वेदाध्ययन की उपयोगिता –
भौतिक विज्ञान के इस प्रकर्ष युग में वेद सर्वथा प्रासंगिक हैं। इसका अध्ययन सर्वतोभावेन – सभी प्रकार से उपयोगी है, क्योंकि मानव का सम्पूर्ण जीवन वेदों से अनुप्राणित, ओतप्रोत है। मनुषय का मुख्य प्रयोजन है सुख की प्राप्ति और इसकी सिद्धि में वेद सर्वथा उपकारक हैं। वेदों के सुप्रसिद्ध व्याख्याकार आचार्य सायण का कथन है कि इष्ट की प्राप्ति तथा अनिष्ट के परिहार के उपाय को वेद ही बतलाते हैं। इस तरह लौकिक अभुदय तथा नि:श्रेयस दोनों प्रयोजनों की सिद्धि वेदों से होती है। वास्तव में वेद एक सुव्यवस्थित समन्वित जीवन प्रणाली प्रस्तुत करते हैं। एक – एक दिन का खण्ड-खण्ड करके नहीं, अपितु मानव जीवन की समग्रता सम्पूर्णता पर यहाँ विचार किया गया है। केवल वर्तमान जीवन को सुखी बनाना ही उद्देश्य नहीं है, अपितु भावी ज्कीवन को और अधिक सुखमय बनाना है, अमृतत्व की प्राप्ति करना है और वेद तो अमृतत्वसिद्धि के संविधान हैं। मृत्यु के भय से छुटकारा दिलाकर वेद ही हमें अमरता का बोध कराते हैं।
अमृतपुत्रा वयम = हम सभी अमृतपुत्र हैं।
इस तरह वेद परमसुखमयी आह्लादमयी जीवन दृष्टि प्रस्तुत करते हैं”:
इहैव स्तं मा वियौष्टं विश्वमायुर्व्यश्नुतम।
क्रीडन्तौ पुत्रैर्नप्तृभिर्मौदमानौ स्वे गृहे॥ ऋगवेद १०.८५.४२
विवाह के पवित्र माड्गलिक अवसर पर नव दम्पती को प्रदान किया गया याह शुभाआशीर्वचन है। यह संसार सुखमय है। सुख प्राप्ति के लिए इसे छोड़ कर कहीं अन्यत्र जाने की आवश्यकता नहीं है। सभी प्रकार का वास्तविक सच्चा सुख यहीं पर है। हे यजमानदम्पति ! तुम दोनों (इह – यव) यहीं पर ( स्तम) रहो। (मा) मत (वियौष्टं) वियुक्त अलग होवो। (विश्वम आयु: ) सम्पूर्ण आयु १०० वर्ष ( वि अश्नुतम) प्राप्त करो। (पुत्रै: ) पुत्रों के साथ (नप्तृभि: ) पौत्रों के साथ (क्रीड़न्तौ) खेलते हुए (मोदमानौ) प्रमुदित होते हुए (स्वे गृहे) अपने घर में (स्तम) रहो। रुग्ण दु:खी-दीन होकर नहीं, अपितु बलवान बलिष्ठ अड्गों से बराबर कार्य करते हुए १०० वर्ष तक जीवित रहने की कामना की गई है।
जीवेम शरद: शतम ( सौ वर्ष हम जीवित रहें)
भद्रं कर्णेभि:श्रृणुयाम देवा भद्रं
पश्येमाक्षभिर्यजत्रा:।स्थिरैरड्गै:स्तुष्टुवांसस्तनूभिर्येशम देवहितं यदायु:॥ ऋगवेद १.८६.८
(देवा: ) हे देवगण (कर्णेभि: ) कानों से (भद्रं) मड्गल-शुभ (श्रृणुयाम) हम सुने । (यजत्रा: ) हे यजनीय-पूजनीय देवगण ( अक्षिभि: ) आँखों से (भद्रं) मड्गलशुभ (पश्येम) हम देखें। (स्थिरै: अड्गै: तनूभि: ) बलिष्ठ अंगों से युक्त शरीरों से (तुष्टुवांस: ) प्रार्थना करते हुए (देहहितं) देव-निर्धारित (यद आयु: ) जो (१०० वर्ष की) आयु है (वि-अशेम) हम अच्छी तरह प्राप्त करें अर्थात इस अवधि में रोगी ना होवें, बराबर निरोगी रहें और ऋषि कामना करता है कि कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा: (इह) इस लोक संसार में (कर्माणि) (निर्धारित) कार्यों
को (कुर्वन एव) करते हुए सम्पन्न करते हुए (शतं समा: ) सौ वर्ष तक (जिजीविषेत) जीवित रहने की इच्छा करनी चाहिए और केवल १०० वर्ष तक ही नहीं, अपितु इससे भी अधिक जीवित रहने की बात कही गई है –
को (कुर्वन एव) करते हुए सम्पन्न करते हुए (शतं समा: ) सौ वर्ष तक (जिजीविषेत) जीवित रहने की इच्छा करनी चाहिए और केवल १०० वर्ष तक ही नहीं, अपितु इससे भी अधिक जीवित रहने की बात कही गई है –
भूयश्च शरद: शतात
(शतात शरद भूय: ) और सौ वर्ष से अधिक जीवित रहें ।
हमारे वैदिक ऋषि ने तो विश्वायु विश्वधात्री विश्वकर्मा, जबतक चाहें तब तक जीवित रहने की, सब कुछ धारण करने की और सबकुछ करने की बात कही है। वास्तव में मानव-शरीर कर्मभूमि है और कर्म ही जीवन है तथा सिद्धि: कर्मजा-विजयश्री की प्राप्ति कर्म से होती है, इसलिए कर्म करने पर बल दिया गया है तथा कार्य को कभी भविष्य के लिए नहीं टालना चाहिए क्योंकि मनुष्य के कल की बात को कौन जानता है।
न श्व: श्वमुपासीत। को हि मनुष्यस्य श्वो वेद।
ऋषि अथर्वन का बहुत ही प्रेरणास्पद कथन है कि हमारा यह शरीर ही देवपुरी अयोध्या है, इसमें सभी देवता निवास करते हैं, यह अपराजेय ज्योतिर्मय है। इस पुरी में स्थित आत्मा ही परमदेव, परमात्मा है। इस पुरी का राजा है –
अष्टचक्रा नवद्वारा देवानांपूरयोध्या
(अष्टचक्रा) आठ चक्रों (नवद्वार) नव द्वारों वाला हमारा यह शरीर ही (देवानां) देवताओं की (पू: ) पुरी (अयोध्या) अयोध्या-अपराजेय है। इसलिए यह शरीर सर्वतोभावेन रक्षणीय है, इसको स्वस्थ एवं स्वच्छ बनाए रखना है।
बहुत रोचक सूत्र उठाकर लाये हैं, साधुवाद।
कितने उदात्त भाव