आज ऑफिस से आते आते कुछ ऐसे विचार मन में आये कि हमेशा ही हम बड़े होने की बात सोचते हैं, परंतु कभी भी कितने भी बड़े हो जायें पर हमें खुद पर यकीन ही नहीं होता है, कि अब भी हम कोई काम ठीक से कर पायेंगे, हमेशा ही असमंजस की स्थिती में रहते हैं। उसी से एक कविता लिखने का प्रयास किया है, मुझे लगता है कि और अच्छा लिखा जा सकता है, परंतु भविष्य में इसको कभी संपादित कर दिया जायेगा।
बस बड़ा हो जाऊँ
जब मैं दस का था
तब भी यही सोचता था
बारह का हुआ तो लगा
कि अभी भी छोटा हूँ
पंद्रह खत्म कर सोलह में लगा
तो सोचा अब बड़ा हो गया
पर मैं कोई काम
एक बार में ठीक से नहीं कर पाता
सोचा
अभी छोटा ही हूँ
खामखाँ में लग रहा है
कि बड़ा हो गया हूँ
इसी प्रक्रिया के तहत
जब इक्कीस का हुआ
तो भी चीजें ठीक नहीं हो पाती थीं
फिर लगा जैसे उमर बढ़ रही है
साथ ही कठिनाईयाँ भी बढ़ रही हैं
फिर तीस का हुआ
पैंतीस का भी हुआ
इकतालिस अभी गया है
तेजी से बयालिस भाग रहा है
बड़ा पता नहीं कब होऊँगा
जब छोटा था,
तब सोचा नहीं था
बड़ा भी होना पड़ेगा,
कैसी मजबूरी है हमारी
बिना किसी जतन के
हम बस बढ़ते ही जाते हैं
छोटा था तो बचपन था
बचपन में मैं खुद को
कितना जी लेता था
अब बड़ा हो गया हूँ
पर गलतियों में
नासमझी में, सबमें
अब भी खुद को
कठिनाई में ही पाता हूँ
अब न सोचूँगा
कि कब बढ़ा होऊँगा
अब सोचता हूँ
सारा जीवन गलतियों में ही निकाल दिया।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (21-09-2016) को “एक खत-मोदी जी के नाम” (चर्चा अंक-2472) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर…!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’