जब भी हम किसी परेशानी में होते हैं तो हमारा दिमाग अलग अलग स्थितियों में चला जाता है, जैसे या तो सुन्न हो जाता है हम किसी भी प्रकार से सोच ही नहीं पाते हैं, दिमाग सुस्त हो जाता है हमारे सोचने की प्रक्रिया धीमी हो जाती है हम परिस्थितियों से हाथ दो चार करना चाहते हैं परंतु सोचना मुश्किल हो जाता है, हमारे सोचने की प्रक्रिया तेज हो जाती है जब हमें थोड़ी भी प्रेरणा या कोई आगे बढ़ने की थोड़ी सी भी राह मिल जाती है कोई रोशनी की किरण दिख जाती है हम तत्काल निर्णय लेने की स्थिती में आ जाते हैं और हमारा दिमाग रासायनिक क्रियाओं के कारण अपनी तेजी दिखाता है, इस स्थिती में हमारे हार्मोन्स का स्त्राव तेज हो जाता है।
परेशानी ही एक वह वजह है जब हम शायद सोचने को मजबूर होते हैं, परेशानी मतलब कि ऐसी कोई परिस्थिती जिसके उत्पन्न होने से हम असहज महसूस करने लगते हैं और हमारे हार्मोन्स का स्त्राव होना बंद हो जाता है या धीमा हो जाता है और हमारे सोचने समझने की शक्ति क्षीण होने लगती है। इसके शारीरिक विज्ञान में शायद कोई वैज्ञानिक कारण भी होंगे, पर मुझे लगता है कि इसके मनोवैज्ञानिक कारण ज्यादा होने चाहिये। जैसे ही मनुष्य असहजता की स्थिती में पहुँचता है तो उसका मन कहीं भी लगना बंद हो जाता है, खाने में स्वाद नहीं आता है, खाने की भी इच्छा नहीं होती है, कुछ और करने की चाहत में खाना खाने की प्रक्रिया तेज करना चाहता है, बैचैनी रहती है, बार-बार नींद उचट जाती है, कुछ करने की इच्छा होती है पर अनमनेपन में कुछ कर नहीं पाता है। उस स्थिती से बाहर निकलने के लिये कभी टीवी देखने की कोशिश करता है तो कभी बच्चों के साथ खेलने की कोशिश करता है या फिर प्रकृति के नजदीक जाकर नैसर्गिक सुख की अनुभूति लेना चाहता है। पर किसी भी प्रक्रिया में उसका मन नहीं लगता है।
परेशान मनुष्य अपनी परेशानी के समय हमेशा ही सांत्वना चाहता है, और चाहता है कि किसी भी तरह से उसकी परेशानी का खात्मा हो और वह अपने जीवन की पटरी को वापस परेशानमुक्त जीवन की और ले आये, परेशानी के समय परेशान व्यक्ति अपनी परेशानी भी इसलिये साझा नहीं करता है उसे लगता है कि दुनिया वाले क्या सोचेंगे, और इस सोच का मुख्य कारण होता है कि कुछ लोग अपने आत्मसम्मान की रक्षा का आवरण ओढ़े हुए होते हैं, अगर परेशानी से निकलना ही मुख्य ध्येय है तो बेहतर है कि हम हर किसी और अपनी परेशानियों को हल करने वाले पथ ढ़ूँढ़ते जायें।
कई बार परेशानियां छोटी होती हैं जो कि केवल थोड़ी सी बातचीत से ही खत्म की जा सकती है परंतु हम खुद ही उसके लिये अपने आगे एक लक्ष्मण रेखा खींच लेते हैं और अपने मन को समझा लेते हैं कि बात करने से भी इस परेशानी का हल नहीं निकलने वाला, और हम बातचीत के रास्ते को अपनाना ही नहीं चाहते हैं, हाँ अगर इसी दौरान अगर हम थोड़ी सी हिम्मत जुटा लेते हैं तो यह हिम्मत जुटाने की प्रक्रिया से हमारे अंदर हार्मोन्स का स्त्राव होने लगता है और हम बातचीत करने के लिये तैयार हो जाते हैं। जिससे परेशानी कहीं न कहीं थोड़ी बहुत तो मिटती ही है, और अगर परेशानी में थोड़ी भी कमी आती है तो हमारे दिमाग के सोचने की शक्ति बढ़ जाती है, हम असहजता की स्थिती में से बाहर आ जाते हैं।
इसी अवस्था में ज्यादा दिन रहने से हम अवसाद की स्थिती में पहुँच जाते हैं और अपने अलावा हम अपने परिवार और अपने आसपास के लोगों के लिये भी परेशानी उत्पन्न करने लगते हैं। बेहतरीन बात तो तब है जब हम अवसाद से निकलने के रास्ते ढ़ूँढ़ें, ऐसे भी हमें कोई रास्ता तो मिल नहीं रहा वैसे भी नहीं मिलेगी, पर यह तसल्ली जरूर रहेगी कि हमने कोशिश की और नहीं हुआ, हमें कभी यह अफसेस न रहेगा कि काश यह भी करके देख लिया होता।
अगर कोई मनुष्य परेशानी में या अवसाद में हो तो पहचानना बहुत ही मुश्किल होता है परंतु ऊपर दिये गये कारणों से हम यह पहचान कर सकते हैं।
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