कल सोने ही जा रहे थे तभी ना जाने क्या सूझी और बुद्धुबक्सा चालू कर लिया और जीअफ़लाम पर फ़िल्म आ रही थी, बलराज साहनी और निरूपमा राय इसके मुख्य कलाकार थे और उनके तीन बच्चे बड़ा बेटा रवि, मंझली बेटी और छोटा बेटा राजा के इर्दगिर्द घूमती कहानी ने पूरी फ़िल्म देखने पर मजबूर कर दिया।
बाद में अंतराल में फ़िल्म का नाम पता चला, फ़िल्म का नाम “घर घर की कहानी” था।
फ़िल्म की कहानी माता पिता और बच्चों के ऊपर बेहद कसी हुई थी, जिसमें बताया गया था कि बच्चों को शिक्षा घर से ही मिलती है कहीं बाहर से नहीं मिलती, मूल रूप से ईमानदार पिता जो कि एक अच्छे पद पर कार्यरत है, और चाहे तो विटामिन आर बकौल बलराज साहनी के कार्यालय में कार्य करने वाले एक क्लर्क याने कि रिश्वत से अपनी सारी जरूरतें पूरी कर सकते हैं, परंतु वे बेईमानी न करते हैं और ना करने देते हैं, और परिवार के लिये भी एक मिसाल बनते हैं।
बलराज साहनी को एक बेहद ईमानदार, संजीदा, जिम्मेदार और समझदार व्यक्ति के रूप में पेश किया गया है, पिता के रूप में उनमें गुस्सा नहीं बल्कि प्यार है और हरेक बिगड़ी हुई स्थिती को गुस्से से नहीं, समझदारी और जिम्मेदारी से सुधारते हैं।
बड़ा बेटा रवि जो कि हाईस्कूल में पढ़ता है वह अपने पिता से ५० रूपयों की मांग करता है जिससे वह बच्चों के साथ अजंता एलोरा घूमने जा सके तो पिता मना कर देते हैं और कहते हैं कि “बेटा जितनी चादर हो उतने ही पैर पसारने चाहिये, चादर से बाहर पैर पसारने से घर की सुख शांति भंग हो जाती है।”
पर बेटा रवि नहीं मानता और अपने पिता से कहता है कि मैं हड़ताल करूँगा और खाना नहीं खाऊँगा जब तक कि मुझे ५० रूपये नहीं मिल जाते, इधर साथ ही मंझली बेटी भी टेरलीन की फ़्रॉक लेने और छोटा बेटा राजा साईकिल की जिद लेकर हड़ताल करने लगते हैं, और तीनों माता पिता से कहते हैं कि जब तक हमारी माँगें पूरी नहीं होतीं, तब तक हम खाना नहीं खायेंगे।
माँ निरूपा राय पिता से कहती है कि बच्चों की जिद पूरी कर दो, तो वे कहते हैं कि ये बच्चे ही कल के शहरी हैं और इन्हें पता होना चाहिये कि पैसा का मोल क्या है, पैसा कमाना कठिन है और पैसा खर्च करना बहुत आसान, अगर आज मैं इनकी माँगें पूरी कर दूँगा तो ये कल फ़िर कोई नई माँगे खड़ी कर देंगे और बात बनने की जगह बिगड़ने लगेगी। पिता कहते हैं कोई नहीं चलो खाना खाते हैं, जब सुबह तक भूखे रहेंगे तो सारी हेकड़ी निकल जायेगी और चुपचाप हड़ताल ओर सत्याग्रह हवा हो जायेगी। पिता खाने पर बैठते हैं कि पहला निवाला लेते ही बच्चों की याद आ जाती है और चुपचाप निवाला वापिस थाली में रखकर वहीं गिलास में हाथ धोकर उठ खड़े होते हैं।
उसके बाद माँ अपने तीनों बच्चों के पास खाने की सजी थाली लेकर उनसे शांतिपूर्वक कहती है कि खाना खा लो तुम लोग तो हर बात मानते हो, तो तीनों बच्चे कहते हैं कि हम तो आज भी हर बात मानने को तैयार हैं केवल खाना खाने की बात छोड़कर। जब माँ अपने कमरे में वापिस पहुँचती है तो पिता पूछते हैं कि तुम्हारी शांति यात्रा भी लगता है नाकामयाब हो गई है, तो माँ फ़फ़क फ़फ़क कर रो पड़ती है तो पिता कहते हैं कि जब बेटा बड़ा हो जाये तो उसे सारी जिम्मेदारियाँ समझनी चाहिये और यह भी समझना चाहिये कि परिवार के लिये पैसे का क्या मोल है।
सुबह माँ बढ़िया गरम गरम आलू के परांठे नाश्ते में सेंकती हैं और राजा के मुँह में पानी आ रहा होता है परंतु फ़िर भी वह काबू करता है और माँ कहती है कि चलो नाश्ता कर लो, पर बच्चे मना कर देते हैं, तभी पिता आते हैं और कहते हैं कि रवि तुमको लगता है कि घर चलाना बहुत आसान है।
रवि कहता है कि मेरा दोस्त है उसके पिता जी को तो आपसे भी कम तन्ख्वाह मिलती है और उसकी सारी जिद उनके पिता जी पूरी कर देते हैं, पिता जी कहते हैं बेटा मुझे प्राविडेंट फ़ंड और आयकर कटने के बाद ६०० रूपये के आसपास मिलते हैं, तो रवि कहता है कि इसमें से तो बहुत कुछ खरीदा जा सकता है तो पिता कहते हैं कि बेटा घर का सारा खर्च करने के बाद महीने के आखिरी में कुछ भी नहीं बचता है।
तो पिता कहते हैं कि अच्छा बेटा एक काम करते हैं कि कल से घर अगले छ: महीने के लिये तुम चलाओगे और अगर पैसे बचा सके तो अपनी सारी माँगें पूरी कर लेना। रवि तैयार हो जाता है, माँ कहती भी है कि बेटा रहने दो नहीं तो आटॆ दाल का भाव पता चल जायेगा।
रवि घर चलाने की जिम्मेदारी अपने कंधे पर ले लेता है, पिता के एक साले हैं जो कि इनके समझदारी पर नाज करते हैं और अपनी बहन याने कि निरूपा राय को हद से ज्यादा प्यार करते हैं, फ़िल्म ऐसे ही बड़ती रहती है रवि घर का खर्च चलाने लगता है तो पहले महीने के बाद वह कहता है कि ४० रूपये की बचत है, तो पिता सारे खर्च याद दिलाते हैं तो पता चलता है कि कुछ बिल तो उसने भरे ही नहीं हैं और इस तरह से कुछ भी नहीं बचता अगले महीने दीवाली आ जाती है और बच्चे नये कपड़े लेने से मना कर देते हैं और साथ ही घर में मेहमान आ जाते हैं, एक बच्चा पटाखों से जल जाता है उसके अस्पताल का खर्चा। फ़िर तीसरे महीने में माँ बीमार हो जाती है तो सब दिन रात सेवा करते हैं और माँ ठीक हो जाती है।
क्लर्क को पुलिस रिश्वत के जुर्म में पकड़ लेती है और उनकी बेटी का रिश्ता टूट जाता है यहाँ पिता बलराज साहनी लड़के वालों को समझाने जाते हैं कि पिता का किया बच्चों सजा क्यों भुगते और आखिरकार लड़केवाले मान जाते हैं।
इसी बीच बच्चे पैसे बचाने के लिये घर से नौकरानी को हटा देते हैं, स्कूल बस की बजाय पैदल जाने लगते हैं और घर के सारे काम खुद ही करने लगते हैं। पूरे घर की जिम्मेदारी बच्चे बखूबी निभाते हैं। उधर पिता के साले का बेटा जो है वह जुएँ में मस्त है और घर की चीजें बेचकर जुएँ मॆं लगाता रहता है और उसकी माँ उस पर पैसे लुटाती रहती है। रवि चौथे महीने के हिसाब की शुरूआत ही कर रहा होता है और साथ ही उसके पास स्कूल में किये गये ड्रामा “श्रवण कुमार” से २०० रूपयों का ईनाम भी रहता है। उसी समय साले के बच्चा इनके घर पर आता है और रवि को रूपये रखते हुए देख लेता है तो वह इनके घर से ८०० रूपये चुरा लेता है, अब सब बहुत परेशान होते हैं और पिता कहते हैं मुझे अपनी तन्ख्वाह से ज्यादा रवि के ईनाम में मिले रूपयों की फ़िक्र है। खैर चोर पकड़े जाते हैं। और बच्चों को भी समझ आ जाता है कि जब माता पिता घर चला रहे थे तब ज्यादा सही था, सब चीजें भी घर में आती थीं और मजे रहते थे।
फ़िल्म में बहुत सारी सीखें मिलीं –
१. जितनी चादर हो उतने ही पैर फ़ैलाने चाहिये।
२. रिश्वत नहीं लेनी चाहिये।
३. सिगरेट अगर छोड़ दी जाये तो अच्छी खासी रकम महीने की बच जाती है। और सेहत भी ठीक रहती है।
४. जुआँ खेलना और बुरी संगत ठीक नहीं है।
५. बच्चों को बचपन से ही संस्कार घर में ही देने होते हैं।
बहुत सारी चीजें अच्छी लगीं जैसे कि सुबह उठते ही माँ निरूपा राय पिता के पैर छूकर दिन की शुरूआत करती है, बच्चे माता पिता को भगवान का रूप मानते हैं, पूरा घर मिलजुल कर रहता है।
आजकल की फ़िल्मों में यह सब कहाँ मिलता है।
आजकल की फिल्मों में बस टाइम पास करना होता है |
फिल्मों की सीख भी तो यही से जाती है
ये तो आप-हम हैं जो इन कहानियों को सच मानते हैं। अन्यथा, ऐसी कहानियों को 'परी-कथा' समझा जाएगा।
सच कहा आपने, पुरानी फिल्में बहुत कुछ सिखा जाती थी..