एक विशाल वटवृक्ष के सम्मुख घास के छोटे-से तृण की तरह मैं खड़ा था। क्या करुँ, यही मेरी समझ में नहीं आ रहा था। तुरन्त ही जैसे-तैसे अपने को सँभालकर मैंने झुककर उनको अभिवादन किया। उन्होंने तत्क्षण मुझको ऊपर उठाया। अत्यन्त मृदु स्वर में बोले, “तुम अपनी पूजा में लीन थे। मैंने तुमको जगा दिया, इसलिए तुम क्षुब्ध तो नहीं हो गये ?”
“नहीं ।” मैं बोला।
“सचमुच वत्स, तुमको जगाने की इच्छा मैं रोक नहीं सका।“
मैं आश्चर्य से उनकी ओर देखने लगा। थोड़ी देर बाद वे बोले, “आज तीन दशाब्दियाँ हो गयीं। प्रतिदिन नियमित रुप से मैं इस समय गंगा के घाट पर आता हूँ, लेकिन इस हस्तिनापुर का एक भी व्यक्ति कभी मुझसे पहले यहाँ नहीं आया, मैंने किसी को नहीं देखा। तुम वह पहले वयक्ति हो, जिसको मैं आज देख रहा हूँ।“
“मैं ?” मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि आगे क्या कहूँ।
“हाँ ! और इसीलिए बहुत देर तक प्रतीक्षा करने के बाद अन्त में तुमको जगाया ।“ मेरे कानों के कुण्डलों की ओर देखते हुए वे बोले, “इन कुण्डलों के कारण तुम बहुत ही अच्छे लग रहे हो।“
“ये जन्मजात हैं।“ मैंने कहा ।
“इनका सदैव ध्यान रखना ।” धीरे धीरे पैर रखते हुए वे घाट की सीढ़ियों पर उतरने लगे। पर्वत की तरह भव्य दिखने वाला उनका वह लम्बा शरीर ओझल होने लगा। गले तक पानी में जाकर वे खड़े हो गये। उनके सिर के बाल पानी के साथ तैरने लगे। मैं जहाँ खड़ा था, वहीं से मैंने उनको वन्दन किया। आर्द्र उत्तरीय कन्धे पर डालकर मैं राजभवन की ओर लौटा।
उस विचित्र संयोग पर मुझे आश्वर्य हुआ। जिन पितामह भीष्म को देखने के लिए मैं कल दिन-भर विचार करता रहा था, वे स्वयं ही आज मुझको मिल गये थे – वे भी अकेले, गंगा के तट पर और प्रात:काल की इस रमणीय बेला में। कितने मधुर हैं उनके स्वर ! मन्दिर के गर्भगृह की तरह उनकी मुखाकृति कितनी शान्त और पवित्र है ! मुझ जैसे एक साधारण सूतपुत्र की कोई बात उनको अच्छी लगती है ! कौरवों के ज्येष्ठ महाराज मुझ-जैसे सूतपुत्र के कन्धे पर हाथ रखकर स्नेह से पूछताछ करते हैं ! सचमुच ही वीर पुरुष यदि अभिमानरहित हो, तो वह कितना महान लगने लगता है ! जिस कुरुकुल में पितामह जैसे वीर और गर्वरहित श्रेष्ठ पुरुष ने जन्म लिया है, वह कुल निश्चय ही धन्य है। मैं भी कितना भाग्यशाली हूँ, जो ऐसे राजभवन में रहने का सौभाग्य मुझको प्राप्त हुआ है। अब तो बार-बार इन पुरुष-श्रेष्ठ के दर्शन मुझको हुआ ही करेंगे। वे दो शान्त और तेजस्वी आँखें मुझपर भी कृपा-दृष्टि रखेंगी। अपने जीवन में जिन तीन व्यक्तियों पर मेरा प्रेम था, उनमें एक व्यक्ति और बढ़ गया था ! पितामह भीष्म !
waah ji waah…
कर्ण का भीष्म मिलन !
सूर्यपुत्र या कुन्ती पुत्र कर्ण पर मैंने कविवर रविन्द्रनाथ ठाकुर के दानवीर कर्ण कविता को अनेक वशZ पूर्व पढा था ,आपके पोस्ट पर कालजयी के अंश पढकर बहुत ही अच्छा लगा ,दानवरी के रूप में जो चरित्र कर्ण में देखने को मिलता हैं , इतिहास में दूसरा उदाहरण मिलना कठीन हैं ,आप कर्ण पर लिखते रहें समाज पर इसका अच्छा प्रभाव जरूर पडेगा ।
ज्यों ज्तों कहानी आगे बढ रही है, आनंद द्विगुणित होता जारहा है.
रामराम.
मैने तो महा भरत को धयान से देखा है, ओर सुना है, लेकिन आप बहुत विस्तार से लिख रहे है अच्छा लगा,
धन्यवाद
waah…….karn ke anchhuye pahluon ko choo rahe hain.