सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – १

        आज मैं कुछ कहना चाहता हूँ ! मेरी बात को सुनकर कुछ लोग चौकेंगे ! कहेंगे, जो काल के मुख में जा चुके, वे कैसे बोलने लगे ? लेकिन एक समय ऐसा भी आता है, जब ऐसे लोगों को भी बोलना पड़ता है ! जब जब हाड़-मांस के जीवित पुतले मृतकों की तरह आचरण करने लगते हैं, तब-तब मृतकों को जीवित होकर बोलना ही पड़ता है ! आह, आज मैं औरों के लिये कुछ कहने नहीं जा रहा हूँ, क्योंकि मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि इस तरह की बात करने वाला मैं कोई बहुत बड़ा दार्शनिक नहीं हूँ ! संसार मेरे सामने एक युद्ध-क्षेत्र में बाणों का केवल एक तरकश ! अनेक प्रकार की, अनेक आकारों की विविध घटानाओं के बाण जिसमें ठसाठस भरे हुए हैं – बस ऐसा ही केवल एक तरकश !!
        आज अपने जीवन के उस तरकश को मैं सबके सामने अच्छी तरह खोलकर दिखा देना चाहता हूँ ! उसमें रखे हुए विविध घटनाओं के बाणों को – बिल्कुल एक-सी सभी घटानाओं के बाणों को – मैं मुक्त मन से अपने ही हाथों से सबको दिखा देना चाहता हूँ। अपने दिव्य फ़लकों से चमचमाते हुए, अपने पुरुष और आकर्षक आकार के कारण तत्क्षण मन को मोह लेने वाले, साथ ही टूटे हुए पुच्छ के कारण दयनीय दिखाई देने वाले तथा जहाँ-तहाँ टूटे हुए फ़लकों के कारण अटपटे और अजीब से प्रतीत होने वाले इन सभी बाणों को – और वे भी जैसे हैं वैसा ही – मैं आज सबको दिखाना चाहता हूँ !
        विश्व की श्रेष्ठ वीरता की तुला पर मैं उनकी अच्छी तरह परख कराना चाहता हूँ। धरणीतल के समस्त मातृत्व के द्वारा आज मैं उनका वास्तविक मूल्य निश्चित कराना चाहता हूँ। पृथ्वीतल के एक-एक की गुरुता द्वारा मैं उनका वास्तविक मूल्य निश्चित करना चाहता हूँ। प्राणों की बाजी लगा देनेवाली मित्रता के द्वारा मैं आज उनकी परीक्षा कराना चाहता हूँ। हार्दिक फ़ुहारों से भीग जाने वाले बन्धुत्व के द्वारा मैं उनका वास्तविक मूल्यांकन कराना चाहता हूँ।
        भीतर से – मेरे मन के एकदम गहन-गम्भीर अन्तरतम से एक आवाज बार-बार मुझको सुनाई देने लगी है। दृढ़ निश्चय के साथ जैसे-जैसे मैं मन ही मन उस आवाज को रोकने का प्रयत्न करता हूँ, वैसे-ही-वैसे हवा के तीव्र झोंकों से अग्नि की ज्वाला जैसे बुझने के बजाये पहले की अपेक्षा और अधिक जोर से भड़क उठती है, वैसे ही वह बार-बार गरजकर मुझसे कहती है, “कहो कर्ण ! अपनी जीवन गाथा आज सबको बता दो। वह कथा तुम ऐसी भाषा में कहो कि सब समझ सकें, क्योंकि आज परिस्थिति ही ऐसी है। सारा संसार कह रहा है, ’कर्ण, तेरा जीवन तो चिथड़े के समान था !’ कहो, गरजकर सबसे कहो कि वह चिथड़ा नहीं था, बल्कि वह तो गोटा किनारवाला एक अतलसी राजवस्त्र था। केवल – परिस्थितियों के निर्दय कँटीले बाड़े से उलझने से ही उसके सहस्त्रों चिथड़े हो गये थे। जिस किसी के हाथ में वे पड़े, उसने मनमाने ढंग से उनका प्रचार किया। और फ़िर भी तुमको उस राजवस्त्र पर इतना अभिमान क्यों है ?”

7 thoughts on “सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – १

  1. कर्ण मेरे प्रिय पात्र है महाभारत के …इस उपन्यास को मैंने बरसो पहले पढ़ा था …आप इसके अंश देकर वाकई नेट पर एक उपयोगी सामग्री दे रहे है .

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