Category Archives: विश्लेषण
आम आदमी बेबस और उसका लक्ष्य !
कल ऑफ़िस से वही देर से आये, रात्रिभोजन और टहलन के पश्चात १० मिनिट टीवी के लिये होते हैं और फ़िर शुभरात्रि का समय हो जाता है। कल जब टीवी देखना शुरू किया तो फ़िल्म “शूल” आ रही थी, और यह मेरी मनपसंदीदा फ़िल्मों में से एक है।
मनपसंदीदा फ़िल्म इसलिये है कि आदमी की बेबसी और उसके द्वारा तय किया गया लक्ष्य कैसे प्राप्त किया गया, इसका बेहतरीन चित्रण है।
आम आदमी बेबस और कमजोर नहीं होता, केवल परिवार के कारण भयभीत होता है, अगर आम आदमी भयभीत होना छोड़ दे तो सारा तंत्र एक दिन में सही हो जाये, परंतु आम आदमी बेबस ठहरा। कहीं भी हो किसी भी तरह की संस्था में हो, गलत का साथ देना या आँख मूँदकर गलत होने देना केवल बेबसी के कारण करता है, अगर गलत का विरोध करेगा तो जितना भय और गलत लोगों से उसे खतरा होगा वह आम आदमी टालना चाहता है।
इसके उदाहरण बहुत सारे हैं, जिन्होंने अपनी जान गँवाई है फ़िर वो किसी एनजीओ के कार्यकर्ता हों या फ़िर पत्रकार या फ़िर और कोई इंजीनियर, ये सब भी बेबस थे परंतु निर्भीक थे और तंत्र से लड़ना चाहते थे, सो तंत्र ने उन्हें गहरी नींद सुला दिया।
लक्ष्य अधिकतर फ़िल्मों में ही मिलता है, क्योंकि आम जीवन में तंत्र इतना प्रभावशील होता है कि उसमें रीटेक की कोई गुंजाईश ही नहीं होती।
बीबी को नई चप्पल
श्रीमतीजी याने की बीबी को नई चप्पल लेनी थी सो बाटा की बड़ी दुकान घर के पास है वहीं जाना हुआ, अब एक बार बड़ी दुकान में घुस जायें तो सारी चीजें न देखें मजा नहीं आता, और खासकर इससे थोड़ी सामान्य ज्ञान में वृद्धि होती है, खरीदें या ना खरीदें वो एक अलग बात है।
चप्पल तो ले ली और हम भी अपने लिये देखने लग गये, वैसे हमेशा यही ऐतराज होता है आते हमारे लिये हैं और खरीददारी खुद के लिये होती है, खैर शिकायतें तो कोई न कोई रहती ही हैं।
जब हम अपने लिये एक सैंडल देख रहे थे तभी एक और व्यक्ति पास में से अपनी पत्नीजी को अंग्रेजी में बोलता हुआ गुजरा “तुम हमेशा मुझे वही चीज खरीदने पर मजबूर करती हो, जो मुझे नहीं खरीदनी है।”, हमारी जबान भी फ़िसल गई “अबे ढ़क्कन खरीदता क्यों है”, अब वो हमारे पीछे ही खड़ा था, और उसे हिन्दी भी समझ आती थी, उसके बाद वो हमें घूरने लगा। अनायास ही अपने एक बुजुर्ग मित्र बात समझ में आने लगी “जो व्यक्ति बीबी से डरता है, वही बाहर शेर बनकर दहाड़ता है, भले ही उसकी दहाड़ में दम हो या ना हो”।
और उधर ही एक विज्ञापन भी याद आ गया पुराना है मगर सबकी जबां पर था – “जो बीबी से करे प्यार वो प्रेस्टीज से कैसे करे इंकार”।
खैर फ़िर हमने उस दुकान में चमड़े के बैग देखे, पॉलिश और बेल्ट देखी, मगर एक निगाह अपने ऊपर घूमती हुई महसूस हुई, जो कुछ बोल नहीं पा रही थी। लगता है कि अपनी टिप्पणी केवल ब्लॉग के लिये है, जीवंत टिप्पणी किसी को अच्छी नहीं लगती है।
आज वैलंटाईन डे है, सबको प्यार भरी शुभकामनाएँ, यह वर्ष प्यार भरा रहे।
गूगल का वैलंटाईन डे पर डूडल देखिये –
रिलायंस डिजिटल – विज्ञापन में लुभावने ऑफ़र और दुकान में ऑफ़र में फ़ेरबदल, जनता के साथ धोखाधड़ी Reliance Digital – Differ offer then Ad in Newspaper in Store
शूक्रवार के टाइम्स ऑफ़ इंडिया का विज्ञापन में लुभावने ऑफ़र को रविवार को देखा, तो रविवार को ही तत्काल टीवी लेने का मन बनाया। ऑफ़र में लिखा था किसी भी सीटीवी के बदले इतनी छूट दी जायेगी, जिसमें कोई स्टार वगैरह नहीं था, और टीवी का ब्रांड भी नहीं लिखा था, तो हमने सोचा कि चलो पास वाले रिलायंस डिजिटल स्टोर पर जाकर पता लगा लिया जाये, पर उससे पहले हमने सोचा कि चलो पहले फ़ोन पर पता कर लेते हैं, तो शायद ज्यादा पता चल जाये और हमने पास वाले स्टोर पर फ़ोन लगाया तो पता लगा कि स्टोर तो १० बजे खुलता है परंतु सेक्शन के स्टॉफ़ ११ बजे तक आते हैं (तो ऐसा लगा कि रिलायंस भी अपने लोगों का कितना ध्यान रखती है, या फ़िर लोग रिलायंस की सुनते नहीं हैं, खैर जो भी है!)।
हमने कमनहल्ली के स्टोर पर फ़ोन लगाया तो किसी ने फ़ोन ही नहीं उठाया तब तो पक्का यकीन हो गया कि रिलायंस अपने लोगों का बहुत ध्यान रखती है, यह फ़ोन लगभग हमने सुबह १०.२५ पर लगाया था, फ़िर हमने ठान ली कि बैंगलोर के हर स्टोर पर फ़ोन लगाकर पता करते हैं, जिससे प्राथमिक जानकारी जुटाई जा सके और तीसरे स्टोर कोरमंगला पर फ़ोन लगाया, यहाँ फ़ोन लगाकर खुशी हुई, जिस गर्मजोशी से यहाँ बात की गई और उत्पाद के बारे में भी प्राथमिक जानकारी प्रदान की गई, लगा कि रिलायंस में अच्छे कर्मचारी भी हैं। (वैसे यह सत्य है कि हरेक कंपनी में कुछ बहुत अच्छे कर्मचारी होते हैं, जो कंपनी का नाम बड़ाते हैं।)
हम वही पास वाले फ़िनिक्स माल के रिलायंस स्टोर गये और LED TV उत्पाद का पूरा निरिक्षण किया, वह LED TV 32 इंच का था और रिलायंस डिजिटल का खुद का ब्रांड था, (रिलायंस के खुद के LED TV Reconnect and ORZ कंपनियों के होते हैं), जिस पर क्रमश: २ एवं १ वर्ष की पूर्ण गारण्टी दी जा रही थी, हमने टीवी पसंद कर लिया और फ़िर खरीदने की बात आई तो जब हमने बताया कि हम इस ऑफ़र के तहत यह LED TV खरीदना चाहते हैं, तो हमें कहा गया कि आप ५ मिनिट का समय दें आपको सारी जानकारी जुटा देते हैं, उन १० मिनिटों में हमने iPhone 4S का निरिक्षण किया।
वह कर्मचारी फ़िर हमारे पास आया और बोला कि ’सर’ यह कंपनी की दूसरी टीम जो कि पुराने टीवी खरीदती है, वह आपके घर पर आकर टीवी देखेगी, हमने कहा कि ठीक है आज दोपहर तक यह भी करवा दो तो शाम को हम टीवी ले लेते हैं, घर पहुँचे दूसरी टीम का फ़ोन आया कि आपका टीवी २१ इंच का है और यह ऑफ़र केवल २९ इंच सीटीवी के लिये है, हमने कहा कि विज्ञापन में तो रिलायंस डिजिटल ने ऐसा कुछ लिखा नहीं है और अगर कभी भी इस तरह की शर्त होती है तो स्टॉर(*) लगाकर जरूर छोटे अक्षरों में लिख दिया जाता है, अगर कुछ लिखा नहीं है इसका मतलब कि आपको कोई भी सीटीवी स्वीकार्य है। परंतु वह कर्मचारी बोला कि ’सर’ यही ऑफ़र है, हमने कर्मचारी की मजबूरी समझते हुए कहा कि हमें अब LED TV लेने में अब कोई रूचि नही है, धन्यवाद।
हमें टीवी अगले दो वर्ष के लिये लेना था तो सोचा कि १९,९०० में 32 इंच LED TV under exchange offer with working CTV में बुरा नहीं है। परंतु रिलायंस डिजिटल विज्ञापने में कुछ और लिखती है और स्टोर पर कुछ और होता है जो कि जनता के साथ खुली धोखाधड़ी है। हम तो अपने पैसे की पूरी कीमत वसूलना जानते हैं, इसलिये अब तय किया गया कि अभी यही टीवी थोड़े दिन और देखी जाये।
प्राकृतिक संसाधनों के लिये जवाबदेही
प्राकृतिक संसाधन क्या होते हैं, जो हमें प्रकृति से मिलते हैं, प्रकृति प्रदत्त होते हैं। हमें इसका उपयोग बहुत ही सावधानीपूर्वक करना चाहिये, परंतु ऐसा होता नहीं है।
इस विषय के संबंध में कल अपने केन्टीन में एक पोस्टर देखा था जिसमें दिखाया गया था कि एक गाजर को तैयार होने में लगभग ६ माह लगते हैं और उसको जमीन से निकालकर पकाने तक मात्र कुछ ही मिनिट लगते हैं, और हम कई बार सलाद या सब्जी फ़ेंक देते हैं, जिसमें केवल कुछ सेकण्ड ही लगते हैं, यह प्राकृतिक संसाधनों का दुरुपयोग ही तो है जिसे केवल जिम्मेदारी से आम व्यक्ति ही रोक सकता है। गाजर तो केवल एक उदाहरण है ऐसी कई वस्तुएँ हैं जिनका हम धड़ल्ले से दुरुपयोग कर रहे हैं।
इसके बाद एक ट्रेनिंग में जाना हुआ जो कि बैंकिंग की थी, उसमें भी बताया गया कि कैसे वित्तीय संस्थाएँ प्राकृतिक संसाधनों को बचाने में अहम योगदान कर रही हैं, जो कि हर राष्ट्र के लिये बहुत ही अहम है, वित्तीय संस्थाएँ एवं नियामक देश की विदेशी मुद्रा को जाने से रोकते हैं, जो कि राष्ट्र के लिये संसाधन है।
आज सुबह अखबार में एक कहानी पढ़ रहे थे जो कि इस प्रकार थी – एक गुरूजी अपने शिष्यों को शिक्षा दिया करते थे और प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के लिये प्रेरित करते थे परंतु शिष्य केवल सुनते थे उस पर अमल नहीं करते थे, एक दिन गुरू जी ने व्रत रखा और शाम को अपने एक शिष्य को कहा व्रत तोड़ने के लिये मुझे नीम की दो पत्तियों की जरूरत है जाओ ले आओ। थोड़ी देर बाद शिष्य आया और उसके हाथ में नीम की पूरी टहनी देखकर गुरूजी रुआंसे हो गये और उन्होंने कहा कि मुझे केवल दो पत्तियों की जरूरत थी पूरी टहनी की नहीं, यह आदेश मैंने तुम्हें दिया था तो इस प्राकृतिक संसाधन के दुरुपयोग का जिम्मेदार में हुआ इसलिये अब इसका प्रायश्चित स्वरूप आज मैं व्रत नहीं तोड़ूँगा। शिष्यों को बहुत दुख हुआ।
काश कि सब प्राकृतिक संसाधनों के प्रति अपनी जवाबदेही समझें। जैसे सब्जी लेने जायें या बाजार कुछ भी समान लेने जायें तो अपने थैले साथ ले जायें जिससे पोलिथीन का कम से कम उपयोग करके हम प्रकृति को नुकसान से बचा सकें।
अब IRCTC की वेबसाईट अच्छा काम कर रही है।
कल काफ़ी दिनों बाद रेल्वे के आरक्षण के लिये IRCTC की वेबसाईट पर जाना हुआ। हालत यह थी की अपना यूजर आई डी और पासवर्ड भी याद करने में काफ़ी समय लगा। खैर IRCTC की वेबसाईट की रफ़्तार पहले जैसी तेज थी, बस जब तत्काल का समय होता है तभी या तो मंद हो जाती थी या फ़िर बंद हो जाती थी। परंतु कल आलम अलग था, हम तो पौने आठ से ही लॉगिन करके बैठे थे, पुरानी आदत जो थी 🙂 अब आदत इतनी जल्दी जाती भी नहीं है।
खैर जैसे ही आठ बजे वैसे ही IRCTC को जोर का झटका लगा और एक Error message हमारे सामने आ गया, सारे अरमान धूमिल होते नजर आये। खैर साथ में हम indianrail.gov.in साईट पर भी सीट की उपलब्ध संख्या पर नजर रखे हुए थे। पहले १८४ सीटें मात्र ३-४ मिनिट में ही खत्म हो लेती थीं परंतु जब कल देखा तो लगभग ८.१० तक मात्र १० सीट ही आरक्षित हुईं थीं। फ़िर भी वेबसाईट मंदगति से चलती रही और आखिरकार आरक्षण हो ही गया।
तत्काल में आरक्षण जब से एक दिन पहले हुआ है तब से लगता है कि सुविधाएँ अच्छी हुई हैं और Quick Book भी 8 – 10 सुबह बंद रहने लगा है, वरना तो पहले Quick Book ही सहारा था। खैर हमारे मित्र बहुत खुश हुए कि आरक्षण मिल गया क्योंकि मुंबई उज्जैन अवंतिका एक्सप्रैस में हमेशा मारा मारी रहती है। हमारे मित्र आज सुबह बाहर से प्रवास करके आज मुंबई लौटे हैं, बड़ी लंबी फ़्लाईट थी, लगभग २० घंटे की, तो कल सुबह उज्जैन पहुँच जायेंगे।
धन्यवाद रेल्वे को जो आम आदमी की उसे याद आई, और IRCTC को भी धन्यवाद कि अपना Infrastructure अच्छा किया जिससे कम से कम वेबसाईट चल रही है।
आठ साल बाद फ़िल्म देखने का असर
वर्षों बाद सिनेमा हॉल में जाना बिल्कुल नया अनुभव लगा, ऐसा लगा कि शायद फ़िल्म देखने सिनेमा पहली बार गये हैं। सिनेमा हॉल बदल गये हैं, सिनेमा हॉल की जगह बदल गई है यहाँ तक की फ़िल्मों में भी बहुत कुछ बदल गया है।
मुझे याद है बचपन से जैसे हर बच्चे को सिनेमा हॉल में जाना एक भिन्न प्रकार का अनुभव होता है और जो आकर्षण सिनेमा हॉल में होता है फ़िल्मों के लिये वह अद्भुत होता है, जो अनुभव मैंने शायद पहली बार किया था, वही अनुभव आज शायद मेरे बेटे ने किया होगा।
मुझे अपने शहरों के सिनेमा हॉल अभी, तक याद हैं, जिनमें में अपने बाल, किशोरावस्था में गया था। पहले साईकिल से जाते थे और साईकिल स्टैंड पर १ रूपये स्टैंड का किराया होता था फ़िर टिकट के लिये लाईन में लगते थे और हमेशा १५ मिनिट पहले टॉकीज जाते थे जिससे वहाँ लगे उस फ़िल्म के सारे पोस्टर और आने वाली फ़िल्मों के पोस्टर इत्मिनान से देख सकें। उन पोस्टरों में पता नहीं क्या होता था पर जो आकर्षण उन पोस्टरों में शायद मेरे लिये था, वह शायद सब के लिये होता था, तभी तो टॉकीज के अंदर लॉबी में भी पोस्टर देखने की इतनी भीड़ होती थी।
टॉकीज जाकर फ़िल्म देखना मित्र समूह में विशेष बात मानी जाती थी, और अपनी कॉलर ऊपर करके उस फ़िल्म के डॉयलाग बोलना हेकड़ी ! वह जमाना ही कुछ और था अब जमाना बदल गया है।
जब छात्र थे तब कोशिश रहती थी कि सबसे आगे की सीट पर बैठें, और कम कीमत में फ़िल्म देखकर पैसे बचाकर अगली फ़िल्म भी देख लें। फ़िर जैसे जैसे बड़े हुए हमारी सीट टॉकीज में पीछे खिसकती गई, पहले फ़र्स्ट फ़िर स्टॉल, फ़िर स्पेशल स्टॉल फ़िर पहली मंजिल पर बालकनी और उसके पीछे बॉक्स कई बार दोस्तों के साथ फ़ैमिली बॉक्स का भी लुत्फ़ उठाया जिसमें सोफ़े हुआ करते थे
कुछ टॉकीज बेहद प्रसिद्ध थे और उस समय तो टॉकीजों में भी अच्छे से अच्छे होने की प्रतियोगिता चलती थी, म.प्र. का सबसे बड़ा टॉकीज होने का गौरव, पहला डॉल्बी साऊँड होने का गौरव या फ़िर म.प्र. में सुविधा के हिसाब से सबसे अच्छा टॉकीज होने का गौरव।
उस जमाने में हमारे शहर में लगभग १० टॉकीज थे, आज पता नहीं कितने हैं, कुछ टॉकीज तोड़कर तो उसमें आधुनिक बाजार बना दिये गये हैं। कुछ टॉकीज ऐसे थे जिनमें जाना हम अपनी शान के खिलाफ़ समझते थे और कुछ टॉकीज ऐसे थे जहाँ केवल अश्लील याने कि एड्ल्ट फ़िल्में ही चला करती थीं, जहाँ जाना मतलब कि अपनी इज्जत की ऐसी तैसी करना। आज भी याद है एक टॉकीज है “मोहन” जिसमें केवल “एडल्ट” फ़िल्में ही लगती थीं, उसमें लगी “जाँबाज” और हम मित्र मंडली के साथ देखने गये और फ़िल्म के बाद बाहर निकले तो दोस्तों के कुछ रिश्तेदारों ने “मोहन” से निकलते देख लिया और जो हंगामा हुआ, वो तो भला हो कि “एडल्ट” नहीं थी, कुछ टॉकीज ऐसे होते थे कि जिसमें जाना और वापिस घर आना रूतबे का का सबब हुआ करता था।
नये दौर का सिनेमा, चाय पकौड़े और समोसे से पॉपकार्न के टोकरे, शीतपेय का जमाना आ गया है। सब बदल गया है, देखने वाले भी बदल गये हैं और दिखने वाले भी।
आखिरी फ़िल्म जयपुर में प्रसिद्ध टॉकीज “राज मंदिर” में “खाकी” देखी थी और कल लगभग ८ वर्ष बाद “अग्निपथ” सिनेमेक्स में देखी।
देखा पापा टीवी पर विज्ञापन देखकर IDBI Life Childsurance Plan लेने का नतीजा, “लास्ट मूमेंट पर डेफ़िनेटली पैसा कम पड़ेगा”।
यह एटिका वेल्थ के ईमेल का अनुवादित स्वरूप है।
जिनका स्लोगन मुझे बहुत ही अच्छा लगता है – “What is good for the client is also good for the firm” – T Rowe Price Jr.
IDBI Federal Childsurance Engineer Advertisment –
आई.टी. वालों का दर्द उनकी ही जबानी..वी नीड यू वेरी अर्जेंटली टैल मी व्हेन यू कैन ज्वॉईन… (Pain of IT guys.. by there own..)
शाम को बस में बैठते लोगों की दिन भर की भड़ास सुनने को मिलती है, अगर दो लोग हैं तो आपस में चिकिर चिकिर और और अगर अकेला है तो फ़ोन पर या फ़िर मन ही मन में पर भड़ास तो निकलती ही रहती है।
कल भी कुछ ऐसा ही हुआ, दो बंदे आई.टी. कंपनी के थे और धड़ाधड़ चिकिर चिकिर कर रहे थे।
यार आज मेरा मैनेजर पूरा माथा खा गया पूरे दो घंटे रेंटिंग पर डिस्कसन कर रहा था, अच्छा भला वर्क फ़्रोम होम कर रहा था, पर ये रेटिंग के डिस्कसन के कारण ऑफ़िस आना पड़ रहा है, जिंदगी में पहले बार २ घंटे का कम्यूटिंग कर रहा हूँ, ऑफ़िस आओ तो काम तो होता नहीं है, मैनेजर से डिस्कसन में ही टाईम निकल जाता है। मुझे बोलता है कि थोड़ी देर बाद फ़िर डिस्कसन के लिये बैठते हैं, मैंने तो कह दिया मेरा एक अर्जेंट कॉनकाल है, मैं नहीं आ पाऊँगा, तो बोलता है कि चलो कल आओगे तो ब्रेन स्टोर्मिंग करेंगे, मैंने तुरत फ़ुरत कह दिया, बोस कल मैं ऑफ़िस नहीं आ रहा हूँ, कल मैं वर्क फ़्रॉम होम कर रहा हूँ। यहाँ ऑफ़िस आकर काम नहीं होता केवल डिस्कसन होता है।
दूसरे ने पूछा डिस्कसन में क्या बोला मैनेजर – तो पहला बोला अरे भाई साल भर की जो ऐसी तैसी करी है, उसकी बाल की खाल खींचते हैं, अगर अच्छा काम करो तो बोलते हैं कि ऐसा करते तो और अच्छा होता और अगर कोई काम समय पर नहीं होता है तो बस बंबू, कैसे भी करके मैनेजर खरीखोटी सुनायेगा। उसे ज्यादा रेटिंग नहीं देना है क्योंकि उसके पास भी टार्गेट होता है और उसके लिये तो उसे बकरा फ़ँसाना ही होता है।
ये अच्छा है कि एक बंदे को हायर करो और फ़िर उसे तीन चार लोगों के वर्कलोड से लोड कर दो और उसकी अच्छी बैंड बजाओ, जब हायर करो तब बोलो कि वी नीड यू वेरी अर्जेंटली टैल मी व्हेन यू कैन ज्वॉईन, तो मैंने उनको बोल दिया था कि आई नीड वन मंथ लीव, आई हैव टू गो माई नैटिव, तो ये बोले थे कि ज्वॉईन कर लो, प्रोजेक्ट लो और नैटिव से ही काम कर लेना, नो नीड टू कम टू ऑफ़िस, मैंने उनको कह दिया सर देयर इस कनेक्टिविटी प्रॉब्लम सो इट विल नॉट बी पॉसिबल।
अब यह हालत है कि ऑफ़िस आओ तो पूरे ५ घंटे बर्बाद होते हैं दिन के, और पर्सनल लाईफ़ की तो बैंड बज गई है। दस बजे ऑफ़िस आओ तो साढ़े दस तक तो सैटल ही हो पाते हैं फ़िर थोड़ा काम करो, और साथ में ऑफ़िस आये हैं तो कुछ कलीग्स मिलने आ जाते हैं, कभी कोई अपनी स्क्रिप्ट की प्रॉब्लम लेकर आ जाता है और कभी अपन किसी के पास डिस्कसन के लिये चले जाते हैं, कब दो बज जाते हैं पता ही नहीं चलता है, फ़िर लंच के लिये चले जाओ और फ़िर आने के बाद छ: बजे तक जितना काम होता है बस उतनी ही प्रोडक्टिविटी होती है, घर से काम करो तो प्रोडक्टिविटी बराबर रहती है।
प्रोजेक्ट मैनेजर को बिल्ड की डिलिवरी हमेशा २ वीक पहले चाहिये होती है और उसके एक वीक पहले से जान खाना शुरू देता है, जब उसको बोलो कि आईपी सेटअप करने में ही एक दिन चला गया था, क्लाईंट की कनेक्टिविटी नहीं थी, तो उसको कोई फ़र्क नहीं पड़ता, बस उसको उसकी डिलीवरी टाईम पर चाहिये, ये नहीं कि क्लाईंट को ब्लैम करके डिलीवरी डेट आगे बढ़ा ले, बस जो काम करे उसकी तबियत बजाओ बैंड, यह तो सोच लिया और दिमाग में सैट हो गया है कि ऐसा ज्यादा दिन नहीं चलने वाला है और जिस दिन अपना दिमाग सटक गया उसी दिन पेपर डाल दूँगा, फ़िर भले ही हाथ में दूसरा ऑफ़र हो या नहीं हो, फ़िर बाद में आई विल सर्च इन मार्केट, लेकिन इनको झेलना मुश्किल है।
बातें तो बहुत सारी हुईं, जितनी याद रही लिख दी, वैसे हर आई.टी. वाले का अपना दर्द होता है जो आई.टी. वाला ही अच्छे से समझ सकता है। वहीं बस के टेप में गाना बज रहा था –
“पहला नशा पहला खुमार,
नया प्यार है नया इंतजार,
कर लूँ मैं क्या अपना हाल ऐ दिले बेकरार….”
वैवाहिक संस्था का बदलता स्वरूप… और युवा पीढ़ी..
सामाजिक बंधन कितने जल्दी दम तोड़ते जा रहे हैं, कल तक जो वैवाहिक संस्था में बहुत खुश थे रोज ही उनके ठहाकों की आवाजें आती थीं और आज वैवाहिक संस्था को चलाने वाले वही दो कर्णधार अलग अलग नजर आ रहे थे, एक फ़्लैट की आगे गैलरी में और दूसरा फ़्लैट की पीछे गैलरी में ।
उनका पारिवारिक जीवन बहुत ही अच्छा चल रहा था और उनको देखकर हमेशा लगता था कि परस्पर इनका बंधन मजबूत हो रहा है, परंतु कल पता नहीं क्या हुआ, दोनों के बीच इतनी बड़ी दूरी देखकर मन बेहद दुखी हुआ । दोनों विषादित नजर आ रहे थे, मुझे तो दोनों की हालत देखकर ही इतना बुरा लग रहा था और वे दोनों तो इन परिस्थितियों से गुजर रहे हैं, कितना विषाद होगा उनके बीच।
पति – पत्नि का संबंध |
कैसा लगता होगा जब उसी साथी को देखने की इच्छा ना हो जो आपका जीवन साथी हो, जिसको प्यार करते हों और साथ जीने मरने की कसमें खायी हों। यह रिश्तों की डोर कितनी पतली और नाजुक है जिस पर आजकल की पीढ़ी सँभल नहीं पा रही है। जितनी तेजी से सामाजिक परिवेश बदल रहा है उतनी तेजी से युवा पीढ़ी में परिपक्वता नहीं बढ़ रही है। केवल कैरियर में अच्छा करना परिपक्वता की निशानी नहीं होता, सामाजिक और पारिवारिक समन्वयन परिपक्वता की निशानी होता है।
पिछले वर्ष से इस वैवाहिक संस्था को मजबूत होता हुआ उनके बीच देख रहा था परंतु आज उसने मुझे झकझोर दिया, महनगरीय संस्कृति में किसी के मामले में बोलना अनुचित होता है, दूसरी भाषा दूसरी संस्कृति भी कई मायने में दूरियाँ बड़ा देती हैं, परंतु आखिर परिस्थितियाँ तो सबकी एक जैसी होती हैं, और विषाद भी, केवल विषाद के कारण अलग अलग होते हैं।
युवा पीढ़ी जिस तेजी से वैवाहिक संस्था को मजबूत बनाती है, एकल परिवार में वह वैवाहिक संस्था छोटी छोटी बातों पर बहुत कमजोर पड़ने लगती है और कई बार इसके अच्छे परिणाम देखने को नहीं मिले हैं, परंतु अगर वही युवा जोड़े में एक भी परिपक्व होता है तो वह वैवाहिक संस्था हमेशा मजबूती से कायम होती है।
आजकल वैवाहिक संस्था में दरार कई जगह देखी है, परंतु उससे ज्यादा मैंने प्यार, मजबूती और रिश्तों में प्रगाढ़ता देखी है। मेरी शुभकामनाएँ हैं युवा पीढ़ी के लिये, वे परिपक्व हों और वैवाहिक संस्था का महत्व समझकर जीवन का अवमूल्यन ना करें।