रोज सुबह हमारी घरवालियाँ ऑफिस के लिये टिफिन तैयार करके देती हैं, वे सुबह जल्दी उठकर, सारी सब्जियाँ काटकर, पकाकर, अच्छे से सजाकर ऑफिस के लिये टिफिन तैयार करके देती हैं। परंतु कई बार होता है कि हमें या तो टिफिन का खाना अच्छा नहीं लगता है, टिफिन पास में होते हुए भी बाहर का खाना खाने की इच्छा होती है या फिर ऑफिस पहुँचने पर हमें पता चलता है कि आज ऑफिस में कोई सहकर्मी या ऑफिस की तरफ से दोपहर के भोजन का प्रबंध किया गया है। पर जब हमारे पास घर का खाना याने कि टिफिन होता है तो हमारा मन नहीं मानता है और इस प्रकार की स्थिती से सामना विभिन्न प्रकार से किया जाता है। मुझे पता है यह समस्य़ा बहुत से लोगों के साथ होती है। आज की भागती दौड़ती जिंदगी की समस्यायें कंपनियाँ भी समझती हैं और कई कंपनियाँ तो दोपहर का भोजन भी उपलब्ध करवाती हैं, कुछ कंपनियाँ अपने कर्मचारियों का भोजन प्रबंध अपना दायित्व समझती हैं तो कुछ किसी भोजन कांट्रेक्टर को ठेका दे देती हैं। कैसे इन परिस्थितियों को सामना किया जाये, यह महत्वपूर्ण है –
हम लगभग रोज ही टिफन ऑफिस लेकर जाते हैं, और खास बात यह है कि हम कभी पूछते नहीं कि टिफिन में क्या है, और न ही कभी खोलकर देखा। अब रोज तो ऐसा नहीं हो सकता न कि टिफिन रोज ही अच्छा लगे, तो कई बार टिफिन साथ होते हुए भी हम ऑफिस के केंटीन में खाना खा लेते हैं और टिफिन वैसा का वैसा घर ले आते हैं, शाम को डांट भी सुन लेते हैं। परंतु केवल डांट के डर से खाने का तो नुक्सान नहीं किया जा सकता। किसी दिन अप्रत्याशित तरीके से अगर समय के पूर्व ही ऑफिस के लिये निकलना पड़ता है तो ईमानदारी से कह दिया जाता है कि आज तुम्हारा खाना नहीं बन पा रहा है तो हम बाहर ही खा लेंगे, इसे कहते हैं कि खुद ही अपने लिये मौका बना लेना। कई बार ऐसा भी होता है कि घरवाली की तबियत खराब है तो टिफिन नहीं मिलता, तब तो खैर बाहर खाना मजबूरी है, परंतु इस स्थिती में मैं अधिकतर कोशिश करता हूँ कि मैं खाना बना दूँ, जिससे घर पर किसी और को परेशानी का सामना न करना पड़े।
हमारे एक मित्र हैं, वे घर से ही पूछताछ करके आते हैं कि टिफिन में क्या है और ऑफिस निकलने के पहले टिफिन खोलकर देख भी लेते हैं, उनको अगर खाना पसंद नहीं है तो कोशिश यही करते हैं कि वे टिफिन किसी भी हालत में घर पर ही भूल जायें, अगर मजबूरी में ले भी जाना पड़ा तो पार्किंग में गाड़ी में ही जानबूझकर भूल जाते हैं। घर पर जाकर हालांकि एक युद्ध होता है वह अलग बात है। परंतु उनके लिये पेट और स्वाद से बढ़कर कुछ और नहीं।
दूसरे मित्र हैं, वे रोज ही घर से टिफिन लायेंगे, पर रोज ही चाहेंगे कि बाहर का खाना ही लंच के समय में किया जाये, हमने उनसे पूछा कि तुम हर समय बाहर का खाना खाने के लिये तत्पर रहते हो, तो घर के खाने का क्या करते हो। हमें बताते हैं बढ़ी शान से कि डरने की कोई बात नहीं, दोपहर को अपनी मनमर्जी का खाओ, फिर शाम को घर जाने के पहले टिफिन को गाड़ी में बैठकर आराम से पार्किंग में ही खाना खा लो, टिफिन खत्म। हमने कहा फिर शाम का भोजन? हमें कहते हैं कि घर जाकर कह देते हैं कि आज तुम्हारा खाना बहुत स्वादिष्ट था और भारी भी था, तो आज खाना कुछ कम ही खाऊँगा। तो वे इस प्रकार से घरवाली का डाँट से बच जाते हैं।
इस प्रकार के अनुभव या इच्छाएँ तो सबकी होती हैं, परंतु होती कम ही लोगों के साथ है, आप भी टिप्पणी में बताईये कि आपका क्या अनुभव है टिफिन के मामले में।
हाँ कई बार वत्सल को खाने का समय नहीं मिलता ,घर आकर उसका खाना बाँटकर खा लेते हैं, पर होना ये चाहिए कि अगर आपको मालूम है आप नहीं खाएँगे तो किसी जरूरतमंद को खाना दे दें घर लाने के बदले ….
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (21-08-2017) को “बच्चे होते स्वयं खिलौने” (चर्चा अंक 2703) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर…!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
कल वाइरल हुए उस रोती हुई बच्ची के वीडियो पर सलिल वर्मा जी की बेबाक राय … उन्हीं के अंदाज़ में … आज की ब्लॉग बुलेटिन में |
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, गुरुदेव ऊप्स गुरुदानव – ब्लॉग बुलेटिन विशेष “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
waah bahut khoob badhiyaa lekh
सबका अपना ढंग ,अपने संबंध और अपने निर्णय -अनुभव भी सबके अपने समझदार लोगों से .कोई क्या कहे ?
हम किसी बैचलर सहकर्मी की तलाश करते हैं उस वक़्त. 🙂