अभी पिछले कुछ दिनों से अवकाश पर हूँ और पूर्णतया: अपने परिवार के साथ समय बिता रहा हूँ। आते समय कुछ किताबें भी लाया था, परंतु लगता है कि किताबें बिना पढ़े ही चली जायेंगी और हमारा पढ़ने का यह टार्गेट अधूरा ही रह जायेगा।
इसी बीच बेटे को कैरम खेलना बहुत पसंद आने लगा है, और हमने भी बचपन के बाद अब कैरम को हाथ लगाया है। थोड़े से ही दिनों में हमरे बेटेलाल तो कैरम में अपने से आगे निकल गये और अपन अभी भी हाथ जमाने में लगे हैं।
कैरम के खेल को खेलते खेलते हमने पाया कि असल जिंदगी भी कैरम के खेल जैसी है, कुछ बातें इस बात पर निर्भर करती है कि आपका साथी कौन है, आपका प्रतिद्वंदी कौन है और आप किस मामले में उससे बेहतर हैं।
कैरम जुनून और प्रतिस्पर्धा का खेल है, जिसमें राजनीति और उससी उपजी लौलुपता भी खड़ी दिखती है। कैरम एकाग्रचित्त होकर खेलना पड़ता है, इससे जीवन की सीख मिलती है कि कोई भी कार्य एकाग्रचित्त होकर करना चाहिये, तभी सफ़लता मिलेगी।
रानी कब लेनी है, यह भी राजनीति का एक पाठ है और इस पाठ को अच्छे से सीखने के लिये कैरम में अच्छॆ अनुभव की जरूरत होती है, जैसे जिंदगी में बड़े निर्णय लेने के लिये सही समय का इंतजार करना चाहिये और जैसे ही समय आये वैसे ही सही निर्णय ले लेना चाहिये।
हमेशा अपने सारे मोहरों पर नजर रखो और नेटवर्किंग मजबूत रखो, अगर अपने सारी गोटियों को एकसाथ ले जाना है तो हरेक गोटी पर नजर रखो और मौका लगते ही पूरा बोर्ड एक साथ साफ़ कर दो।
ऐसी ही सतर्कता जिंदगी में भी रखना जरूरी है, इतनी ही राजनीति आपको आनी चाहिये और मोहरों पर एक साथ नजर रखना जरूरी है। हरेक जरूरी काम और जिंदगी के सारे काम बहुत ही एकाग्रचित्त तरीके से पूर्ण करना चाहिये।
Khel khel me bahut kuchh seekha ja sakta hai ….
जी हाँ
यह तो जीवन का खेल है !
बिल्कुल जीवन का खेल है ।
वाह, आनन्द में निकले शब्द दार्शनिक हो गये..
यह तो पाठक पर निर्भर करता है 🙂
परिवार के साथ समय बिताने जैसा अच्छा कुछ और हो ही नहीं सकता…
जी हाँ काजल जी, आजकल एक अलग ही अनुभवों के दौर से गुजर रहा हूँ।
इस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार – आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर – पधारें – और डालें एक नज़र – बामुलिहाज़ा होशियार …101 …अप शताब्दी बुलेट एक्सप्रेस पधार रही है
बहुत बहुत धन्यवाद ।
बहुत खूब! अच्छी लगी आपकी यह पोस्ट!
धन्यवाद अनूप जी
Very impressive and appealing post.
धन्यवाद दिव्या जी
वाह भैया…खेल खेल में ज्ञान!! 🙂
ज्ञान का तो सागर हैं आप 🙂
बहुत बड़ी सीख मिली
जीवन के लिए सबक – हर पल में, हर चीज में।
हैरानी हुई कि अक्सर मुफ्त में बाँटा जाने वाला वह पैम्फलेट भी दस रुपये का था। खैर, हम और आगे बढ़े। मुख्य मंदिर भव्यता का मानो चरम ही था। स्वामी नारायण की प्रतिमा के अतिरिक्त राधा-कृष्ण, शिव-पार्वती, लक्ष्मी-नारायण आदि प्रतिमाएँ भी थीं जो हर प्रकार से मन को मोह लेने वाले आभूषणों से सजी थी। उस एक मंदिर के अतिरिक्त पूरे परिसर में कहीं भी, कोई भी ईश प्रतिमा नहीं दिखी। केवल मंदिर का शिल्प ही था जो वहाँ रोके हुए था। कुछ और आगे बढ़े तो सामने ही कैंटीन दिखाई दी। अब फिर हैरानी हुई। खाने-पीने की सामग्री अंदर ले जाना मना था पर अंदर इसे बेचना और खरीद कर खाना मना नहीं था! और फिर खाद्य सामग्री भी क्या थी, पेस्ट्री, सैंडविच, बर्गर, कॉफी और कोल्ड ड्रिंक।
हमारे जैसे ‘देसियों’ के लिए तो वहाँ खाने लायक कुछ भी नहीं था। मजबूरी थी, क्या करते। बर्गर, पिज्जा आदि के साथ कोल्ड ड्रिंक लेना अनिवार्य था। काफी मशक्कत के बाद किसी तरह दो कॉफी और एक उपमा का पैकेट लिया जिसकी कीमत थी लगभग 150 रुपये। किसी प्रकार निगल लेने लायक उस सामग्री को खाकर हम उठे तो आगे एक साहब कैमरा लगाए दिखे। वहाँ आप अपना यादगार चित्र खिंचवा सकते थे। फोटोग्राफी मना थी पर सिर्फ अपने कैमरे से। वहाँ पैसे देकर फोटो खिंचवाना मना नहीं था। एक फोटो के 130 रुपये लेकर हमें एक रसीद दी गयी जिसे दिखाकर हम फोटो प्राप्त कर सकते थे। जहां से फोटो मिलनी थी वहाँ पहुँचे तो वह एक अलग ही संसार था। स्वामी नारायण माला, स्वामी नारायण अचार, शहद, टी शर्ट, साबुन और भी न जाने क्या-क्या। इस कॉम्प्लेक्स के बाहर पॉप्कॉर्न, कॉफी आइसक्रीम आदि ठीक वैसे ही बिक रहे थे जैसे किसी सिनेमा हाल में बिकते हैं। मंदिर परिसर में चलने वाले संगीतमय फव्वारे का बहुत नाम सुना था। उसके चलने का निर्धारित समय था पर, उस पर भी टिकट था। बिना टिकट उस ओर जाना भी मना था। अब तो चिंता होने लगी थी। http://news.bhadas4media.com/index.php/imotion/1432-2012-05-23-09-12-27
सच यही है ….
आभार !