हमारे दिन की शुरुआत किसी समाचार पत्र को पढ़कर ही होती है और जब तक हम समाचार पत्र नहीं पढ़ लेते, तब तक पूरा दिन ऐसा लगता है कि आज शुरुआत ही नहीं हुई। परंतु आजकल जब कोई मुझे कहता है कि तुमने तो आज अपने आसपास के समाचार देखना ही बंद कर दिया तो मैं उसे थोड़ा पर्सनल ही लेता हूँ क्योंकि मैं अपने आसपास की सारी नकारात्मक खबरें नहीं पड़ना चाहता, आज की कहावत है कि अगर आप समाचार नहीं देख रहे तो, आपके पास जानकारी नहीं है, परंतु अगर आप समाचार देख रहे हैं तो आपके पास गलत जानकारी है।
मैंने तो Facebook और Twitter पर कब का एनाउंस कर दिया है कि मैं लगभग 6 महीने से TV नहीं देखता हूँ और ना ही समाचार सुनता हूँ। क्योंकि समाचारों में जितनी नकारात्मकता और विद्वेष फैलाया जा रहा है, वह देखते नहीं बनता। ऐसा नहीं है कि समस्यायें आज पैदा हुई हैं, पर समस्याओं को बढ़ा चढ़ाकर बताना ठीक नहीं लगता। समाचार पत्रों में कम से कम हमारे पास यह ऑप्शन तो होता है कि हम पन्ना पलट सकते हैं। लेकिन टीवी के न्यूज़ चैनल्स में ऐसा कोई ऑप्शन नहीं होता, उनको आप को जबरदस्ती सुनना ही पड़ता है। और वह जो नकारात्मकता है, वह सीधी हमारे मन-मस्तिष्क पर असर करती है। अब मेरे पास काफी समय होता है तो मैं उनका उपयोग किताबें पढ़ने में परिवार के साथ समय बिताने में करता हूँ।
पहले सुबह उठकर मैं TV पर न्यूज़ चैनल लगा लेता था पर अब अब सुबह कभी राग भैरवी सुनता हूँ, तो कभी मुरली की मधुर धुन सुनता हूँ, कभी सितार की धुन सुनता हूँ। पहले TV पर हमारे जो राजनेता हैं उनकी बातें हिंदू मुसलमान और बाकी चीजों पर बहस सुनता रहता था। मेरे मन में भी कटुता आ गई थी, ऐसा नहीं है कि दुनिया में कुछ बदला है और बदला भी होगा तो उससे मेरे जीवन में कोई अंतर नहीं पड़ रहा है। तो बेहतर है कि मैं अपने जीवन में सकारात्मकता लाऊँ और नकारात्मकता वाली चीजों से दूर रहूँ।
मैं अब उन समाचार चैनलों को भी नहीं सुनता और न ही पढ़ता हूँ, जिनकी टैगलाइन होती है द बेटर इंडिया, पॉजिटिव न्यूज़, हैप्पी स्टोरीस, कंसर्न हीरोस, क्योंकि यह सब उनके पत्रकारिता का ब्रांड है। अच्छे समाचारों के लिए आजकल समाचार चैनलों की भी ब्रांडिंग हो गई है। वे लोग प्रोग्राम के नाम भी रखते हैं हैप्पी न्यूज़, अच्छी दुनिया, गुड न्यूज नेटवर्क इत्यादि और बड़ी-बड़ी वेबसाइट है जैसे कि द हफिंगटन पोस्ट, ऑस्ट्रेलियन ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन, द टाइम्स ऑफ इंडिया में गुड न्यूज़ सेक्शन भी होते हैं मतलब कि अब न्यूज़ भी गुड और बैड होने लगी हैं।
मैं यह नहीं कहना चाहता कि गुड न्यूज़ सेक्शन नहीं होना चाहिये, यह पत्रकारिता को अच्छी दिशा में ले जाने के लिए एक अच्छा कदम है। परंतु जब मैं मुख्य पेज पर समाचार देखता हूँ कि 23 साल की लड़की के साथ में गैंगरेप हुआ तो ब्रेकिंग न्यूज़ या फिर समाचार पत्रों के मुख्य पृष्ठ पर हमेशा रेप की खबरें होती हैं या मर्डर की खबरें होती हैं। अभी हाल ही में एक 8 साल की बच्ची के साथ कठुआ में जो गैंगरेप हुआ तो समाचार पत्रों ने उसे कई दिनों तक अपने मुख्य पृष्ठ पर स्थान दिया। दरअसल इस तरह की की घटनायें हमारे भारत में बच्चों के साथ होती ही रहती हैं, लगभग हर दूसरे बच्चे के साथ होती है और हम बरसों से जानते हैं पर सुबह-सुबह यह सब खबरें पढ़कर मन खराब होता है। मैं यह नहीं कहता कि खबरें जरूरी नहीं है खबरें जरूरी है लेकिन क्या इस तरीके से मुख्य पृष्ठ पर छापकर खबरें दिखाना जरूरी हैं। हमारी संवेदनशीलता कहाँ चली गई है, हमारे अंदर संवेदनाऐँ बची भी हैं?
हो सकता है कि मीडिया हाउस की यह सब मजबूरी हो, नहीं तो ना कोई उनका समाचार पत्र खरीदेगा और ना ही कोई उन्हें पढ़ेगा। आश्चर्य तो तब होता है जब आप मुख्य कवर के ऊपर एक जैकेट, दो जैकेट, तीन जैकेट चिकने पन्नों में देखते हैं, जो विज्ञापनदाता सबसे ज्यादा पैसे देता है उसे उतना ही बड़ा विज्ञापन की जगह दिया जाता है और मुख्यपृष्ठ के आगे जैकेट दिया जाता है, मुख्य पृष्ठ और उसकी खबरें दबकर रह जाती हैं। वैसे आजकल न्यूज़ स्टोरी और प्रेस रिलीज में अंतर कर पाना ही बहुत कठिन हो गया है।
हम असल समस्याओं की बात ही नहीं करते हैं, जो कि हमारी जनसंख्या के बहुत बड़े वर्ग को प्रभावित करती हैं। जब आप मुख्य पृष्ठ पर कृषि मजदूरों से संबंधित खबरें नहीं पाते हैं या यह कह सकते हैं कि 75 परसेंट जो जनसंख्या है उनसे संबंधित खबरें है ही नहीं जैसे बेरोजगारी के आंकड़े बढ़ते ही जा रहे हैं लगभग 4 करोड़ लोग बेरोजगार हैं और यह खबरें बताने की हैं, लेकिन कोई बताता नहीं है। यह मुख्य पृष्ठ पर ब्रेकिंग न्यूज़ होना चाहिये। मुझे अब मुख्यपृष्ठ पढ़कर स्ट्रेस होने लगता है। इसलिए अब मैं खुद अपनी खबरें पढ़ता हूँ, जो मुझे पढ़ना होता है। आज से दो दशक पहले की पत्रकारिता को देखिये, उस समय के समाचार पत्रों को देखिये और आज के समाचार पत्रों को देखिये तो अंतर खुद ब खुद पता चल जायेगा।
आजकल समाचार पत्रों में सब कचरा ही छपा होता है। पता नहीं मैंने कितने सालों पहले समाचार पत्र में अंडर लाइन की थी, खबरें भाषा का स्तर बिगड़ता ही जा रहा है वैसे ही ज्ञान का स्तर भी बिगड़ता जा रहा है। हम भले ही Twitter पर या Facebook पर कितने ही लोगों को फॉलो कर लें, वहाँ कितने ही ज्ञान की बात कर लें, लेकिन समाचार पत्र के माध्यम को बदलना बहुत मुश्किल है। पता नहीं कितने वर्षों पहले मैंने किसी समाचार की कटिंग करके अपने पास रखी थी। आजकल नहीं रख पाता, आजकल हमारे पास समाचारों के लिए बहुत सारे स्त्रोत हैं ब्लॉगिंग वेबसाइट और सोशल मीडिया भी हैं। सब अपने अनुसार अच्छी और बुरी खबरों लिखते हैं। सबके अपने-अपने विचार होते हैं, खबरें खेल की, व्यापार की, कॉमिक्स और खासकर क्रॉसवर्ड मुझे समाचार पत्र में बहुत पसंद है। तो कुछ वेबसाइट को चुन लीजिये, न्यूज़ पेपर्स को चुन लीजिये, समाचार चैनलों को भी चुन सकते हैं। खासकर रिपोर्टर को चुन लीजिये जिन पर आपको भरोसा है जिनको जिनको पढ़ना अच्छा लगता है जैसे दैनिक भास्कर में एन. रघुरामन के कॉलम मुझे बहुत अच्छे लगते हैं और मैं लगभग रोज ही उनको पढ़ता हूँ। मुझे पता है असली भारत की तस्वीर जो मुख्य मीडिया है, मतलब कि मेनस्ट्रीम मीडिया है, उसमें कभी नहीं आयेगी क्योंकि उससे उन लोगों को कोई फायदा नहीं है और ना ही जनता को उन सब समाचारों को सुनने में, पढ़ने में रुचि है।
मैं तो कई बार वीडियो देखते हुए भी डर जाता हूँ। अभी हाल ही की एक घटना है जिसमें राजकोट में एक व्यक्ति को इतना मारा गया कि वह मर गया, किसी मामूली सी बात पर हम वहाँ भी कुछ नहीं कर सकते, क्योंकि करना तो सिस्टम को है तो बेहतर है कि हम हमारे जीवन में ऐसी नकारात्मक खबरों को ना आने दें अगर मेरी बातें ठीक लगी हो तो आप टिप्पणी में अपनी बात कह सकते हैं।