दोपहर का समय था, घर से ५०% डिस्काऊँट और एक खरीदो एक मुफ़्त का लाभ लेने के लिये निकले, बैंगलोर सेंट्रल मॉल में ३ घंटे में एथिनिक और वेस्टर्न की बहुत सी खरीदारी कर घर की और लौट रहे थे, कि बीच में ही एक दुकान पड़ी जहाँ पर ना चाहते हुए भी गाड़ी रोकना पड़ी, वो दुकान थी लगेज कंपनी का शोरूम, क्योंकि मुझे दो लगेज और लेना थे, तो सोचा कि अभी मॉडल देख लें और कुछ उपहार के वाऊचर भी रखे हैं, उसके लिये भी पूछ लेंगे कि अगर वे इस शोरूम पर ले लेंगे।
बात की गई, लगेज फ़ाईनल किये गये, उपहार वाऊचर भी चलने के लिये हाँ हो गई, परंतु खरीदारी में और समय लगता, और ठीक ५ मिनिट घर पहुँचने में लगते और १० मिनिट बाद बेटेलाल की स्कूल बस आने को थी, अगर बीच में यातायात मिला तो ५ मिनिट की जगह १० मिनिट भी लग सकते हैं।
शोरूम से निकलते हुए जल्दी में काँच के दरवाजे का अहसास ही नहीं हुआ, और तेजी से निकलते हुए गये थे, रफ़्तार तीव्र थी, वो काँच का दरवाजा खुलता भी केवल अंदर की तरफ़ था और बाहर काँच के दरवाजे के ऊपर एक छोटा सा स्टॉपर लगा हुआ था कि बाहर ना खुले, हम उससे धम्म से भिड़ गये, दिन में तारे नजर आने लगे, ऐसा लगा मानो माथे पर किसी ने बहुत जोर से हथौड़ा मार दिया हो, परंतु कुछ कर नहीं सकते थे, आँख के ऊपर बहुत जोर की लगी थी, केवल अच्छा यह रहा कि खून नहीं निकला या चमड़ी नहीं हटी और ना ही कटी।
वो काँच का दरवाजा बहुत मोटा था, इसलिये काँच के दरवाजे को तो कुछ नहीं हुआ, फ़िर हमने गाड़ी के मिरर में जाकर अपने माथे का जायजा लिया और हाथ से दबाकर बैठ गये, करीब २ मिनिट दबाने के बाद लगा कि यह दर्द ऐसे नहीं जाने वाला क्योंकि सीधे हड्डी में लगा है तो बेहतर है कि घर पहुँचा जाये और आयोडेक्स लगा लिया जाये। घर पहुँचे आयोडेक्स लगा लिया, परंतु दर्द कम होने का नामोनिशान नहीं था, खैर यह भी एक अच्छा अनुभव रहा।
अब हालत यह है कि उसके बाद से किसी भी दरवाजे से निकलना होता है तो पहले अच्छे से पड़ताल कर लेते हैं, संतुष्ट हो लेते हैं फ़िर ही निकलते हैं, दर्द तो अब भी बहुत है, सूजन कम है। समय के साथ साथ सब ठीक हो जाता है, गहरे जख्म भी भर जाते हैं।
एक बार हमारे साथ भी ऐसा हो चुका है – बड़ी खिसियाहट लगी थी ,पर हमेशा के लिये सबक़ मिल गया !
कांच के दरवाजों के साथ अक्सर ऐसा हो जाता है … अपना ख्याल रक्खें …
शीघ्र ही स्वास्थ्य लाभ करें, जल्दबाजी घातक हो जाती है।
ध्यान रखिए। हर दरवाजा अपने मुताबिक नहीं खुलता।
'उतावला सो बावला" बच गए गनीमत है. अब तो स्वास्थय लाभ करिये भगवन,भविषय के लिए सीख मिली आपको भी, पढ़ने वालों को भी.
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन राय का लेन देन – ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
बेतेलाल के लिए समय पर पहुंचे की नहीं? इसका जिक्र तो किये ही नहीं..
यही हम भी पूछना चाहते है |
समय का चक्कर है। मतलब समय कम था, जल्दी में थे तो ऐसा होना स्वाभाविक था।
अरे….. 🙁
वैसे भैया बहुत साल पहले दिल्ली के एक कॉलेज के दरवाज़े से ऐसे ही मैं भी टकराया था…एमिटी कॉलेज