मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वह एकाकी, अकेले नहीं, अपितु परिवार में, समाज में रहता है और सुखमय जीवनयापन करना मनुषय की सहज स्वाभाविक अभिलाषा होती है। एतदर्थ वेदों में पारिवारिक एवं सामाजिक व्यवस्था का बहुत ही सुन्दर चित्रण किया गया है । सुख समृद्धि की प्राप्ति हेतु ही ऋषियों ने ४ प्रत्यक्ष देवों को प्रस्तुत किया है। देव का अभिप्राय ही है जिनसे हमें वांछित फ़ल की प्राप्ति होती है । देवों दानात दान, इच्छित फ़ल प्रदान करने के कारण ही देव कहलाते हैं। प्रत्यक्ष देवता ४ हैं –
१. माता २. पिता ३.आचार्य ४.अतिथि
मातृदेवो भव पितृदेवो भव आचार्यदेवो भव अतिथिदेवो भव
तैत्तिरीयोपनिषद शिक्षावल्ली में विद्याध्ययन की सम्पूर्ति पर गुरुकुल से घर जाने वाले छात्रों को दिया गया यह उपदेश सभी मनुष्यों को इन प्रत्यक्ष देवों की सेवा सुश्रूषा के लिए प्रेरित कर रहा है। पारिवारिक-सामाजिक बन्धन को सुदृढ़ एवं प्रगाढ़ कर रहा है। इनकी सेवा करने से निश्चित रूप से अभीष्ट की सिद्धि होती है।
सच्चा सुख तो वास्तव में परिवार में है। अकेले रहने में कोई सुख नहीं है। इसलिये भगवती वेद श्रुति कहती है कि प्रारम्भ में वह परमात्मा अकेला था, उसे कुछ अच्छा नहीं लगा –
एकाकी स न रेमे
और पुन: उसने संकल्प किया कि मैं अकेला हूँ, बहुत हो जाऊँ, प्रजाओं की सृष्टि करूँ –
एकोsहं बहु स्याम, प्रजायेय
इस तरह उस एक परमात्मा ने आत्मरमणार्थ, क्रीड़ा के लिए नामरूपात्मिका इस सृष्टि की रचना की। सृष्टि की रचना करके वह परमात्मा इसमें प्रवेश कर गया, इसलिए सच्चिदानंद परमात्मा से उद्भूत यह सृष्टि आनन्दबहुला है –
तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत
(वह परमात्मा) (तत सृष्टवा) उस जगत की रचना करके (तद एवं अनुप्र-अविशत) उसी में प्रवेश कर गया। सर्वं खल्विदं, ब्रह्म (इदं सर्वं) यह सब कुछ (खलु) निश्चित रूप से (ब्रह्म) ब्रह्म है। इसका यही अभिप्राय है कि सच्चा सुख जो प्रत्येक मनुष्य को अभीष्ट है, परिवार में है और वेद पारिवारिक व्यवस्था का बहुत ही सुन्दर वर्णन प्रस्तुत करते हैं। परिवार के सभी सदस्यों में परस्पर सौहार्द सौमनस्य सहयोग का भाव होवे, प्रेमपूर्वक मधुर वाणी बोलते हुए मिलजुल कर एक साथ रहने की, एक साथ चलने की, मिल कर कार्य करने की बात वेदों में कही गयी है। सभी का खाना-पीना एक साथ होवे, आपस में द्वेष-अलगाव की भावना न होवे और इस प्रकार अभीष्ट लक्ष्य को सिद्ध करने के लिये प्रेरित किया गया है।
माता-पिता, पत्नी, भाई-बहनों को परस्पर व्यवहार की विधि-रीति को वेद बतलाता है।
अनुव्रत: पितु: पुत्रो मात्रा भवतु संमना:।जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम॥ अथर्ववेद
३.३०.२
(पुत्र: ) पुत्र (पितु: ) पिता के (अनुव्रत: ) अनुकूल आचरण वाला (भवतु) होवे। (मात्रा) माता (संमना: ) सभी सन्तानों के प्रति समान मन-स्नेह वाली (भवति) होवे (जाया) पत्नी (पत्ये) पति के प्रति (मधुमतीं) मधुर-मीठी (शान्तिवाम) शान्ति सुख प्रदान करने वाली (वाचं) वाणी (वदतु) बोले।
मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा
(भ्राता) एक भाई (भ्रातारं) दूसरे भाई से (मा द्विक्षत) द्वेष ना करे। (उत) और (स्वसा) एक बहन (स्वसारम) दूसरी बहन से द्वेष ना करे। यहाँ पर वेद पारिवारिक सुख-शान्ति और समृद्धि के लिए एक सद्व्यवहार की प्रेरणा दे रहा है। यह सर्वथा सार्थक है। पुत्र के लिये आवश्यक है कि वह अपने पिता के विचारों को जानकर तदानुसार कार्य करे, वह आज्ञाकारी होवे। माता ममता स्नेह की मूर्ति होती है, उसकी गोद को पहली पाठशाला कहा गया है। सभी सन्तानों के प्रति उसका स्नेह वात्सल्य होना चाहिए। वेद ने पत्नी को ही घर कहा है।
जायेदस्तम (जाया) पत्नी (इत) ही (अस्तम) घर है। इसलिए घर की समृद्धि में पत्नी का विशेष उत्तरदायित्व है। गृहस्वामी पति की वह अपनी प्रिय मधुर वाणी से थकावट दूर करे। इसी प्रकार भाई-बहन सभी आपस में मिल-जुल कर रहें और अपने निर्धारित कर्त्तव्यों का पालन करते हुए परिवार को सुखी बनावें।
इसी प्रकार सामाजिक एकता समरसता सह-अस्तित्व पर वेद बल देता है।
समानी प्रपा सह वोsन्नभाग: – अथर्ववेद ३.३०.६
हे मनुष्यों (व: ) आप सभी की (प्रपा) पानीयशाला (समानी) समान-एक होवे। (अन्नभाग: ) अन्न का भाग वितरण समान होवे।
केवलाघो भवति केवलादी – ऋगवेद १०.११७.६
(केवल-आदी) देवल अकेला खाने वाला (केवल अघ: भवति) केवल पाप को भोगने वाला होता है।
पुमान पुमांसं परिपातु विश्वत:
(पुमान) एक मनुष्य (मुपांसं) दूसरे मनुष्य की (विश्वत: ) सभी तरफ़ से (परिपातु) रक्षा करे। इस प्रकार वेद सभी मनुष्यों के सह अस्तित्व, सहचरित्र पर बल देता है। सभी सुखी-समृद्ध रहें। ऋग्वेद के अन्तिम मन्त्र में यही कामना की गई है।
समानीव आकूति: समाना हृदयानि व:।समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति॥ ऋग्वेद १०.१९१.४
हे मनुष्यों (व: ) आप सभी को (आकूति: ) विचार संकल्प (समानी) समान होवें। (व: ) आप सभी के (हृदयानि) हृदय (समाना) समान होवें (व: ) आप सभी के (मन: ) मनन-चिन्तन (समानम अस्तु) समान होवें। (यथा) जिससे (व: ) आप सभी का (सुसह-असति) एक साथ रहना होवे। सह अस्तित्व के लिये चिन्तन-मनन, भावना तथा संकल्प में समानता-एकरूपता आवश्यक है।
सिद्धान्त सूत्रों को समझते ही संस्कृति का विस्तार समझ में आ जाता है।
वाह कितना सहज सरल प्रांजल और उदात्त भाव