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साइड अपर के लोचे और स्लीपर में ठंड को रोकने का इंतजाम

आज फ़िर से साइड अपर सीट मिली है, हालांकि आज 3AC में टिकट करवा रखा है, परंतु फ़िर भी ये साइड अपर का साईज अपने हिसाब से नहीं है । आरक्षण के समय व्यक्ति की उम्र के साथ ही उसकी लंबाई भी जरूर लिखवा लेनी चाहिये जिससे कम से कम कूपे के बीच की बर्थ मिल जाये । और प्रोग्राम में भी सैट कर देना चाहिये कि इतनी लंबाई से ज्यादा व्यक्ति को साइड की सीट नहीं दी जायेगी ।
 
पैसे भी पूरे दो और ढंग से पैर भी नहीं मुड़ते., ऐसा लगता है कि पूरी रात हमने डरे सहमे निकाल दी है, क्योंकि घुटने मोड़ के सोना पड़ता है और घुटने मोड़ के सोने का मतलब यह होता है कि उस व्यक्ति को डर लग रहा है ।ऊपर चढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि जैसे सर्कस के पिंजरे में बंद कर दिया है और सामने के ६ लोग अब उसे देख रहे हैं ।
 
वो तो लालू का बस ज्यादा नहीं चला जो उसने केवल साइड में केवल तीन सीट ही लगवाई थीं, अगर उसका दिमाग ज्यादा तेज चलता तो, ड्राअर जैसी सीटें बनवा देता, ड्राअर खोलो सोओ और ड्राअर अंदर, फ़िर तीन क्या चार या पाँच सीट लग जातीं ।
 
वैसे तो अधिकतर वृद्ध लोगों को ऊपर की बर्थ में जाने पर परेशानी होती है, परंतु ठंड के दिनों में यही वयोवृद्ध स्लीपर कोच में कैसे फ़ुर्ती से ऊपर की बर्थ पर चढ़ जाते हैं और उस समय इनकी फ़ुर्ती देखने लायक होती है, और जब ऊपर चढ़ जाते हैं, तो जो विजयू मुस्कान इनके चेहरे पर होटी है वह देखने लायक होती है। हमने ऐसी पता नहीं कितनी ही यात्राएँ की हैं जिसमें हमें ठंड के दिनों में नीचे की बर्थ मिली और जब भी कोई वृद्ध आता तो लगता कि शायद अब हमसे कहेगा कि ये ऊपर वाली बर्थ पर आप चले जायें, पर कभी किसी ने ठंड के दिनों में नहीं बोला, फ़िर हम खुद ही सोचते कि हम बोल देते हैं, पहली बार बोला भी तो वे सज्जन अपने परिवार के साथ थे, बोले कि देखते नहीं कितनी ठंड है, अब कौन सा हमने रात भर उठना है, अब तो सुबह ही बर्थ से उतरना है। बस उस दिन के बाद से हम अपनी तरफ़ से कभी भी किसी सज्जन को नीचे की बर्थ देने के लिये नहीं बोल पाते हैं।
 
जिस रूट पर यात्रा करते थे उसमें 3AC का कोच नहीं लगता था, और अगर कभी लग भी गया तो केवल एक ही लगता था हमने भी उसी दौरान एक तकनीक ईजाद की, स्लीपर कोच के लिये, स्लीपर कोच में ठंड में सबसे बड़ी समस्या होती है कि उसकी खिड़कियाँ आप कितनी भी अच्छी तरह से बंद कर लो हवा जाने कहाँ से रिस रिस कर आती है, और नीचे वाले बंदे की कुँकड़ू कूँ हो जाती है, और जिसको साद्ड की सीट वाले को तो दो दो खिड़की की हवा खानी पड़ती है,  अपने साथ पकिंग के लिये उपयोग होने वाला दो इंच का चिपकने वाला टेप लेकर चलने लगे, और जब भी नीचे की सीट मिलती या साइड की नीचे वाली सीट मिलती तो पहले खिड़की लगाते और फ़िर उस पर चारों तरफ़ से अपनी पकिंग वाली टेप अच्छे से लगा देते, बस हवा का नामोनिशान गायब हो जाता, और मजे में सोते हुए जाते थे। सुबह उठाकर टेप निकालकर फ़ेंक देते। बाकी सारे नीचे की सीट वाले कातर भाव से हमारी और देख रहे होते थे, वैसे जब भी किसी ने कहा तो हमने उसकी हमेशा टेप लगाकर मदद की।

वो सही ही कहते हैं आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है ।

ब्रेकअप और आवारा साँसें

एक

बगीचे के चारों और शाम सात बजे अँधेरा हो चुका है, एक जवान युगल जो पहनावे और उनके गले में पड़े हुए आई.टी. कंपनी वाले पट्टे से पता चलता है कि दोनों ही किसी आई.टी. कंपनी में काम करते हैं, और बात करने के लिये कोई माकूल जगह ढूँढ़ रहे हैं..

बगीचे के गोल घूमने वाले गेट के पास पहुँचकर लड़का लड़की को बगीचे के अंदर आने के लिये आग्रह करता है, परंतु शायद रिश्ते की गर्माहट में आई ठंडक ने लड़की को बगीचे के अंदर जाने से रोक दिया, और आँखों और गर्दन घूमने के भाव एक ही थे.. नहीं !! कहीं ओर चलो या फ़िर इधर ही घूमते रहो..

हर आने जाने वाले पर उनकी नजर कि कहीं उनकी कोई चोरी ना पकड़ी जाये.. थोड़ी देर बाद बगीचे के बाहर ही फ़र्शी की एक बैंच पर दोनों बैठे दिखे.. वहाँ दोनों ही पास पास बैठकर धीमी आवाज में बातें कर रहे थे.. घूमते हुए उनके सामने से गुजरना हुआ कि यकायक आवाज आई.. लड़की की आवाज थी.. बता !! मैंने तेरे पैसे से क्या क्या खरीदा.. बता !! क्या ये मोबाईल फ़ोन.. और बता !! मैं सब सुनना चाहती हूँ..

लड़के की सिट्टी पिट्टी गुम थी.. वह सरेंडर वाले भाव में लडकी से याचना कर रहा था.. कि प्लीज चिल्लाओ मत.. फ़िर होठों को गोल करके सीटी बजाकर श्श्श्श कर उसे चुप करने की कोशिश भी की.. और उसकी कोशिश शायद कामयाब हो गई.. लड़की घूमने वालों को देखकर शांत हो गई..

शायद दोनों का ब्रेकअप हो गया था.. या अपनी जुबां में कहें कि हकीकत के धरातल पर आ गये थे..

दो

लड़का ढ़ीली जींस और फ़ॉर्मल शर्ट पहने हुए था, जींस लटकी जा रही थी.. जैसे आजकल लड़कों की जींस अमूमन लटकी रहती है.. पीछे से अंतर्वस्त्र की मोटी इलास्टिक ब्रांड के नाम के साथ दिख रही थी.. और जींस और शर्ट को काले रंग की बेल्ट अलग कर रही थी.. और वह भी थकी हुई लग रही थी.. आखिर शाम जो हो चुकी थी..

लड़की चुस्त थी.. जींस बिल्कुल चुस्त ऊपर शर्ट ठीक ठाक सी.. कुछ स्टाइलिश सी बेल्ट और लंबे घने बाल जैसे पहले वो डाबर आँवला के विज्ञापन में लड़की आती थी.. एक एक बाल अलग अलग..

लड़के को समझा रही थी.. सुन !! अभी तीन साल हैं.. बराबर से प्लानिंग कर लेते हैं.. अभी चौबीस का है.. तीन साल में सत्ताईस का हो जायेगा.. तो कुछ अच्छे से कर भी लेगा..

खैर घूमने वालों की रफ़्तार बातें करने वाले युगलों से हमेशा तेज होती है.. और घूमने वाले आगे निकल जाते हैं..

शायद दोनों समझदार थे.. और सब काम प्लॉनिंग करके करना चाहते थे.. पर कुछ लोग होते हैं.. जो निजी जिंदगी को प्रोजेक्ट मैनेजमेंट के टॉस्क वाली फ़ाईल समझ कर उसे बराबर फ़ॉलोअप करते रहते हैं.. और कुछ लोग होते हैं.. जो निजी जिंदगी को आवारा साँसों जैसा चलते रहने देते हैं।

चिंता या चिता

    आज अक्टूबर २०१३ शुरू हो रहा है, ऐसे पता नहीं कितने ही अक्टूबर आये और चले गये, ऐसे कितने ही महीने आये और चले गये, अब तो याद भी नहीं कि कौन सा महीना खुशी लाया था, और कौन सा महीना बिना खुशी के आया या निकला था । बहुत सोचता हूँ परंतु सोचने की भी एक सीमा होती है, उसके परे जाना बहुत कठिन होता है।

    सोचते सोचते कब, पता नहीं कब !! वह सोच हल्की सी चिंता में बदल जाती है, और फ़िर वह चिंता कब हल्की छोटी सी से बदलकर बड़ी हो जाती है, पता ही नहीं चलता है, हर समय दिमाग में वह बात ही घूमती रहती है, कई बार तो ऐसा लगता है कि बस अब यह बात दिमाग में बहुत हो गई, कहीं उल्टी करके निकाल दें, तो शायद कुछ राहत महसूस हो।

    जिंदगी में कई बार दोराहे आते हैं, जहाँ से हमें कोई भी एक रास्ता चुनना होता है, और हर बार किस्मत इतनी अच्छी भी नहीं होती कि रास्ता सही मिल जाये, और जो सही वाला रास्ता छोड़ा था, उस पर फ़िर वापिस आने का कोई भी मौका मिलने की संभावना नहीं होती, वो कहते हैं कि हरेक चीज का सही वक्त होता है, तो बस वह वक्त निकल गया होता है और इंसान केवल हाथ मलता रह जाता है या फ़िर जिंदगीभर उसका पछतावा करता रहता है।

    सबको विभिन्न प्रकार की चिंताएँ घेरे रहती हैं, कभी बिना बात के भी चिंताग्रस्त होते हैं और कभी बवाल वाली चिंता को यूँ ही बिना किसी चिंता के दिमाग पर जोर दिये, निपटा देते हैं, हाँ बस यह देखा कि इंसान को अपना हृदय मजबूत रखना चाहिये, चीजों के प्रति लगाव कम रहना चाहिये,  यह लगाव बहुत सारी चिंताओं का कारण होता है।

    हमें अटल सत्य की ओर सम्मुख होना चाहिये, किसी होने वाली बात के बारे में जानना और उसके बारे में सोचना और उसके लिये अपनी चिंता पालना, यह मानव की स्वाभाविक प्रक्रिया है। जो हमें सोचने को मजबूर करती है और कई कठिनाइयों को पार करने में सहयोग देती है।

    चिंता किसी भी कार्य के प्रति हो फ़िर वह दुख देने वाला हो, या दुख से उबारकर सुख देने वाला हो, चिंता से व्यक्ति परिपक्व होता है और गंभीरता उसके मन मानस और मष्तिष्क में जगह बनाने लगती है।

आधुनिक शिक्षा अध्ययन .. (Ways of Modern Education..)

    शिक्षा अध्ययन करने के तरीकों में भारी बदलाव आ गया है । पहले अध्ययन के लिये कक्षा में जाना अनिवार्य होता था, पर अब तकनीक ने सब बदल कर रख दिया है। अधिकतर अध्यापन अब ऑनलाइन होने लगा है। किताबों की जगह पीडीएफ फाईलों ने ले ली है।

  ईबुक्स  पहले जब किताबों से पढ़ते थे तब कौन से लेखक की किताब अच्छी है, उसके लिए किसी न किसी पर निर्भर रहना पड़ता था, या फिर अध्यापक ही मार्गदर्शन करते थे। विद्यार्थियों के लिए शिक्षक से परे कोई जहाँ नहीं था। किताब पढ़ने के बाद ही उपयोगिता का पता चल पाता था। जिससे कई बार समय की कमी हो जाती थी,  पर साथ ही ज्ञान बढ़ता था।

    आजकल अध्ययन में फटाफट वाला दौर चल रहा है, जिसमें विद्यार्थियों को पता होता है कि उन्हें क्या पढ़ना है, कितना पढ़ना है, किसे पढ़ना है। विद्यार्थी उससे ज्यादा पढ़ना ही नहीं चाहते हैं। ऑनलाइन सब कुछ उपलब्ध है। हालांकि पढ़ने के लिये पहले से ज्यादा सुविधाएँ उपलब्ध हैं, एक ही विषय को अलग तरीकों से, ज्यादा माध्यमों से पढ़ा जा सकता है। ज्यादातर नोट्स बनाने की जरूरत नहीं, केवल बुकमार्क किया और कभी भी सुविधानुसार उपयोग कर लिया।

    पहले अनुक्रमणिका से पृष्ठ संख्या देखकर पृष्ठ पलटाते हुए पहुँचते थे, अब तो पीडीएफ फाईलों में केवल क्लिक करके पहुँचा जा सकता है, पहले किसी भी शब्द या वाक्यों को खोजना दुरूह हो जाता था, पर अब पीडीएफ फाईलों में खोजने का कार्य बहुत सरल हो गया है।

    पहले कक्षा में नियत  समय पर जाकर विद्यार्थियों के आने के बाद हीआधुनिक माध्यम पढ़ाई शुरू हुआ करती थी, पर अब सबकुछ वर्चुअल उपलब्ध है, पाठ्यक्रम ईलर्निंग के माध्यमों का उपयोग कर रहे हैं, वीडीयो ऑडियो का शिक्षा में महत्व बढ़ने लगा है, ईबुक्स का प्रचलन तेजी से बड़ा है। अब इन ईबुक्स, ऑडियो, वीडियो के लिये टेबलेट्स भी उपलब्ध हैं, भारत में कई संस्थान अब टेबलेट के जरिये पढ़ाई करवा रहे हैं। ऑनलाईन माध्यम से सबको फ़ायदा हुआ है, अध्यापकों और विद्यार्थियों के बीच तालमेल और अच्छा हुआ है।

    भारत के अध्यापक कई देशों के लिये ऑनलाईन ट्यूशन भी पढ़ाते हैं, कई अध्यापक स्काईपी से पढ़ा रहे हैं, तो कई अध्यापक गूगल हैंग आऊट का भरपूर उपयोग कर रहे हैं, उनके अपने खुद के फ़ेसबुक पेजेस भी हैं जहाँ विद्यार्थी आपस में  बात तो करते ही हैं, वहीं अपनी समस्याओं को आपस में सुलझाने की अच्छी कोशिशें देखी जा सकती हैं।

    अभी कुछ दिन पहले एक संस्था के ट्विट्स भी देखे, जहाँ पर १४० शब्दों की सीमा में ही विषय के बारे में कहने की कोशिश की गई है या फ़िर उत्तर को कई ट्विट्स में दिया गया है, इस तरह से तकनीक का पढ़ाई में भरपूर उपयोग हो रहा है।

ईलर्निंग    किसी भी विषय पर यूजर कंटेन्ट चाहिये तो स्क्रिब्ड हमेशा उपलब्ध है, जहाँ पर बहुत से अनछुए कंटेन्ट मिल जायेंगे, बहुत सी प्रेजेन्टेशन थोड़े फ़ेर बदल के बाद उपयोग में ली जाने वाली मिल जायेंगी। अगर आपको कोई किताब खरीदनी है तो आप गूगल बुक्स पर उसका प्रिव्यू देखकर अपना निर्णय ले सकते हैं।

    आशा है कि हमारे भारत के संस्थान आधुनिक तकनीक का अच्छे से फ़ायदा उठायें और भारत की उन्नति में मुख्य भुमिका का निर्वाहन करें।

वो एक रंग की कमीज..

    कमीज खरीदने की जरूरत महसूस होने लगी थी, कंपनी बदली थी, पहले वाली कंपनी में जीन्स टीशर्ट भी रोज चल जाती थी, परंतु जिस कंपनी में आये थे, वहाँ सप्ताह में ४ दिन औपचारिक कपड़े पहनने का रिवाज था और जब लगातार पिछले २ वर्षों से जीन्स से ही गुजारा चल रहा था तो औपचारिक कपड़ों में कमी होना स्वाभाविक ही थी, और दो वर्षों में तो औपचारिक कपड़ों में नये रंग नये रूप के कपड़े आ जाते हैं, वैसे भी महानगरों में फ़ैशन बहुत जल्दी बदलता है। वैसे हमने देखा है कि कुछ ही लोग ढंग के औपचारिक कपड़े पहनते हैं, वरना तो केवल पहनने से मतलब होता है, किसी भी रंग की पतलून के ऊपर किसी भी रंग की कमीज पहन ली।

कमीज

    वहीं कुछ लोग औपचारिक कपड़ों में भी सँवरे नजर आते हैं, जिस करीने से कपड़े पहनते हैं, जिन रंगों का संयोजन वे कमीज और पतलून में करते हैं वह आँखों को भाता है। कई बार कुछ रंग इतने अच्छे दिख जाते हैं कि हम भी उसी रंग के कपड़े बाजार में अपने लिये ढूँढ़ने लगते हैं। यह मानवीय स्वाभाव है।

    मुझे याद है जब खाकी प्रचलन में आई, तब मैंने भी खाकी ली और उसके साथ सफ़ेद कमीज का संयोजन बहुत ही फ़बता था, परंतु हमारे छोटे से कार्यालय में भी सोमवार को कम से कम तीन चार लोग उसी तरह के रंग संयोजन में देखे जा सकते थे, ऐसा लगता था कि कंपनी का ड्रेसकोड हो गया है। अधिकतर सोमवार को सफ़ेद कमीज पहने हुए लोग देखे जा सकते हैं, शायद इसके पीछे कार्पोरेट सभ्यता का असर हो।

   औपचारिक कपड़े हमने भी नये रंग की शर्ट लेनी थी, हम कमीज खरीदने दुकान में गये और लगभग सारे रंग देख डाले परंतु कुछ समझ में नहीं आया, हमने कहा भई कुछ अच्छा प्याजी रंग की कमीज दिखाईये, क्योंकि उस रंग में बहुत सारे सूक्ष्म रंगों से आच्छादित कपड़े आते हैं, जो कि आँखों को चुभते भी नहीं है और कोमलता का अहसास करवाते हैं, और गहरे रंग के कपड़े जिसमें चमक होती है वे आँखों को चुभते हैं और मन को भी नहीं भाते हैं, जब हमने एक अच्छे से प्याजी हल्के रंग की कमीज ली तो देखा कि अब इसके लिये पतलून भी लेनी होगी, फ़िर हमने पतलून भी ली जो बराबर रंग संयोजन में हो।

    अब इस बात को बहुत समय बीत चला है, उस समय वह रंग संयोजन बहुत ही कम लोगों के पास होता था, परंतु आजकल यह रंग संयोजन कम से कम कमीज का बहुत ही सामान्य हो चला है, अब जिस दिन मैं वह कमीज पहनकर जाता हूँ तो मुझे तो अधिकतर लोग उसी रंग की कमीज पहने दिखते हैं।

    यह भी मानवीय स्वभाव है कि जिस दिन हम जिस रंग के कपड़े पहनते हैं तो उसी रंग के परिधानों पर हमारी नजर रूक ही जाती है।

वैश्वीकरण के दौर में हिन्दी भारतीयों के लिये..

    हिन्दी दिवस हमें क्यों मनाने की जरूरत पड़ी, ये बात समझ से परे है, हमने तो आजतक अंग्रेजी दिवस या किसी और भाषा का दिवस मनाते नहीं देखा । यह ठीक है कि भारत पर कभी ब्रतानिया साम्राज्य शासन किया करता था, परंतु हमने आजाद होने के बाद भी अपनी भाषा का सम्मान वापिस नहीं लौटाया और हम ब्रतानिया साम्राज्य की भाषा पर ही अटके रहे, क्यों ? यह एक बहुत ही विकट प्रश्न है, जिसके लिये हमें गहन अध्ययन की जरूरत है। इसके पीछे केवल राजनैतिक इच्छाशक्ति की ही कमी नहीं कही जा सकती, इसके पीछे भारतीय मानस भी है जो अपनी भाषा में कभी मजबूत नहीं दिखे, जब लगा कि केवल अंग्रेजी भाषा ही सांभ्रात भाषा है तो अपनी भाषा में उन्हें वह सम्मान समाज ने नहीं दिया।

    जब दूसरे देश अपनी भाषा से इतना प्यार करते हैं और अंग्रेजी भाषा को अपने संस्कार और अपने परिवेश में आने की इजाजत ही नहीं देते हैं, तो हम क्यों ऐसा नहीं कर सकते ? ऐसा नहीं है कि अंग्रेजी भाषा ने उन देशों में पैर पसारने की कोशिश नहीं की, कोशिश की परंतु वे लोग कामयाब नहीं हो पाये । अब वैश्वीकरण के युग में भी वे देश अंग्रेजी भाषा को नकारने में लगे हुए हैं, और अपनी भाषा में ही काम करने के लिये दृढ़ हैं, हाँ जमीनी तौर पर कुछ कठिनाइयाँ बेशक आती होंगी, परंतु कम से कम वहाँ की जनता अपनी भाषा में हर सरकारी कार्य को समझती तो है।

    हमारे यहाँ भारत में सबसे पहले तो साक्षरता का यक्ष प्रश्न है, फ़िर अधिकतर सरकारी कार्यों में कार्यकाज की भाषा अंग्रेजी है, और जहाँ पर आम भारतीय जनता को रोज दो चार होना पड़ता है। वे उस भाषा में अपने कागजात बनवाने के लिये मजबूर होते हैं, जो भाषा उनको आती ही नहीं है और किसी ओर के भरोसे वे अपने महत्वपूर्ण कागजारों पर हस्ताक्षर करने को बाध्य होते हैं ।

    हिन्दी कब हमारी आम कामकाज की भाषा बन पायेगी, और वैश्वीकरण का हवाला देने वाले कब समझेंगे कि आधारभूत दस्तावेजों के लिये हमारी खुद की भाषा हमारे देश के लिये उपयुक्त होगी । कम से कम हमारे देश के लोगों को अपने दस्तावेज तो पढ़ने आयें, कामना यही है कि हमारे आधारभूत दस्तावेज तो कम से कम हमारी अपनी हिन्दी भाषा में हों।

जीवन के तीन सच

क्राउड मैनेजमेंट

    बेटेलाल के मनोरंजन के लिये पास ही गये थे, तो पता चला कि उस जगह वहीं पास के आई.टी. पार्क का सन्डे फ़ेस्ट चल रहा है और प्रवेश भी केवल उन्हीं आई.टी.पार्क वालों के लिये था, पार्किंग फ़ुल होने के कारण, पार्किंग आई.टी.पार्क में करवाई गई, वहाँ पर भी अव्यवस्था का बोलबाला था, साधारणतया: आई.टी. पार्क में क्राऊड मैनेजमेंट अच्छा होना चाहिये, परंतु मैंने आज तक किसी भी आई.टी. पार्क में क्राऊड मैनेजमेंट ठीक नहीं देखा, सब पढ़े लिखे तीसमारखाँ होते हैं, जो अपने से ऊपर किसी को समझते ही नहीं और अपने से ज्यादा हाइजीनिक भी, भले ही घर में कैसे भी रहते हों, परंतु बाहर तो हमेशा दिखावा जरूरी होता है। भले ही समझदारी कम हो, परंतु आई.टी. पार्क के गेट में प्रवेश करते ही समझदारी कुछ ज्यादा ही विकसित हो जाती है। हमसे हमारा वाहन जबरन आई.टी.पार्क में खड़ा करवाया गया और चार गुना शुल्क वसूला गया। खैर हम तो जल्दी ही वहाँ से निकल लिये, बहुत दिनों बाद कार्पोरेट्स इमारतों के बीच में खुद को असहज महसूस कर रहा था ।

    इतने सबके बाद सोच रहा था कि उज्जैन में सिंहस्थ के दौरान प्रशासन का क्राउड मैनेजमेंट बहुत अच्छा रहता है, वाकई तारीफ़ के काबिल।

गर्लफ़्रेंड

    सुबह कुछ समान लेकर आ रहा था कि बीच में एक जगह रुकना पड़ा, कार खड़ी थी और एक बाईक कुछ ऐसे आकर रुकी कि हमें भी मजबूरन रुकना पड़ा, बंदा जो बाईक चला रहा था, उसने हेलमेट नहीं पहनी थी, और जबरदस्त ब्रेक लगाकर रुकी थी, पीछे सीट पर कन्या थी, कन्या बोली – “क्या हुआ ?” बंदा बोला “हेलमेट के लिये !!” और भी कुछ बोला था जो सुनाई नहीं दिया, शायद “आपसे सुबह के प्रवचन सुनने के बाद सोचा कि अभी मेनरोड आने से पहले ही हेलमेट लगा ली जाये”, कन्या बोली “ओह्ह!! मॉय गॉड, तो आप पर मेरे कटु वचन कब से असर करने लगे”, तो इतना समझ में आया कि बंदा कभी बीबी की बात तो मानता नहीं है, इसलिये वह जरूर उसकी गर्लफ़्रेंड होगी ।

पहचान

    एक नौजवान जोड़ा हमारे फ़्लेट के सामने वाले फ़्लेट में रहता था, उनकी छत खुली हुई थी, जिस पर अधिकतर उनकी शाम बीतती थी, बस उनके साथ समस्या यही थी कि वह केवल एक कमरा था, खैर नये शादीशुदा थे तो शादी के बाद भी बैचलरों जैसा मजा लूट रहे थे, पर जैसे ही नई जिम्मेदारी उनके सर पर आई, उन्हें एकदम से मकान बदलना पड़ा।

    कोई  बातचीत हम लोगों के बीच नहीं थी, केवल एक खामोश पहचान थी, चेहरों की पहचान, यहाँ तक कि मुस्कान भी नहीं अगर कभी हम मुस्करा भी दिये तो वे सपाट चेहरे के रहते थे, तो हमें लगा कि उन्हें पहचान बढ़ाना ठीक नहीं लगता, हमने भी अपनी तरफ़ से पहचान बढ़ाने का उपक्रम बंद कर दिया, इसी बीच उन्होंने कार ली, बिल्कुल नई कार, जिसे रखने के लिये मकान मालिक के घर में जगह ऐसी थी कि अगर मकान मालिक की कार निकालनी हो तो उन्हें अपनी कार निकालनी पड़ेगी याने की रेल के डब्बे की स्टाईल में, तो रोज सुबह ६ बजे उनके रिवर्स मारने की संगीत की आवाज सुनाई देने लगती थी, खुद से ही दोनों पति पत्नि ने कार सीखी और फ़िर रात को उनकी पत्नी थोड़ा बायें थोड़ा दाहिने कहकर कार को मकान में पार्क करवाती थीं। हमें लगा कि उन्होंने कार केवल अंदर और बाहर करने के लिये ही ली है क्योंकि वे लोग कार से कहीं और जाते ही नहीं थे।

    खैर उन्होंने मकान बदल लिया, फ़िर काफ़ी दिनों तक दिखे नहीं, हम भी बैंगलोर से बाहर थे अब काफ़ी दिनों बाद बैंगलोर में आना हुआ तो आमना सामना हो गया, वे अपनी जिम्मेदारी को गोद में लेकर आ रहे थे, तो देखकर हम थोड़ी देर तो असमंजस में थे कि ये वही बंदा है पर तुरंत ही उसकी और से एक मुस्कान आई तो हमने भी एक मुस्कान पलट कर फ़ेंक दी और इस तरह से मुस्कान की पहचान तो हो ही गई।

म्यूचयल फ़ंड में डाइरेक्ट या रेग्यूलर प्लॉन किसमें निवेश करें ?(Where to Invest Mutual fund Direct or Regular plan)

    म्यूचयल फ़ंड में डाइरेक्ट प्लॉन के जरिये निवेश करना एक अच्छा विकल्प है। पर डाइरेक्ट प्लॉन में तभी निवेश करें जब आपको म्यूचयल फ़ंड के बारे में अच्छी जानकारी है, अगर आपको म्यूचयल फ़ंड के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है तो बेहतर है कि आप डाइरेक्ट प्लॉन ना लें और किसी ब्रोकर, एजेन्ट या डिस्ट्रीब्यूटर से ही प्लॉन लें।
    डाइरेक्ट प्लॉन इसी वर्ष १ जनवरी २०१३ से शुरू हुआ है, और यह इस प्लॉन में निवेश करने वालों के लिये म्यूचयल फ़ंड हाऊस ने अपनी लागत कितनी कम की है और निवेशक को कितना फ़ायदा पहुँचाया है यह भी निकट भविष्य में पता चलेगा । फ़ंड हाऊस के हर म्यूचयल फ़ंड स्कीम में अब दो प्लॉन होंगे । एक तो वही पुराना रेग्यूलर प्लॉन और दूसरा डाइरेक्ट प्लॉन जिनकी एन.ए.वी. भी अलग अलग होंगी। डाइरेक्ट प्लॉन में निवेश करने वाले निवेशक को लंबी अवधि में अच्छा फ़ायदा होने की उम्मीद है, परंतु कितना अंतर होगा यह फ़ंड हाऊस कितनी लागत कम करता है और कितना अधिक फ़ायदा निवेशक को देता है।
    रेग्यूलर प्लॉन और डाइरेक्ट प्लॉन की एन.ए.वी. में अभी केवल .१०% से १.२५% तक का अंतर देखने को मिला है। पर यह अंतर पिछले ७-८ महीने का ही है, अगर फ़ंड हाऊस अपनी लागत कम कर डाइरेक्ट निवेशक को ज्यादा फ़ायदा देंगे तो लंबी अवधि में यह अंतर ३ से ५ प्रतिशत तक हो सकता है । हालांकि फ़ंड हाऊस डिस्ट्रीब्यूटर्स, ब्रोकर और एजेन्टों को खुश करने के लिये ज्यादा फ़ायदा भी डाइरेक्ट निवेशक को नहीं देने वाले हैं, अभी भी जिन निवेशकों ने किसी एजेन्ट के जरिये निवेश कर रखा है वे अपने निवेश को डाइरेक्ट प्लॉन में स्विच कर सकते हैं। निवेशक अधिकतर केवल यह कदम इसी दशा में करता है जब उसे डिस्ट्रीब्यूटर्स, ब्रोकर और एजेन्टों से मदद नहीं मिलती । खैर हमने तो अधिकतर यही देखा है कि अभी हमारे निवेशकों में इतनी जागरूकता नहीं है कि वे खुद जाकर फ़ंड के बारे में समझें, जो भी उनके आसपास उन्हें बेचने आ जाता है तो त्वरित निर्णय में म्यूचयल फ़ंडों की खरीदारी की जाती है।
    रेग्य़ूलर प्लॉन में म्यूचयल फ़ंड  लेने से डिस्ट्रीब्यूटर्स, ब्रोकर और एजेन्टों को उनका कमीशन मिलता है जो कि उनके लिये जरूरी भी है, क्योंकि वे उसी कमीशन की कमाई से निवेशक को सुविधाएँ भी देते हैं जैसे कि पता बदलना, बैंक का बदलना, निवेश को एक फ़ंड से दूसरे फ़ंड में स्विच करना, नामांकित करना, निवेश खाते में बदलाव, फ़ोन नंबर बदलना इत्यादि।
    डाइरेक्ट प्लॉन में म्यूचयल फ़ंड लेने पर निवेशक को खुद ही यह सारे कार्य करने पड़ते हैं, वैसे आजकल यह सुविधा बहुत अच्छी हो गई है, लगभग सभी म्यूचयल फ़ंडों में बहुत सारी सुविधाएँ ऑनलाईन / फ़ोन के द्वारा ही उपलब्ध हैं। अगर फ़िर भी परेशानी है तो इन म्यूचयल फ़ंडों के ग्राहक सेवा पर फ़ोन करके परेशानी सुलझायी जा सकती हैं।

खाद्य सुरक्षा बिल / घोटाला / रेटिंग एजेन्सियाँ / जीडीपी / फ़ायदे

    कोल स्कैम घोटाला २६ लाख करोड़ का हुआ (विश्लेषकों के अनुसार), सरकार (सीएजी) के अनुसार १.८६ लाख करोड़ नंबर सामने आया । नया खाद्य सुरक्षा बिल के लिये जो राशि सरकार ने उजागर की है वह है १.२५ लाख करोड़ रूपये जो कि सरकार के ऊपर भार है, मतलब यह देखिये कि भारत के ६१ करोड़ लोगों के लिये १.२५ करोड़ रूपये भारी पड़ रहे हैं, परंतु कोलगेट घोटाला जो कि इससे कहीं ज्यादा था तब सारी रेटिंग एजेंसियाँ चुप बैठी थीं, तब हमारा जीडीपी पर पड़ने वाला फ़र्क क्या इन रेटिंग एजेंसियों को समझ नहीं आ रहा था । जब जनता के लिये सरकार खर्च कर रही है तो रेटिंग एजेंसियों को लगने लगा कि इससे भारत में कुछ हद तक सुधार की गुंजाइश है तो एकदम से “रेटिंग गिर सकती है” का बयान आ गया।

    हालांकि सरकार का कहना है कि जीडीपी १% तक कम हो सकती है परंतु यह सरकारी आँकड़ा है, अगर सही तरीके से इस आँकड़े को देखा जाये तो यह आँकड़ा ३% के भी ऊपर है, जो कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर एक बहुत बड़ा बोझ होगा। क्या रेटिंग एजेन्सियों ने कभी भारत में हुए बड़े घोटालों से होने वाली हानि का आकलन हमारी अर्थव्यवस्था के लिये किया है, अगर नहीं तो वाकई इसके पीछे की वजह जानने वाली है। क्यों हमारे भारत के बड़े बड़े घोटालों का आर्थिक विश्लेषण कर रेटिंग कम नहीं की गई, क्या इसका कुछ हिस्सा इन रेटिंग एजेन्सियों की जेब में भी जाता है ?

    जितने भी बड़े बड़े घोटाले हुए हैं, वे पिछले ९ वर्ष में प्रतिवर्ष ३% जीडीपी के घोटाले हुए हैं, अगर हमारा लक्ष्य ५.२% है तो वह आराम से ३% ज्यादा होता और हम ८.२% के जीडीपी की रफ़्तार से बढ़ रहे होते । रूपये की गिरते साख के चलते यही लक्ष्य ४.८% पर फ़िर से निर्धारित किया गया है। हालांकि जितने भी वित्तीय आँकड़े बताये जाते हैं वे सब एक बहुत बड़े आंकलन पर दिये जाते हैं, जिसकी तह में कोई नहीं जाना चाहता। क्या हमारी अर्थव्यवस्था की वाकई कोई बेलेन्स शीट है। कम से कम हमें पता तो चले कि इतना पैसा अगर टैक्स से सरकारी खजाने में आ रहा है तो वह खर्च किधर हो रहा है।

    सरकारी खजाने के खर्च से जीडीपी पर सीधा असर पड़ता है। अब इस १.२५ लाख करोड़ के खाद्य बिल से कितना फ़ायदा गरीब लोगों को मिलता है, वह तो भविष्य ही बतायेगा, और कितना फ़ायदा इन गरीब लोगों के हाथों में अन्न पहुँचाने वालो को होगा यह भी भविष्य ही बतायेगा। वाकई अन्न गरीबों तक पहुँचता है या फ़िर एक नया खाद्य घोटाले की नींव सरकार ने रखी है।

    परंतु अगर वाकई ईमानदारी से इस योजना को लागू किया जाता है और पूरा का पूरा पैसे का फ़ायदा गरीबों तक पहुँचता है, तो इसके फ़ायदे भी बहुत हैं, यह कुपोषण से लड़ने में मददगार होगा, सरकार पर स्वास्थ्य योजनाओं के मद में किये जाने वाले खर्च में आश्चर्यजनक रूप से कमी आयेगी। स्वास्थ्य सुविधाएँ और भी बेहतर हो सकेंगी, स्तर अच्छा होगा। निम्न स्तर के व्यक्ति भी अच्छे स्वास्थ्य के चलते बेहतर कार्य कर सकेंगे, बुनियादी स्तर की शिक्षा का फ़ायदा ले सकेंगे। अपनी मेहनत करके भारत के विकास में अतुलनीय योगदान दे सकेंगे।

रूपये की विनाशलीला देखने के लिये तैयार हैं ?

    आजकल सब और चर्चा में डॉलर और रूपया है और जब से रूपया १०० रूपया पौंड को पार किया है तब से पौंड भी चर्चा में है। कल ही एक परिचित से बात हो रही थी, तो वे कहने लगे कि हमारे भारत पर तो ब्रिटिश का शासन था फ़िर हमारे ऊपर यह डॉलर क्यों हावी है, हमारे विनिमय तो पौंड में होना चाहिये। हमने उन्हें समझाया कि डॉलर को विश्व में मानक मुद्रा का दर्जा मिला हुआ है, डॉलर से लड़ने के लिये यूरोपीय देशों ने यूरो मुद्रा की शुरूआत की थी, नहीं तो उन्हें सब जगह डॉलर से उस देश की मुद्रा का विनिमय करना पड़ता था। अब उन्हें यूरो मुद्रा का विनिमय यूरोपीय देशों में नहीं करना पड़ता है।

    डॉलर क्यों पटकनी दे रहा है रूपये को, यह समझने की कोशिश करें तो लुब्बा लुआब यह है कि हमने आयात ज्यादा किया और निर्यात कम किया, याने कि विदेशी मुद्रा जो कि मानक मुद्रा डॉलर है वह हमारे खजाने से ज्यादा गई और मानक मुद्रा डॉलर हमारे खजाने में कम आई, खैर इस बात का ज्यादा मायने भी नहीं है क्योंकि डॉलर हमारे रूपये के मुकाबले अभी ओवररेटेड है, अगर वाकई असली दाम इसका देखा जाये तो लगभग २० रूपये होना चाहिये। और डॉलर अभी तीन गुना ज्यादा दाम पर व्यापार कर रहा है।

Rupees vs USD

USD Vs INR

    हमारी जीडीपी याने कि सकल घरेलू उत्पाद लगातार कम होती जा रही है, हमने पिछले ९ वर्षों में  मान लो कि रत्न आभूषण ५०० अरब डॉलर के आयात किये और लगभग ३५० करोड़ के रत्न आभूषण हमने निर्यात किये तो हमें पिछले ९ वर्षों में लगभग १५० करोड़ का विशुद्ध घाटा हुआ है। इसी प्रकार पेट्रोलियम और गैस में जमकर घाटा हुआ है, कुछ अंदरूनी कलह के कारण और कुछ व्यापारिक प्रतिष्ठानों की जिद के कारण । भारत विश्व में उत्पादित सोने और पेट्रोल के बहुत बड़े भाग  का उपयोग करता है।

    स्वतंत्रता के बाद से भारत का रूपया कभी राजनैतिक कारणों से तो कभी व्यापारिक कारणों से तो कभी आर्थिक नीतियों से मात खाता आया है, हमारे भारत के पास बेहतरीन काम करने वाले लोग हैं, बेहतरीन वैज्ञानिक हैं, पर उन्हें भारत के लिये उपयोग करने के लिये ना ही राजनैतिक इच्छाशक्ति है और ना ही आर्थिक जगत की इच्छाशक्ति है। अगर कुछ और बड़ी कंपनियाँ भारत की बाहर व्यापार करने लगें तो डॉलर की नदियों का मुख भारत की और होगा।

    अधिकतर अंतर्राष्ट्रीय कंपनियाँ अपने लाभ का एक बड़ा हिस्सा मानक मुद्रा याने कि डॉलर में विनिमय कर भेज देती हैं। हम भारतवासियों को भी समझना होगा कि हमें घरेलू उत्पादों का ज्यादा उपयोग करना चाहिये, जिन उत्पादों से डॉलर बाहर जा रहा है, उन उत्पादों को उपयोग करने से बचना चाहिये।

    मुद्रा गिरने से हमारे भारत के आर्थिक हालात बेहद खराब हो सकते हैं, इसका सीधा असर बैंक में बड़े बड़े ऋण पर पड़ेगा, बाहर पढ़ने वाले विद्यार्थियों पर पड़ेगा ये दो बड़े भार होंगे हमारी अर्थव्यवस्था पर, वैसे ही राष्ट्रीयकृत बैंकें ४ % से ज्यादा एन.पी.ए. याने कि जो ऋण डूब चुके हैं, से लड़ रही हैं, और अब यह व्यक्तिगत मुश्किलें बड़ाने वाला दौर होगा, अर्थव्यवस्था पर इसका सीधा असर कुछ ही दिनों में दिखना शुरू हो जायेगा, जब पेट्रोलियम पदार्थों के भाव आसमान छूने लगेंगे तो इसका सीधा असर हमारी दैनिक उपयोग की वस्तुओं पर पड़ते देर नहीं लगेगी। जब रूपया ३३% गिर चुका है तो अब पेट्रोलियम के भाव में ३३% की तेजी का अंदाजा लगा ही सकते हैं। सरकार भी कब तक राजनैतिक कारणों से रूपये के गिरने के कारण महँगाई से जनता को बचा पायेगी, और अगर यह भार जनता पर नहीं डाला गया तो भारत के खजाने पर सीधा असर पड़ेगा।

    हमारा कैश इन्फ़्लो तो उतना ही रहने वाला है वह तो डॉलर के महँगे होने से या रूपये के गिरने से ज्यादा नहीं होने वाला है, तो अब भविष्य के संकेत ठीक नहीं है, जितनी बचत अभी तक कर लेते थे, अब वह बचत भी बहुत कम होने वाली है। अभी भी अगर इस पर नियंत्रण नहीं पाया गया तो रूपये की विनाशलीला देखने के लिये तैयार रहना होगा।