जिंदगी की खोह में चलते हुए वर्षों बीत चुके हैं, कभी इस नीरव से वातावरण में उत्सव आते हैं तो कभी दुख आते हैं और कभी नीरवता होती है जो कहीं खत्म होती नजर नहीं आती। कहीं दूर से थोड़ी सी रोशनी दिखते ही लपककर उसे रोशनी की और बढ़ता हूँ, परंतु वह रोशनी पता नहीं अपने तीव्र वेग से फ़िर पीछे कहीं चली जाती है।
इस खोह में साथ देने के लिये न उल्लू हैं, न चमगादड़ हैं, बस सब जगह भयानक भूत जो दीवालों से चिपके हुए कहीं उल्टॆ टंगे हुए हैं, और मैं अब इन सबका आदी हो चुका हूँ, कभी डर लगता है तो भाग लेता हूँ पर आखिरकार थककर वहीं उन्हीं भूतों के बीच सोना पड़ता है।
शायद मैं भी इन भूतों के लिये अन्जान हूँ, और ये भूत मेरे लिये अन्जान हों, इस अंधेरी खोह में चलना मजबूरी सी जान पड़ती है, कहीं सन्नाटे में, वीराने में कोई हिटलर हुकुम बजा रहा होता है, कहीं कोई सद्दाम अपनी भरपूर ताकत का इस्तेमाल करने के बजाय किसी ऐसी ही खोह में छुप रहा होता है।
इन वीरानों में उत्सवों की आवाजें बहुत ही भयानक लगती हैं, शरीर तो कहीं अच्छी ऊँचाईयों पर है, परंतु जो सबके मन हैं वे ही तो भूत बनकर इन खोह में लटकते रहते हैं, सबके अपने अपने जंगल हैं और अपनी अपनी खोह, वीराने और सन्नाटे सबके अपने जैसे हैं, किसी के लिये इनका भय ज्यादा होता है और किसी के लिये इनका भय कुछ कम होता है।
बाहर निकलने का रास्ता बहुत ही आसान है, परंतु बाहर निकलते ही कमजोर लोगों को तो दुनिया के भेड़िये और चील कव्वे नोच नोच कर खा जाते हैं, उनके मांस के लोथड़ों को देखकर ही तो और लोग बाहर निकलने की हिम्मत नहीं करते।
कुछ बहादुर भी होते हैं जो इस आसान रास्ते को आसानी से पार कर लेते हैं और जिंदगी के सारे सुख पाते हैं, जब मन में करूणा और आत्म की पुकार होगी, तभी यह भयमुक्त वातावरण और जीवन उनके लिये नये रास्ते बनाता है।
बहादुर ही तो बनना चाहिए ..
वाह। यह तो जीवन दर्शन पर शब्दों आर छाया चित्रों की सुन्दर प्रस्तुति है।
बड़ा अन्तर्मुखी सा लिख दिया
आज 03 – 11 -12 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है …..
…. आज की वार्ता में … चलो अपनी कुटिया जगमगाएँ .ब्लॉग 4 वार्ता … संगीता स्वरूप.
मन की गुफाओं से निकाल कर कितना कुछ सामने रख दिया।
बड़ी भयानक पोस्ट है भाई -ये बंगलुरू इंडी ब्लॉगर मीट की तैयारी है?
बहुत ही सुंदर !
दीप पर्व पर सपरिवार ढेरों शुभकामनाऎं!!