हमारे एक मित्र हैं जो कि पिछले ६ महीने से बैंगलोर में प्रोजेक्ट के कारण अपने परिवार से दूर हैं। हालांकि माह में एक बार वे अपने परिवार से मिलने जाते हैं, उनका एक छोटा बच्चा भी है जो कि ४ वर्ष का है। कल उनसे ऐसे ही बातें हो रही थीं, तो बहुत सारी बातें अपनी सी लगीं, क्योंकि यही सब मेरे साथ मेरे अतीत में गुजर चुका था। ऐसा लगा कि वे अपनी नहीं मेरी बातें कह रहे हैं, फ़िर मैंने कुछ बातें बोलीं तो उनसे वे भी सहमत थे।
मैं अपने परिवार के साथ अब लगभग पिछले तीन-चार वर्षों से रह रहा हूँ उसके पहले दो वर्ष लगभग ऐसे बीते कि मैं हमेशा क्लाईंट लोकेशन पर ही रहता था और वहाँ परिवार को ले भी नहीं जाया सकता था, क्योंकि सब प्रोजेक्ट पर निर्भर था, और प्रोजेक्ट अस्थायी होते हैं। जैसे ही प्रोजेक्ट खत्म हुआ अपनी बेस लोकेशन पर वापसी हो जाती है।
पिछले तीन-चार वर्षों में भी क्लाईंट के पास जाना हुआ परंतु वहाँ रहना लंबा नहीं होता था, अब हमारी टीम वहाँ रहती थी और हम किसी जरूरी काम से ही जाते थे।
मित्र से बात हो रही थी, कह रहे थे कि अब बेटा फ़ोन पर कहता है कि आपसे बात नहीं करनी है। बीबी भी कभी कभी नाराज हो जाती है, अब ये सब तो ऐसी परिस्थितियों में चलता ही रहता है, क्योंकि जब पति और पिता बाहर हों और सांसारिक परिस्थितियों का अकेले मुकाबला करना हो तो इस तरह की बाधाएँ आती ही हैं।
बेटे को मनोचिकित्सक के पास दिखाया तो मनोचिकित्सक ने हमारे मित्र को राय दी कि आप कैसे भी करके जल्दी से अपने परिवार के साथ रहें तो सब के लिये यह अच्छा होगा। उनका बेटा बहुत जिद्द करने लगा है, मम्मी की सुनता नहीं है, खाना नहीं खाता है। मित्र ने बताया कि पहले बेटा मुझसे बहुत खेलता था परंतु आजकल वैसा नहीं है, हमने कहा कि अब बेटॆ को लगता है कि शायद उससे भी कोई जरूरी चीज है जो कि पापा को मुझसे दूर ले गई है, अब इस उम्र में बच्चे को समझाना नामुमकिन है। उसके कोमल मन में तो है कि पापा मम्मी हमेशा मेरे साथ रहें। जब वे पिछली बार बैंगलोर आ रहे थे तो अपने बेटॆ को बोले कि मैं बैंगलोर जा रहा हूँ, तो बेटा साधारण तौर पर बोला कि ठीक है जाओ। इतनी साधारण तरीके से बोलना देखकर हमारे मित्र को भी बहुत बुरा लगा और दूर रहने का प्रभाव दिखने लगा।
हमारे मित्र की बातें सुनकर हमें भी अपने पुराने दिन याद आ गये। जब हम भी ऐसे ही घर जा पाते थे, जैसे ही हम अपना बैग पैक करते थे तो पहले तो हमारा बेटा बैग के पास ही रहता था कि पता नहीं डैडी कब चले जायें, और जाने के समय बहुत रोता था, बहुत प्यार करके मैं उसको चुप करवाकर जाता था। बहुत दिनों तक ऐसा चला फ़िर धीरे धीरे मेरे बेटे को इस सब की आदत पड़ गई, और वह मेरे जाने के प्रति लापरवाह हो गया। कुछ दिनों बाद पता नहीं क्या हुआ वह हमारा आने का बेसब्री से इंतजार करता और बहुत प्यार करता। उस समय मैं मुंबई में था और वह हमसे कहता कि हमें भी मुंबई देखना है, हमें मुंबई ले चलो, बस उसके कहने भर की देर थी और लगभग उसी समय हमारा प्रोजेक्ट खत्म हो गया, तो एकदम हमने परिवार को मुंबई ले गये।
जीवन का वह दौर आज भी याद है, इतनी मुश्किल इतनी कठिनाईयाँ जो कि छोटी छोटी होती हैं, परंतु अपने आप में उनका सामना करना बहुत ही कठिन होता है, और ये ऐसी परिस्थितियाँ होती हैं जिन पर हमारा नियंत्रण नहीं होता है। ऐसा दौर हमने भी देखा है परंतु उस समय तक हम समझदार हो चुके थे, इसलिये हमें बातें समझ में आती थीं, परंतु छोटे बच्चों से उनका बचपन में अगर यह कहा जाये तो शायद बहुत ही जल्दी होगी।
हमने भी मित्र को सलाह तो दी है अच्छा है कि जल्दी अपने परिवार के पास जाओ या अपने परिवार को यहाँ ले आओ, पर आई.टी. में प्रोजेक्ट जो ना करवाये वह कम है।
ये पोस्ट तो अब हमारे लिये भी है। 🙂
ओह यह तो हमें पता ही नहीं था।
सबसे अधिक मुसीबत तो फौज में नौकरी कर रहे लोगों को होती है .. तीन चार साल में होने वाले ट्रांसफर को ध्यान में रखते हुए उनके बच्चों की पढाई के लिए सेन्ट्रल स्कूल खोला गया था .. पर उस स्कूल में अब हर जगह अच्छी पढाई नहीं होती .. प्राइवेट स्कूलों में पढने वाले बच्चों का स्कूल बार बार नहीं बदला जा सकता .. ऐसे में सुविधाजनक यही है कि पिता अपनी नौकरी में व्यस्त रहे .. और पत्नी बच्चों को लेकर किसी एक शहर में .. पूरे जीवन दोनो पक्ष हर तरह की असुविधा झेलने को विवश होते हैं !!
फ़ौज वाले तो कम से कम सैशन खत्म होने के बाद अपना परिवार ले जा सकते हैं और अपनी कार्य वाली जगह के स्कूल में ट्रांसफ़र करवा सकते हैं, परंतु आई.टी. वाले तो प्रोजेक्ट के कारण ना परिवार को ले जा सकते हैं और ना ही इतनी आसानी से स्कूल में एडमीशन मिलता है, हर बार लाख रूपया दान दो।
मन भावुक हो गया
परिवार के साथ रहना ही उचित है.
परिवार के साथ तो सभी रहना चाहते हैं, परंतु मजबूरी ही सब करवाती है।
इसीलिए कहते हैं कि हर किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता।
बिल्कुल सत्य है।
हमने तो यथासंभव परिवार के साथ रहने का ही निश्चय किया है।
हमने भी अब यही निश्चय किया है।
मुझे डरा रहे हैं??
डरा नहीं रहे हैं, सत्य है, भगवान करे कि आपको ना झेलना पड़े।
नौकरी क्यों करी गरज पड़ी यूं करी .अब कर ही ली तो सोचता क्यों है .वैसे आजकल वेब कैम है ,मोबाइल्स हैं रोज़ बतियाओ बच्चों से गिफ्ट भेजो आन लाइन, जुड़े रहो जैसे तैसे बच्चों से यही उपाय है .यूं विछोह में बच्चे बीमार भी पड़ जाते हैं .निरुपाय हैं हम सब .
वर्चुअल दुनिया वर्चुअल ही होती है, जो मजा छूने में और पास में रहकर बात करने में आता है, वो आज की तकनीक से नहीं आता।
आप तो नौकरी की व्यथा-कथा कह रहे हैं लेकिन मैं तो नौकरी में नहीं था फिर भी मुझे 40-40 दिन घर से बाहर, बच्चों से दूर रहना पडता था।
कितनी ही कोशिशें कर लें, धरती को कागज बना लें और समन्दर को स्याही – यह दारुण कथा फिर भी अधूरी ही रहेगी।
भगवान किसी को अपने बच्चों से दूर रहने का दण्ड न दे।
बिल्कुल सही, कुछ भी कर लें परंतु रोजी रोटी के चक्कर में जो ना हो वह कम है।
जीवन की ये जटिलताएं ही बहुत कुछ हमसे छीन लेती हैं 🙁
ये छोटी छोटी चीजें जिंदगी में बहुत मायने रखती हैं, और जो हम खो चुके होते हैं वह वापस भी नहीं मिलता।
सच है पिता का संरक्षण और स्नेह बहुत ज़रूरी है……खास तौर पर जब बच्चे थोडा समझदार हो जाते हैं तब वे मां से अधिक पिता का साथ चाहते हैं…..शायद "पावर" उन्हें पिता के साथ ही मिलता है…….
सार्थक लेखन विवेक जी.
सादर
अनु
सच है पिता का संरक्षण और स्नेह बहुत ज़रूरी है……खास तौर पर जब बच्चे थोडा समझदार हो जाते हैं तब वे मां से अधिक पिता का साथ चाहते हैं…..शायद "पावर" उन्हें पिता के साथ ही मिलता है…….
सार्थक लेखन विवेक जी.
सादर
अनु
पूरी तरह सहमत हूँ….. बच्चों को कम से कम माता-पिता दोनों का साथ चाहिए ही……
सही बात.
यह समय दोबारा नहीं आने वाला… हो सके तो परिवार के साथ रहो