी एक चौक है जिसमे आए दिन धरना दिया जाता है पर धरना देनेवालो को यह पता नही होता है कि हम धरना किसलिये दे रहे है क्योंकि वे पैसो से खरीदे हुए होते है.
हर शहर में एक लेबर चौक है जहां सुबह रोज़गार की तलाश में आकर लोग बैठ जातें हैं क्या काम मिलेगा उसका स्वरूप क्या होगा इसका कोई निश्चय नहीं मिला मिला न मिला कोई सुनिश्चित दिहाड़ी नहीं इन मुद्दों को असंगठित क्षेत्र के कोई उठाता नहीं है उठावे तो हड़ताल को उसका सन्दर्भ मिले .
कर्मचारी मज़दूरों का प्रयोग करके नेता शक्तिप्रदर्शन करते हैं।
yeh kewal ek bhed chhal hae
मैं भी हडताल के विरुध्द हूँ। किन्तु आपके तर्क यथेष्ठ विमर्श की मॉंग रखते हैं।