चम्पानगर। मैं कर्ण और मेरा छोटा भाई श्रोण – हमारा वह छोटा सा संसार ! शोण ! हाँ शोण ही ! उसका मूल नाम था शत्रुन्तप। लेकिन सब उसे शोण ही कहते थे। शोण मेरा छोटा भाई था। यों तो वृकरथ नामक मेरा एक और भी भाई था, लेकिन वह बचपन में ही विकटों के राज्य में अपनी मौसी के पास चला गया था। शोण और मैं – हम दो ही रह गये थे। मेरे बचपन का संसार मेरे और उसकी स्मृतियों से ही भरा हुआ था। चम्पानगरी की विशुद्ध हवा में पलनेवाले दो भोले-भाले प्राणों का अद्भुत कल्पनाओं से भरा हुआ छोटा सा संसार था वह। वहाँ झूठी प्रतिष्ठा के बनावटी दिखावे नहीं थे या अपने स्वार्थ के लिये एक-दूसरे को फ़ूटी आँख से भी न देख सकनेवाली असूया नहीं थी। वह केवल दो भाईयों का नि:स्वार्थ विश्व था और उस विश्व के केवल दो ही द्वारपाल थे। एक हमारी माता — राधा और दूसरे हमारे पिता —- अधिरथ। आज भी उन दोनों की स्मृतियाँ मेरे हृदय के एक अत्यन्त कोमल तार को झंकृत कर देती हैं और अनजाने ही कृतज्ञता से कुछ बोझिल से तथा ममता से कुछ रससिक्त से दो अश्रुबिन्दु तत्क्षण मेरी आँखों में छलक आते हैं। लेकिन क्षणभर के लिये ही ! तुरन्त ही मैं उनको पोंछ लेता हूँ । क्योंकि मैं जानता हूँ कि आँसू दुर्बल मन का प्रतीक है। संसार के किसी भी दुख की आग अश्रु के जल से कभी बुझा नहीं करती। लेकिन फ़िर भी, जबतक आँसू की ये दो बूँदें छलक नहीं पड़तीं, तबतक मुझको यह प्रतीत ही नहीं होता कि मेरा मन हल्का हो गया है ! क्योंकि आँसू की इन दो बूँदों के अतिरिक्त, अपने जीवन में मैं उनको ऐसा कुछ भी दे नहीं सका, जो बहुत अधिक मूल्यवान हो ! और इनकी अपेक्षा अधिक मूल्यवान कोई अन्य वस्तु है, जो माता-पिता के प्रति प्रेम के प्रतीकस्वरुप दी जा सकती है – ऐसा मैं समझता भी नहीं। मेरे माता-पिता ने कभी किसी प्रकार की आशा मुझसे नहीं की थी। उन्होंने मुझको जो कुछ दिया था, वह निरा प्रेम ही था।
मेरी माँ तो ममता का विशाल समुद्र ही थी। मुझको बचपन में सभी नगरजन वसुसेन कहते थे। मेरा छोटा भाई शोण, मुझको सदैव ’वसुभैया’ कहते था। माँ तो मुझको दिन में सैकड़ों बार ’वसु-वसु’ कहकर बुलाती थी। उसने मुझको केवल अपना दूध ही नहीं पिलाया था, बल्कि उसके विशुद्ध प्रेम का अमृत भी मैं अब तक जी भरकर पीता आया था। सबको समान भाव से प्रेम करने के लिये ही मानो उसका जन्म हुआ था। सारा चम्पानगर उसको ’राधामाता’ कहता था। मेरे कानों में दो जन्मजात कुण्डल थे। उनकी चर्चा वह नगर के लोगों से प्राय: करती ही रहती थी। मैं क्षण भर के लिए भी आँखों से ओझल हो जाता था, वह घबरा जाती थी। बार बार मेरे सिर पर हाथ फ़िराकर वह प्रेम से मुझसे कहती, “वसु! गंगा की ओर भूलकर भी मत जाना, अच्छा ऽ !”
“क्यों नहीं जाऊँ ?” मैं पूछता ।
“देखो, बड़े लोगों का कहना मानते हैं। जब जाने को मना किया जाये, तो नहीं जाना चाहिए !”
“तू सचमुच बहुत डरपोक है, माँ ! अरी, चले जायेंगे तो क्या हो जायेगा ?”
“नहीं रे वसु !” मुझको एकदम पास खींचकर मेरे बालों में अपनी लम्बी ऊँगलियाँ फ़िराती हुई वह मुझसे पूछती, “वसु, मैं तुझको अच्छी लगती हूँ या नहीं ?”
“आँ हाँ !” कहकर मैं सिर हिलाता। मेरे कानों में लय के साथ हिलनेवाले कुण्डलों की ओर विस्मय से देखती हुई वह कहती, “तो फ़िर मेरा आदेश समझकर कभी गंगा की ओर मत जाना।“ वह मुझको कसकर जकड़ती हुई कहती और एक अजाना भय उसकी आँखों में होता।
उसका मन रखने के लिये मैं कहता, “तू कहती है तो नहीं जाऊँगा। बस अब तो ठीक ?”
और उसका वात्सल्य उमड़ पड़ता मुझे अलिंगन में कसकर मेरे सिर और कानों को पटापट चूमती। उस समय मेरी इच्छा होती कि मैं इसी तरह गोद में समा जाऊँ।
एक नए एंगल से कर्ण कथा !
बहुत सुंदर, शुभकामनाएं.
रामराम.
jis paksh se hum anbhigya the aaj aapne uske darshan kara diye………shukriya.
bahut pehle padhi thi mrutyunjay,aj phir padhke bahut achha laga,ye kitab bahut sunder hai.dhanyawad
जितनी बार इस उपन्यास को पढ़ती हूँ ,मन नहीं भरता. सच में एक कालजयी रचना.