वे दिन बीते हुए भी अभी बहुत ज्यादा समय नहीं हुआ है, जब न ये आधुनिक दूरसंचार के बेतार वाले उपकरण थे और न ही ये अंतर्जाल और आपस में बातचीत के लिये सुविधाएँ उपलब्ध थीं।
अगर कहीं जाना भी होता था तो उस समय पहले से ही कार्यक्रम तय हो जाते थे और फ़िर नियत वक्त पर मिल लिया करते थे, ऑफ़िस के सहकर्मी से मिलना हो या फ़िर दोस्तों के साथ मिलना हो। कई चीजें नियत थीं, फ़लाना समय पर फ़लानी जगह पर मिलन है, उस समय वह अड्डा हुआ करता था। अगर कोई पूछ भी ले तो कोई भी आसानी से बता दिया करते थे कि शाम के वक्त तो अभी वे उस जगह मिलेंगे उसके बाद वे उस जगह अपने दोस्तों के साथ होंगे फ़िर घर निकल जायेंगे।
अगर कोई किसी कारणवश नियत जगह पर नहीं पहुँच पाता तो साथी सोचते कि शायद कुछ जरूरी कार्य आन पड़ा होगा, नहीं तो अपने अड्डे पर जरूर मिलता। कोई ज्यादा ही चिंतित होता तो झट से अपनी साइकिल लेकर खोज में निकल पड़ता था ।
उन दिनों शायद दोस्तों और परिवारों के बीच समय का मानक एक ही था, थोड़ा बहुत ही समय आगे पीछे हुआ करता था। समय का महत्व वाकई उन दिनों में हुआ करता था, ना ज्यादा दोपहिया वाहन हुआ करते थे और ना ही चौपहिया वाहन। उन दिनों अधिकतर व्यक्ति अपनी शारीरिक ऊर्जा पर ही निर्भर हुआ करता था फ़िर चाहे वो पैदल चलना हो या साइकिल चलाना । खबरें भी तेजी से अपना रास्ता तय करती थीं, खबरों को रास्ता तय करने के लिये किसी दूरसंचार उपकरणों पर आश्रित नहीं रहना पड़ता था।
शाम को घूमने जाने के लिये दोस्त लोग घर के बाहर से आवाज दिया करते थे, अगर ज्यादा समय लगने वाला होता तो बता दिया जाता था कि आज किधर की तरफ़ घूमने जाने वाले हैं, लगभग हर चौराहे और रास्ते के लोग, लगभग सभी को जानते थे, और वे पीछे आने वाले लोगों का मार्ग प्रशस्त कर दिया करते थे, बस अभी दस मिनिट पहले ही इधर से निकले हैं।
समय की धुरी उन दिनों निश्चित थी, समय अपनी गति से चलता था, समय को कोई भी अपनी गति से चलाने की कोशिश नहीं करता था। आज आधुनिक उपकरणों के बीच में सभी लोग समय को अपनी गति से चलाने की कोशिश करते हैं, परंतु समय फ़िर भी अपनी ही गति से चल रहा है, जैसे पहले चला करता था, सबके मानसिक धरातल बदल गये हैं, आज भी यही याद आता है “वो भी क्या दिन थे” ।
एक कोकिला से दूसरी कोकिला तक – ब्लॉग बुलेटिन आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
आपकी पोस्ट पढ़ कर हाइसेनबर्ग का अनिश्चितता का सिद्धान्त याद आ गया। आजकल इसी पर लिख रहे हैं। एक को साधने बैठते हैं, दूसरा हाथ से निकल जाता है।
समय तो वही है – अविराम चलते रहनेवाला। बदला तो आदमी ही है।