कई बार मुझे लगता है कि मैं कुछ ज्यादा ही दार्शनिक हो जाता हूँ। दार्शनिक मतलब कि दर्शन की बात करने वाला, और कई बार ऐसा होता है कि मुझे खुद ही दर्शन समझ नहीं आता या फिर मैं दार्शनिकों से भागने की कोशिश करता हूँ, शायद यह मूड पर निर्भर करता है। मैं दार्शनिक प्रोफेशनल से नहीं हूँ तो यह मेरा शौकिया शगल भी हो सकता है।
कई बार मन ऐसा हो जाता है कि जीवन में कुछ हुआ न हो, परंतु मन चाहता है कि बस जीवन में कुछ चटपटा हो जाये और जिंदगी में कुछ नया रस आ जाये, पर हमारे चाहने से होता क्या है, जीवन अपनी रफ्तार से निरंतर चलता जा रहा है, हम उसी के प्रवाह में बहे जा रहे हैं। बस हम अपने आपको कुछ विशेष समझने लगते हैं कि आत्ममुग्धता में रहते हैं।
जीवन एक जैसा बीतने पर नीरस होने लगता है, इसलिये ही जीवन में हमें सामाजिक होना चाहिये, घूमने फिरने जाना चाहिये, अलग अलग कुछ करना चाहिये, जिससे हम अपने आपको नीरसता से उबार सकें या फिर उस स्थिति में जाने से रोक सकें। इस महामारी ने हमारे सामाजिक होने को भी छीन लिया, हमारे घूमने फिरने पर भी प्रतिबंध लगा दिया।
नेटफ्लिक्स, अमेजन, यूट्यूब पर कौन कितना समय व्यतीत कर लेगा, पिछले 4-5 वर्षों से मैंने डिश का कनेक्शन ले ही नहीं रखा है, बस अब टीवी शनिवार व रविवार ही खुलता है, नहीं तो घर में पाँच लोग, पाँच मोबाईल सबका अपना अपना पर्सनल टीवी, सब उसी में लगे रहते हैं, बेचारा एक ब्रॉडबैंड कनेक्शन इन सबको चलने की ऊर्जा देता रहता है। वहीं से कोई न कोई अच्छी बात सीख लेते हैं तो बस दार्शनिक होने का मन हो जाता है, कि देखो दुनियावालों मुझे तुमसे ज्यादा कुछ पता है, बस यही लालसा का भी अंत होना बचा है।
बहुत सुन्दर सन्देशप्रद आलेख।