आज सुबह नाश्ता करने गये थे तो ऐसे ही बात चल रही थी, एक मित्र ने कहा कि फ़लाना व्यक्ति नाश्ते में या खाने की तश्तरी में कुछ भी छोड़ना पसंद नहीं करते और यहाँ तक कि अपने टिफ़िन में भी कुछ छोड़ते नहीं हैं। वैसे हमने इस प्रकार के कई लोग देखे हैं जो इन साहब की तरह ही होते हैं जो कि अपने तश्तरी में कुछ छोड़ना पसंद नहीं करते। शायद कुछ लोग अपनी लुगाई के डर से नहीं छोड़ते, नहीं तो घर में महासंग्राम हो जायेगा, “अच्छा तो अब हमारे हाथ का खाना भी ठीक नहीं लगता जो तश्तरी में खाना छोड़ा जा रहा है।”
हमारा मत थोड़ा अलग है, हम सोचते हैं कि तश्तरी में खाना छोड़ना, न छोड़ना अपने अपने व्यक्तिगत विचार हैं, जिस पर किसी और व्यक्ति का अपने विचार थोपना ठीक नहीं है। अब अगर कोई किसी होटल में खा रहा है और खाने का समान ज्यादा है तो इसका मतलब यह तो नहीं कि खाते नहीं बने फ़िर भी बस भकोस लिया जाये । छोड़ने से होटल वाला किसी गरीब को भी नहीं देने वाला है, क्योंकि वह तो फ़ेंकेगा ही।
जो लोग ऐसे उपदेश देते हैं, वे कहते हैं कि हम अन्न की कीमत जानते हैं, भई अन्न की कीमत तो हम भी जानते हैं, परंतु वे खुद ही सोचें क्या व्यवहारिकता में यह संभव है। हम तो सोचते हैं कि रोजमर्रा के व्यवहार में यह संभव नहीं है। आदमी कितना ही गरीब हो वह इज्जत की रोटी खाना चाहता है, जो आदमी ये खाना खाता भी होगा, क्या कभी उसके मन को पढ़ने की कोशिश की है, कि वो किस दर्द से गुजर रहा होगा। अगर पढ़ने की कोशिश की होती और आपका मन उसकी मदद करने को होगा तो आप कम से कम उसे खाना नहीं देंगे उसे किसी और तरह से मदद कर देंगे, जैसे कि कोई छोटा काम दे दें, मेहनत के पैसे कमाने से उसे भी खुशी होगी।
हाँ कुछ ढीट होते हैं जो कि काम करना ही नहीं चाहते और मुफ़्त में ही माल खाना चाहते हैं, तो मैं कहता हूँ कि अगर हम ऐसे ही उन लोगों के लिये सोचते रहेंगे तो वो लोग भी कभी सुधरने वाले नहीं हैं। बल्कि हम उन लोगों को बढ़ावा ही दे रहे हैं।
हाँ आप अगर बफ़ेट में खा रहे हैं तो आप खाना उतना ले सकते हैं जितना आप खा सकते हैं, परंतु अगर कहीं पूरी प्लेट ही आपको ऑर्डर करनी है तो यह संभव नहीं है कि आप पूरा खा लें और अपने पेट पर अत्याचार करें। मैं तो खाने की तश्तरी में छोड़ना या ना छोड़ने के बारे में ज्यादा सोचता नहीं, क्योंकि यह निजता है और हम अपनी निजता का उल्लंघन नहीं होने देना चाहते, सबके अपने व्यक्तिगत विचार होते हैं, उनका सम्मान करना चाहिये।
पेट पर अत्याचार (हमारे मित्र विनित जी द्वारा बहुतायत में उपयोग किया जाने वाला वाक्य है ।)
आपके इस विचार पर अच्छी-खासी बहस हो सकती है। किन्तु साफ लग रहा है कि आप अपनी किसी ऐसी बात का ओचित्य साबित करना चाह रहे हैं जिसे आप खुद ही कहीं न कही उचित नहीं मानते। कभी-कभी ऐसा होता है।
मैं भी उन लोगों में हूँ जो जूठन नहीं छोड्ते। मैंने सातवीं कक्षा तक, घर-घर भीख मॉंगी है। ऐसे में, जूठन छोडने का साहस ही नहीं होता।
मैं खुद भी अपनी तश्तरी में खाना छोड़ना पसंद नहीं करता, परंतु यह आप केवल तभी कर सकते हैं जब आप खुद के घर में हों, अगर बाहर हों जहाँ आप को होटल के खाने पर निर्भर रहना पड़ता है, वहाँ वाकई असंभव सा प्रतीत होता है। घर में मैं भी अपने बेटे को यही सीख देता हूँ कि तश्तरी में भोजन नहीं छोड़ना चाहिये परंतु अब घर की भी बात करें तो बचा हुआ खाना आखिरकार फ़्रिज में खुदकुशी कर लेता है।
पहली बार में कम लें तो दोनों की ही बात रह जायेगी।
आपकी बात से पूर्णत: सहमत हैं, परंतु अगर घर के बाहर हों तो थोड़ा क्या बहुत मुश्किल हो जाता है।
अन्नपूर्णा का यह अपमान
नहीं सहेगा हिंदुस्तान
यहाँ हम अन्नपूर्णा का अपमान नहीं कर रहे हैं और हिंदुस्तान का हमें पता है, जहाँ कहा जाता है कि गरीबों १६ रूपये में खाओ और अमीरों ८,००० रूपये में खाओ उसमें भी पता नहीं कितना फ़िंका होगा, तो हमारे केवल विचार व्यक्त करने से अन्नपूर्णा का अपमान हो रहा है ? और जो लोग हमारे भारत में वाकई अन्न का अपमान कर रहे हैं, क्या वे अन्नपूर्णा का अपमान नहीं कर रहे हैं ।
मुझे भी यह सिखाय गया है कि जूठन न छोड़ी जाये। अत: जो खाने को परोसा जाता है, उसे पहले ही मन ही मन तोल लेता हूं और अधिक लगता है तो एक प्लेट या कटोरी मंगा कर अधिक हिस्सा निकाल देता हूं।
बह कभी कभी जब तेज भूख लगी होती है और सीधे खाना शुरू कर देता हूं, तब ज्यादा खाया जाता है – न छोड़ने की सोच के कारण।
बिल्कुल ज्ञान जी हमारे संस्कार ही यही हैं कि जूठन छोड़ी ना जाये।
विवेक जी आपकी बात से तो मैं भी सहमत नहीं हूं। विप्रो कैंटीन में हम लोग भी उतना ही लेने की कोशिश करते हैं,जितना खाना हो। रही होटल की बात तो वहां भी हम चाहें तो यह कह तो सकते ही हैं। और यह बात केवल खाने पर नहीं पानी पर भी उतनी ही लागू होती है।
होटल में यह संभव नहीं हो पाता, हमने बहुत कोशिश की परंतु बहुत मुश्किल होता है। पानी के बारे में हम बहुत ही कठोर हैं पानी तो बिल्कुल भी बेकार नहीं जाने देते ।
पेट पर अत्याचार न करने वाली बात ठीक!
हमने कई लोगों को देखा है कि जब उनको कुछ दिया जाता है प्लेट में तो एक दूसरी प्लेट मंगवाकर जो नहीं खाना होता है उसमें निकालकर रखने के बाद तब खाना शुरु करते हैं।
अनूप जी बिल्कुल सही कहा ! हमने भी ऐसे बहुत सारे लोग देखे हैं, परंतु हममें एक कमी है कि हम हरेक चीज खा लेते हैं, और देखने के बाद कभी भी यह निर्णय नहीं लेते कि खाना चाहिये या नहीं ! अपितु यह निर्णय खाने के बाद लिया जाता है।