मुझे पता है तुम
खुद को गाँधीवादी बताते हो,
पूँजीवाद पर बहस करते हो,
समाजवाद को सहलाते हो,
तुम चाहते क्या हो,
यह तुम्हें भी नहीं पता है,
बस तुम्हें
बहस करना अच्छा लगता है ।
जब तक हृदय में प्रेम,
किंचित है तुम्हारे,
लेशमात्र संदेह नहीं है,
भावनाओं में तुम्हारे,
प्रेम खादी का कपड़ा नहीं,
प्रेम तो अगन है,
बस तुम्हें
प्रेम करना अच्छा लगता है ।
आध्यात्म के मीठे बोल,
संस्कारों से पगी सत्यता,
मंदिर के जैसी पवित्रता,
जीवन की मिठास,
जीवन में सरसता,
चरखे से काती हुई कपास,
बस तुम्हें
सत्य का रास्ता अच्छा लगता है।
खिन्नता होती है जब बहस तथाकथित गान्धीवादी करते हैं और तमाम वे लोग भी जो गान्धीजी को तनिक भी पढ़े-समझे नहीं हैं।
बापू एक पंचिंग बैग बन कर रह गये हैं! 🙁
किससे पला पड गया ? 🙂
बस होती हैं बहसें, कोई न जाने क्या बोलें सब।