ऋषियों द्वारा साक्षात्कृत अनुपम ज्ञानराशि वेदों की उपयोगिता सार्वकालिक सार्वदेशिक सार्वजनीन है। ऋषियों ने बिना किसी भेद-भाव के समान रूप से वेदों का उपदेश सभी के लिए किया है। मानव मात्र का कल्याण करना समाष्टिहित ही उनका प्रयोजन था। एक ही परमात्मा की सन्तानें होने के कारण सभी मनुष्य मूलत: समान हैं। ऋषि का सुस्पष्ट कथन है –
यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य:।ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय
(यथा) जिस प्रकार (मैं) (इमां कल्याणीं) इस कल्याण करने वाली (वाचं) वाणी को (जनेभ्य: ) मनुष्यों के लिये (आवदानि) बोलता हूँ उस वाणी को उसी प्रकार मैं (ब्रह्मराजन्याभ्यां) ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिये (च शूद्राय) और शुद्र के लिये ( च अर्याय) और श्रेष्ठ स्वामी वैश्य के लिये (च स्वाय) अपने स्थान पर रहने वाले गृहस्थ के लिये (च अरणाय) और भ्रमण करने वाले परिव्राजक संन्यासी के लिये भी कहता हूँ।
यहाँ पर ऋषि ने कल्याणकारी उपदेश समान रूप से सभी के लिये दिया है। मनुष्यों में जो वर्णभेद है वह कर्मों के कारण है। सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से है। इसलिए वेदों के अध्ययन में जाति-वर्णगत, लिंगगत कोई भेद नहीं है। इसका तो प्रत्यक्ष प्रमाण वागाम्भृणी, काक्षीवती घोषा, अपाला, गार्गी इत्यादि ऋषिकाएँ एवं ब्रहमवादिनियाँ हैं। ऐतरेय ब्राह्मण के ऋषि रूप में इतरा दासी के पुत्र महिदास ऐतरेय प्रसिद्ध हैं। वेदों की यहा समन्वयात्मक दृष्टि सर्वथा अनुकरणीय एवं प्रेरणास्पद है।
ज्ञान कभी बद्ध नहीं रहा है, बस कोई अर्थ का अनर्थ न निकाले।
महोदय,
कृपया अनुचित व्याख्या न करें। वागाम्भृणी, काक्षीवती घोषा, अपाला, गार्गी इत्यादि ऋषिकाओं ने सस्वर वेदोच्चारण का गुरुमुख से श्रवण या अध्ययन नहीं किया। उन्होंने केवल व्याख्यानात्मक उपदेश ग्रहण किया था। समझने का प्रयास करें कि व्याख्यानात्मक या प्रवचनात्मक उपदेश पृथक् ज्ञान है तथा गुरुमुख से सस्वर उच्चारण पूर्वक अध्ययन एक पृथक् ज्ञान है। जिसका सर्वाधिक महत्त्व है। परन्तु पूर्णता दोनों से ही होती है। व्याख्यानात्मक या प्रवचनात्मक उपदेश जन सामान्य के लिए है परन्तु गुरुमुख से सस्वर उच्चारण पूर्वक अध्ययन के लिए ऋषियों ने निर्देश किया है। यदि आपने गृह्यसूत्र और महाभाष्य का अध्ययन किया होता तो आप ऐसा अनुचित प्रलाप नहीं करते। अस्तु। आप से विनम्र अनुरोध है कि यदि आपका अपने पूर्वज ऋषियों में विश्वास है तो निराधार कोई वचन न बोलें।
निवेदकः-
कीर्त्तिकान्तः
[email protected]