मैं झूठ क्यों बोलने लगा हूँ
कारण ढूँढ़ रहा हूँ,
पर जीवन के इन रंगों से अंजान हूँ,
बोझ हैं ये झूठ मेरे मन पर..
ऐसे गाढ़े विचलित रंग,
जीवन की डोर भी विचलित,
मन का आकाश भी,
और तेरा मेरा रिश्ता भी..
तुमसे छिपाना मेरी मजबूरी,
मेरी कमजोरी, मेरी लाचारी,
हासिल क्या होगा,
जीवन दोराहे पर है..
तुम पढ़कर विचलित ना होना
जीवन लंबा है,
कभी कहीं किसी आकाश में,
मेरा भी तारा होगा..
मन की कहती, झूठ कहाँ है?
ये तारा ही ध्रुव तारा बन जायेगा ……
हयं !कविता भी लिख देते हो ?
🙂 हाँ पहले कविता, कहानी,एकांकी नाटक लिखते थे.. पर नौकरी के चक्कर में कहानी, एकांकी नाटक कुर्बान चढ़ गये.. कविता अभी भी कभी कभी आ जाती है..