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मुंबई गाथा.. भाग ३ ये है बॉम्बे मेरी जान (Bombay meri jaan.. Mumbai Part 3)

मुंबई गाथा की सारी किश्तें पढ़ने के लिये यहाँ क्ल्कि करें।

टैक्सी मुंबई  जैसे ही बांद्रा में टैक्सी में बैठे तो टैक्सी ड्राईवर ने हमारा समान जितना डिक्की में आ सकता था उतना डिक्की में रखा और बाकी का ऊपर छत पर स्टैंड पर रखकर रस्सी से बांध दिया। हम लोग २ टैक्सी में थे और टैक्सी में अपनी जगहों पर विराजमान हो चुके थे। फ़िर ड्राईवर ने चलने से पहले टैक्सी का मीटर डाऊन किया, तो टन्न करके आवाज आई, ये आवाज भी जानी पहचानी लगी सब फ़िल्मों का कमाल था, कि अनजाने शहर में बहुत सी चीजें अपनी और जानी पहचानी सी लग रही थीं।

बांद्रा स्टेशन से बाहर निकले तो हमारे वरिष्ठ हमारे बिना बोले हमारी सारी जिज्ञासाओं को शांत कर रहे थे, मानो उन्होंने हमारे मन की बात पढ़ ली हो, कि हम मुंबई के बारे में जानने को उत्सुक हैं। हमारे वरिष्ठ भी इंदौर से ही थे पर वे मुंबई में लगभग २ वर्ष पहले से थे, और मुंबई के बारे में बहुत अच्छा जान चुके थे।

बांद्रा स्टेशन से बाहर निकलते ही झुग्गी झोपड़ियाँ दिख रही थीं, वे बोले कि यह स्लम एरिया है और अभी के दंगों से यह बहुत प्रभावित हुआ था, अब तो फ़िर भी ठीक लग रहा है। यहाँ स्लम में भी जिंदगी बहुत जद्दोजहद की होती है, इन लोगों को जीने के लिये बहुत संघर्ष करने पड़ते हैं। फ़िर मुंबई की सड़कें शुरु हो गईं, हमारे वरिष्ठ बता रहे थे परंतु पहली बार किसी भी शहर में जाओ, सब एकदम नया सा लगता है और एक बार में रास्ते याद भी नहीं होते। मुंबई की कोलतार से लिपटी सड़कों को देखते जा रहे थे, इतनी ऊँची ऊँची इमारतें पहली बार देख रहे थे, ऐसा लग रहा था मानो कि सच में नहीं हम मुंबई का आभासी चलचित्र देख रहे हों और अनुभव कर रहे हों, क्योंकि दिल अभी भी मानने को तैयार ही नहीं था कि अब हम मुंबई में हैं।

शिवाजी पार्क दादर     टैक्सी दादर शिवाजी पार्क की ओर दौड़ी जा रही थी, वहीं हमारा होटल था, हमारे वरिष्ठ बोले कि ये वही शिवाजी पार्क है जहाँ सचिन तेंदुलकर और विनोद कांबली खेला करते थे और अब भी कभी कभी खेलने आते हैं। हम तो बिल्कुल सपने में ही पहुँच गये कि वाह एक तो इतने सारे फ़िल्मी सितारे यहाँ रहते हैं और इतने बड़े बड़े खिलाड़ी भी यहाँ रहते हैं, मुंबई का ह्रदय कितना बड़ा है। मन में इच्छा हो रही थी कि अभी दौड़कर जाऊँ और शिवाजी पार्क में किसी नेट में ढूँढ़कर आऊँ कि शायद कहीं हमारे ये महान खिलाड़ी अभ्यास कर रहे हों।

दादर चौपाटी     शिवाजी पार्क के दूसरी तरफ़ दादर चौपाटी है, हमें पता नहीं था कि दादर चौपाटी क्या है बस हमें इतना बताया गया कि समुंदर का एक किनारा है, क्योंकि हमें तो यह पता था कि चौपाटी दो ही हैं, एक जूहु चौपाटी और गिरगाँव चौपाटी। हमें बताया गया कि शाम के समय दादर चौपाटी थोड़ा संभलकर जाना क्योंकि लहरें तेज होती हैं, पता नहीं कितना सच था, क्योंकि हम दादर चौपाटी जा ही नहीं पाये।

मन में गाना चल रहा था “ऐ दिल है मुश्किल जीना यहाँ, जरा बचके जरा हटके ये है बॉम्बे मेरी जान”, इस गाने को ध्यान से सुनियेगा इसमें बॉम्बे की एक एक खूबी को अच्छे से सम्मिलित किया गया है, जो लोग बम्बई में रहते हैं और जो रह चुके हैं या आ चुके हैं, वे इसे अच्छी तरह से समझेंगे।

जारी..

मुंबई गाथा.. भाग २ मायानगरी मुंबई में .. (Mayanagari Mumbai.. Mumbai Part 2)

    हमारे वरिष्ठ जो हमें लेने आने वाले थे, न हमने उनको देखा था और न ही उन्होंने हमें देखा था, और फ़िर ट्रेन का समय भी बहुत सुबह का था, तड़के ५.३० बजे तो हम भी समझ सकते हैं कि शायद उठने में देरी हो सकती है, मुंबई में वैसे भी एक जगह से दूसरी जगह जाने में बहुत समय लग जाता है।
    ट्रेन बांद्रा पहुँच चुकी थी और लगभग सारे यात्री प्लेटफ़ॉर्म से चले गये थे, हम सभी अपने डिब्बे के पास ही अपना समान प्लेटफ़ॉर्म पर रखकर इंतजार करने लगे, समय बीतता जा रहा था और हम लोगों की चिंता बड़ती ही जा रही थी। जाते जाते हमारे सहयात्री यह भी बोल गये थे कि कम से कम कहाँ जाना है वह पता तो लिया होता। हमें भी अपनी गलती का अहसास हुआ, पर अब क्या कर सकते थे, हम लोगों ने सोच लिया था कि अगर थोड़ी देर और नहीं आते हैं तो एस.टी.डी. से सीधे कंपनी के उसी व्यक्ति से बात करेंगे जिन्होंने हमें नियुक्ती दी थी।
फ़्लॉपी     थोड़ी ही देर में एक लंबा सा व्यक्ति, किसी को ढूँढ़ता हुआ सा लगा जो कि उसी समय प्लेटफ़ॉर्म पर प्रविष्ट हुआ था, और उनके हाथ में १.२ एम.बी. की फ़्लॉपी का डिब्बा था तो हमें लगा कि यह क्म्पयूटर/ सॉफ़्टवेयर से संबंधित ही कोई लगता है, हमने उनको कंपनी का नाम बोलकर पूछा तो वे मुस्करा दिये और बोले कि हाँ मैं आप लोगों को ही लेने आया हूँ। फ़िर वे बोले मैं इसीलिये १.२” फ़्लॉपी बॉक्स लाया क्योंकि इससे तुम लोग आसानी से पहचान पाते। और उन्होंने कहा कि “मुंबई में आपका स्वागत है”। हम खुश थे कि चलो आखिरकार सारे अंदेशे गलत निकले।
    हमने उनको कहा कि हमें लगा कि शायद हमसे गलती हो गई कि हम मुंबई का पता लेकर नहीं आये तो वे बोले अरे चिंता मत करो अब तुम आ गये हो, और हम तुम्हारे साथ हैं, अब यहाँ से सीधा होटल चलना है। फ़िर तैयार होकर १० बजे तक ऑफ़िस चलना है, हम बहुत सारे लोग होटल पर हैं और जल्दी चले जायेंगे, मैं तुम लोगों को लेने वापिस होटल पर आऊँगा तब तक हमारे सर भी आ जायेंगे, और कहाँ कैसे काम करना है वह भी बता देंगे।
    बांद्रा स्टेशन के बाहर निकले तो टैक्सी से हमें जाना था, वही टैक्सी जिसे आजतक रुपहले पर्दे पर देखते आ रहे थे, और आज वह हमारे सामने थी और हम उसमें बैठने का आनंद लेने वाले थे, कितनी ही फ़िल्मों में टैक्सी देखी थी, फ़िल्मों की बदौलत सब जाना पहचाना लग रहा था,  जो जीवन हम अभी तक रुपहले पर्दे पर देखते थे, हम उस जीवन का हिस्सा बनने जा रहे थे।
    टैक्सी, ऑटो, बेस्ट की बसें, डबल डॆकर बसें देखकर तो बस मन प्रफ़ुल्लित हो रहा था, सब सपने जैसा लग रहा था कि जैसे हम रुपहले पर्दे में घुस गये हों और सारी दुनिया हमें देख रही है।
जारी…

मुंबई गाथा.. भाग १ पहली बार मुंबई में .. (First time in Mumbai.. Mumbai Part 1)

    मुंबई मायानगरी है, बचपन से मुंबई के किस्से सुनते आ रहे थे, मुंबई ये है मुंबई वो है, वहाँ फ़िल्में बनती हैं, कुल मिलाकर बचपन की बातों ने जो छाप मन पर छोड़ी थी, उससे मुंबई को जानने की और जाने की उत्कंठा बहुत ही बड़ गयी थी।

उज्जैन रेल्वे स्टेशन     पहली बार मुंबई नौकरी के लिये ही सन १९९६ में आया था, फ़िल्मों में केवल नाम सुने थे, बांद्रा, अंधेरी, दादर, महालक्ष्मी, लोअरपरेल, मुंबई सेंट्रल, प्रभादेवी इत्यादि और मायानगरी में पहुँचकर तो बस जैसे हमारे पैर जमीन पर ही नहीं पड़ रहे थे, जब १९९६ में आये थे तब उज्जैन से अवन्तिका एक्सप्रैस से बांद्रा उतरे थे, हम बहुत सारे दोस्त एक साथ मुंबई आ रहे थे सबके मम्मी पापा ट्रेन पर छोड़ने आये थे और सब समझाईश दे रहे थे, समझदारी से काम लेना बहुत बड़ी जगह है, और भी बहुत सारे निर्देश जो कि अमूमन अभिभावकों द्वारा दिये जाते हैं। उस समय जिस कंपनी ने हमें नियुक्ती दी थी उसके बारे में ज्यादा पता नहीं था परंतु हाँ हमारे कुछ और दोस्त पहले से ही उस कंपनी में कार्य कर रहे थे।

    हमारे मन में भी गजब हलचल थी पहली बार मायानगरी मुंबई जो जा रहे थे, पहली बार जीवन में दरिया याने कि समुंदर के किनारे वाली नगरी में जो  जा रहे थे। हमारी मुंबई जाने की खुशी छिपाये नहीं छिप रही थी, हम बहुत खुश थे, और अपने पालकों द्वारा निर्देशित किये जा चुके थे, ट्रेन उज्जैन से रवाना हुई, उस समय ट्रेन बांद्रा तक आती थी, अब मुंबई सेंट्रल जाती है।
    ट्रेन में कुछ और सहयात्रियों से बातें हुईं, तो हमें थोड़ा सावधानी बरतने की सलाह दी गई कि मुंबई में तो लोग ऐसे ही बुलाते हैं फ़िर हाथ में घोड़ा देकर कहते हैं कि जाओ उसका गेम बजा दो और बस मुंबई में ऐसे ही चलता है। ये सब सुनकर हमारे सबके मन में थोड़ा भय भी घर कर गया था, परंतु हम इतने सारे दोस्त थे इसलिये हिम्मत बंधी हुई थी, और हम सबने आपस में तय भी कर लिया था कि अगर कुछ भी गड़बड़ लगी तो वापिस से आरक्षण करवाकर तुरंत वापसी उज्जैन कर लेंगे।

बांद्रा रेल्वे स्टेशन      हमारे एक वरिष्ठ जो कि पहले से ही मुंबई में थे, वे लेने आयेंगे यह पहले से ही तय था, सबसे बड़ी समस्या थी कि पहचानेंगे कैसे, हमने तय किया कि चाक से ट्रेन के डिब्बे पर नाम लिख देंगे अगर कोई हमें लेने आया और पहचान नहीं पाया,  मोबाईल फ़ोन तो थे नहीं कि झट से पूछ लिया कि हम यहाँ खड़े हैं…

(वैसे हमारे वरिष्ठ जब हमें लेने आये तो हम एक बार में ही पहचान गये बताईये कैसे पहचाना होगा… वे ऐसी क्या चीज साथ में लाये होंगे… कंपनी के नाम की नामपट्टिका नहीं थी..)
 
 

घर का खाना [Home Food]

    घर के खाने का महत्व केवल वही जान सकता है जो घर के बाहर रहता हो, उसके लिये तो घर का खाना अमृत के समान है। और जो घर में रहता है उसके लिये तो घर का खाना “अपने घर की मुर्गी” जैसा होता है, और बाहर का खाना अमृत के समान होता है।

    हम ५-६ दोस्त गेस्ट हाऊस में रहते थे, जिसमें से २ पट्ना के, ३ कोलकाता के और एक हम थे उज्जैन से। पर सभी एक दूसरे को बहुत अच्छे से जानते थे।

    जो पटना वाले मित्र थे उनके लोकल मुंबई में अच्छी दोस्ती थी और कुछ शादीशुदा मित्र भी रहते थे, तो वे मित्र बहुत भाग्यवान थे, और घर के खाने का लुत्फ़ उठाते रहते थे। कभी कभी दूसरे मित्र को भी साथ ले जाते थे।

    एक दिन बड़ी जबरदस्त रोचक घटना हुई कि पहले मित्र बहुत देर से आये तो दूसरे ने पूछा कि आज किधर थे, तो पहले मित्र बोले कि फ़लाने मित्र के यहाँ थाना गया था और “भाईसाब्ब. .. भाभीजी ने क्या जबरदस्त आलू के पराठें बनाये थे, मैं ५-६ पराठें खा गया और साथ में घर का अचार.. अह्हा”, दूसरे का पारा सुनते सुनते ही सातवें आसमान पर पहुँच गया था, फ़िर वो शुरु हुआ, उसके हाथ में गिलास था पहले तो गुस्से में वह फ़ेंककर पहले को मारा और जोर से बोला “अबे, एक तो बिना बताये गये थे, दूसरा हियाँ जला रहे हो कि घर का खाना खाकर आ रहे हो, और वो भी आलू के पराठें, आज हम तुमका छोड़े नाहीं, ससुरा का समझत हो के घर का खाना केवल तुहार ही पसंद हो” और बहुत घमासान हुआ।

तो इस तरह की झड़पें अक्सर दोस्तों में देखने को मिलती रहती हैं।

[हमें पटना की भाषा नहीं आती है, पर कोशिश की है, अगर कोई सुधार हो तो बताईयेगा]

१ रुपये की ओवर बिलिंग याने कि बेस्ट को कितना फ़ायदा ? (The profit of BEST by 1 Rupee over billing)

    आज किसी काम से बाहर गया था, तो बस नंबर २०४ से देना बैंक, कांदिवली से डीमार्ट कांदिवली तक का हमने टिकिट लिया, मास्टर को भी टिकिट कितने का है पता नहीं था, उसने अपना चार्ट देखा और ७ रुपये का टिकिट पकड़ा दिया। हमने भी छुट्टे ७ रुपये दे दिये।
    जगह खाली हुई तो हम सीट पर ठस लिये, फ़िर मास्टर पीछे से चिल्लाते हुए आया किसने टिकिट नहीं लिया है, हमारे आगे की सीट वाला १० का नोट दिखाते हुए बोला, हमें एक टिकिट दीजिये कांदिवली स्टेशन से राजन पाड़ा, मास्टर ने ३ रुपये वापिस दिये तो वह व्यक्ति बोला कि ६ रुपये लगते हैं, मास्टर ने फ़िर से अपने चार्ट में देखा और चुपचाप १ रुपया वापिस कर दिया और ६ रुपये का टिकिट दे दिया। जबकि उस व्यक्ति की यात्रा हमसे ज्यादा बस स्टॉपों की थी, पर हम फ़िर भी चुपचाप रहे कि छोड़ो १ रुपये में क्या होता है, फ़ालतू चिकचिक होगी और दिमाग का भाजीपाला होएंगा।
    हम तो उस व्यक्ति को जागरुक उपभोक्ता ही कहेंगे कि उसने अपना १ रुपया बचाया और चूँकि हमें इस रुट का पता ही नहीं था, इसलिये उसने हमसे १ रुपया ज्यादा ले लिया, पर बेस्ट की बसों में ऐसी कोई व्यवस्था भी नहीं कि आप अपना किराया जान सकें, जैसे कि रेल्वे स्टेशन पर पूरा चार्ट लगा होता है, यात्री किराये की राशि देख सकता है।
    भले ही वह १ रुपया उस मास्टर की जेब में नहीं जा रहा हो, परंतु बेस्ट की जेब में तो जा ही रहा था। ऐसा कई बार होता है जब नया मास्टर नये रुट की बस में चलता है, परंतु इस सबमें यात्री की क्या गलती है। अगर मास्टर नया है तो पहले उसे प्रशिक्षण देना चाहिये तभी बस के नये रुट में भेजना चाहिये, नहीं तो ऐसे ही नये मास्टर लोगों की जेब से १ रुपया ज्यादा निकालते रहेंगे और बेस्ट को फ़ायदा होता रहेगा।

भारत बंद करने से क्या होगा ? जिम्मेदार लोगों को बंद करो ! मैं इसका विरोध करता हूँ !!

    भारत बंद को राजनैतिक दलों ने जनता को अपनी ताकत बताने का हथियार बना दिया है, और टी.वी. पर देखकर ही पता चल रहा था कि राजनीति में अब केवल और केवल गुंडों का ही अस्तित्व है, क्या आम आदमी ऐसा कर सकता है ??

पुतला बनाकर जलाना

टायर जलाना बीच सड़क पर

डंडा लेकर लहराना

इत्यादि

शायद आपका जबाब भी होगा “नहीं”, पर क्यों और ये लोग कौन हैं जो ये सब कर रहे हैं –

    आम आदमी तो बेचारा अपने घर में दुबका बैठा अपनी रोजी रोटी की चिंता कर रहा था और ये बदमाशी करने वाले लोग राजनैतिक दलों के आश्रय प्राप्त लोग हैं, जिन्हें अगर २-४ लठ्ठ पड़ भी गये तो उसकी भी सारी व्यवस्था इन दलों ने कर रखी है। टी.वी. पर फ़ुटेज दिखाये जा रहे थे लोग डंडे खा रहे थे पर बड़े नेता ४-५ पंक्ति पीछे मीडिया को चेहरा दिखा रहे हैं, फ़िर ब्रेकिंग न्यूज भी आ जाती है कि फ़लाने नेता प्रदर्शन करते गिरफ़्तार, सब अपने को बचा रहे हैं, बस भाड़े के आदमी पिट रहे हैं।

    जो राष्ट्र का एक दिन का नुकसान इन दंगाईयों ने किया, उसकी भरपाई कैसे होगी ? जो हम लोगों के कर से खरीदी गई या बनाई गई सार्वजनिक वस्तुओं की तोड़ फ़ोड़ की गई है, उसका हर्जाना क्या ये खुद भरने आयेंगे ? आम आदमी को सरेआम बेईज्जत करना, क्या ये राजनैतिक दलों को शोभा देता है, (जैसा कि टीवी फ़ुटेज में दिखाया गया, बोरिवली में लोकल से उतारकर लोगों को चांटे मारे गये)। तो इन राजनैतिक पार्टियों को बंद का साफ़ साफ़ मतलब समझा देना था। बंद महँगाई के खिलाफ़ नहीं था बंद था अमन के खिलाफ़, बंद था शांति के खिलाफ़, बंद था आम आदमी के खिलाफ़।

    अगर इन राजनैतिक दलों को वाकई काम करना है तो कुछ ऐसा करते जिससे एक दिन के लिये महँगाई कम हो। अपनी गाड़ियों से सब्जियाँ और दूध भिजवाते तो लागत कम होती और आम आदमी को एक दिन के लिये महँगाई से राहत मिलती। ऐसे बहुत से काम हैं जो किये जा सकते हैं, पर इन सबके लिये इनकी अकल नहीं चलती है।

शायद इस बंद का समर्थन हम भी करते अगर इसका कोई फ़ायदा होता, हमारे फ़ायदे –

सब्जी ५०-८० रुपये किलो है वो १०-२० रुपये किलो हो जायें।

दाल १००-१६० रुपये किलो हैं वो ४०-५० रुपये किलो हो जायें।

दूध ३० – ३९ रुपये लीटर है वो १५-२० रुपये लीटर हो जाये।

पानी बताशे १५ रुपये के ६ मिलते हैं, वो ५-६ रुपये के ६ हो जायें। 🙂

    भले ही पेट्रोल, डीजल और गैस के भाव बड़ें वो सहन कर लेंगे पर अगर आम जरुरत की चीजें ही इतनी महँगी होंगी तो जीना ही मुश्किल हो जायेगा, पेट्रोल डीजल नहीं होगा तो सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल किया जा सकता है। सरकार हड़ताल करने वाले राजनैतिक दलों की भी थी और भविष्य में भी आयेगी परंतु क्या इन लोगों ने महँगाई कम करने के लिये कोई कदम उठाया ? नहीं क्यों इसका कारण इनको भारत बंद के पहले जनता को बताना चाहिये था, और ये भी बताना चाहिये था कि सरकार कैसे महँगाई कम कर सकती है ? आखिर ये भी तो सरकार चलाना जानते हैं। कैसे करों को कम किया जा सकता है, कैसे कमाई बढाई जा सकती है, फ़िर ये भारत बंद से क्या हासिल होगा ?   कुछ नहीं बस जनता को अपनी शक्ति प्रदर्शन दिखाने के ढ़ोंग के अलावा और कुछ नहीं है ये भारत बंद ।

“भारत बंद – मैं इसका विरोध करता हूँ”

डॉक्टर इतना नगदी कैसे मैनेज करते होंगे ? बेटा अस्पताल से वापिस घर आया, फ़िर कुछ अनुभव, [Back to Home, My experience]

   २९ जून को रात १० बजे बेटे को अस्पताल में भर्ती करवाने के बाद फ़िर अस्पताल के अनुभव, ओह मन कड़वा हो जाता है।
    बेटा बिना मम्मी के सोता नहीं है, मम्मी से ज्यादा लगाव है तो मम्मी को ही रुकना था हम अस्पताल की कार्यवाही करके घर आकर सो गये। पर बेटा अस्पताल में और हम घर में सो रहे थे तो हमें भी नींद नहीं आयी, सुबह ५ बजे ही नींद खुली हम तैयार होकर फ़िर अस्पताल की ओर दौड़ पड़े। अस्पताल पहुँचकर पता चला कि बेटा और बेटे की मम्मी दोनों ही रातभर सो नहीं पाये, रात को सिलाईन चढ़ने के कारण, हाथ सीधा ही पकड़कर रखना था और बेटे को सिलाईन की आदत तो थी नहीं, तो उसे अजीब सा लग रहा था।
    हमने कहा जाओ तुम घर जाओ और बेटे को मैं देख लूँगा, सो जाओ नहीं तो तबियत खराब हो जायेगी। बेटे की मम्मी भी घर गयी थोड़ी देर सोयी भीं पर ज्यादा नींद नहीं आयी और खाना बनाकर लौट आयीं। हमने कहा कि चलो कोई बात नहीं, इधर ही बेटे के पास सो जाओ।
    किसी तरह दूसरा दिन खत्म हुआ ३ सिलाईन और ४ इंजेक्शन एँटीबायोटिक्स के लग चुके थे। दिन खत्म होते होते तो हमारे बेटेलाल ने चिल्लाना शुरु कर दिया कि हाथ में दर्द हो रहा है जहाँ सिलाईन लगी थी, पर सूजन कहीं भी नहीं थी, हमने कहा कि नाटक मत करो, ये तो होगा ही। घर पर खाना नहीं खाओगे तो सिलाईन से ऊर्जा मिलेगी। अब सोच लो कि घर पर खाना खाना है या ये सिलाईन चढ़वानी है।
    बस कल रात १ जुलाई को अस्पताल से छुट्टी मिल गई, एँटीबायोटिक्स का पूरा कोर्स भी हो गया। उम्मीद है कि अब यह ठीक रहेगा।
    पिछले चिठ्ठे में जो बातें उठायीं थीं वह सब सही निकलीं, हमने ये अनुभव किया कि डॉक्टर इलाज बहुत अच्छा करता है पर जहाँ मरीज को भर्ती करवाने की बात आती है, वह राक्षस जैसा हो जाता है, अब हमने यह निर्णय लिया है कि इलाज तो इन्हीं डॉक्टर के यहाँ करवायेंगे पर अगर कभी फ़िर से भर्ती करने के लिये बोला तो दूसरे डॉक्टर के पास ले जायेंगे। शायद भर्ती करने की जरुरत ही न हो, पर उसकी भूख को शांत करने के लिये केवल हम ही क्यों शिकार बनें ? और जितने भी आसपास के बच्चे के अभिभावक हैं और जिन्हें हम जानते हैं कि ये सब उसी डॉक्टर से इलाज करवाते हैं। उनहें भी जागरुक करने का जिम्मा हमने लिया है, कि जिससे हम थर्ड ओपिनियन नहीं ले पाये पर वो लोग ले पायें।
    जी हाँ थर्ड ओपिनियन, मैंने सबकी टिप्पणियों को पढ़ा और मैं सभी को धन्यवाद ज्ञापित करना चाहूँगा मेरा हौसला अफ़जाई करने के लिये और बेटे के स्वास्थय लाभ के लिये। ये जो था ये सेकंड ओपिनियन ही था और अब आगे से निश्चय किया है कि थोड़ा सा अपना ज्ञान चिकित्सा के क्षैत्र में भी होना चाहिये जिससे कोई बेबकूफ़ न बना सके, क्योंकि जितनी भी डॉक्टरों की दुकान लगी हैं, सब लूटने की ही दुकानें हैं। मैं यह एक जनर्लाइज स्टेटमेंट दे रहा हूँ क्योंकि गेहूँ के साथ तो घुन भी पिसता है।
   अब एक सवाल जो तीन दिन के मंथन के बाद मेरे वित्तीय प्रबंधन वाले मस्तिष्क में घूमड़ रहा है, कि डॉक्टर के पास इतना नगदी आता है, तो यह कैसे मैनेज करते होंगे और अगर इस प्रोफ़ेशनल फ़ीस को आयकर में नहीं दिखाते होंगे तो यह तो काला धन हो गया। फ़िर इसे सफ़ेद कैसे करते होंगे। क्या हमारी सरकार का ऐसा कोई नियंत्रण है जिससे यह काला धन ज्यादा होने से रोका जा सके ?

हमने थोड़े से अतिरिक्त समय में लाभ उठाया और सूर्यकान्त त्रिपाठी “निराला” जी की कविश्री की कविताओं का आनंद लिया।

रपट आ चुकी है कुछ चीजें ठीक नहीं है पर अधिकतर चीजें ठीक हैं, मानवीय संवेदनाएँ मर चुकी हैं…. क्या ??

    आप सभी लोगों ने मुझे इतना संबल दिया मैं तो अभिभूत हो गया इतना प्रेम मिला और आप सभी की दुआओं और आशीर्वाद की बदौलत मैं आज बिल्कुल ठीक महसूस कर रहा हूँ। पाबला जी ने तो फ़ोन पर ही मुझे इतना हँसाया कि मैं तो सोचता ही रह गया कि जिनसे आज तक मिला नहीं, उनसे इतना अच्छा रिश्ता, जरुर यह “राज पिछले जनम का” में ही पता चलेगा, कि सभी ब्लॉगर्स से इतना अपनापन क्यों है।
    कुछ चीजें ठीक नहीं हैं पर अधिकतर चीजें ठीक हैं, मतलब कि अब जो थोड़ी सी समस्या बची है वो भी नियमित दिनचर्या के बीच ठीक हो जायेगी। तो अब सुबह नियमित सुबह घूमने जाना और व्यायाम हम अपनी दिनचर्या में शुरु कर रहे हैं, पोस्टों की संख्या अब कम होने लगेगी, कोशिश करेंगे कि नियमित लिखें और टिपियायें भी। समय प्रबंधन कुछ ओर बेहतर तरीके से करना पड़ेगा। जिससे सभी गतिविधियों के लिये समय निकाल पायें और पर्याप्त समय दे पायें।
मानवीय संवेदनाएँ मर चुकी हैं…. क्या ??
    आज थोड़ी देर के लिये कहीं बाहर गया था बहुत ही व्यस्त मार्ग था, और सभी लोग अपने अपने ऑफ़िस जाने की आपाधापी में भागे जा रहे थे। तभी किसी चारपहिया वाहन ने एक पैदल यात्री को टक्कर जोर की मार दी, पर भगवान की दया से तब भी वह पैदल यात्री बच गया परंतु उसके बाद जो हुआ वह बहुत बुरा हुआ।
    चारपहिया वाहन का चालक ने किसी चीज से उस पैदल व्यक्ति के ऊपर आघात कर दिया और उसके सिर से खून बहने लगा। बस फ़िर क्या था जाम हो गया और वाहनों की दोनों ओर से लाईन लग गयी, कुछ पैदल यात्री उसका साथ देकर चालक को जुतियाने लगे। जब तक हम पहुँचे तब तक केवल जाम था, सब घटित हो चुका था और हमें किसी चलते हुए पैदल यात्री ने सड़क पार करते हुए यह कथा सुनाई। क्या हमारी मानवीय संवेदनाएँ वाकई मर चुकी हैं… क्या ??? हो गया है हमें.. कि दूसरे के खून को देखकर हमें कुछ होता ही नहीं है।

तबियत नासाज हो तो कुछ भी अच्छा नहीं लगता, दो दिन की दास्तां बीमारी में हम और डॉक्टर के चक्कर..

    होली के दिन से तबियत नासाज लगनी शुरु हो गई, फ़िर सोचा कि चलो ये मौसम की मार है परंतु फ़िर भी कुछ ठीक नहीं लग रहा था, फ़िर सोचा कि चलो किसी डॉक्टर को दिखा ही लेते हैं, तो पता चला कि थोड़ा सा रक्तचाप बड़ा हुआ है और हमारे मोटापे पर डॉक्टर भी चिल्ला रहा था, और हम सिर झुकाकर चुप्पा लगाकर उनका भाषण सुन रहे थे हम और कुछ कर भी नहीं सकते थे, क्योंकि गलती तो आखिरकार अपनी ही थी, सो बस चुप्पा लगाके सुनते रहे। कि फ़लाना मत खाओ, धुआं मत उड़ाओ पियो मत हम उन्हें बोले कि खाने का तो ठीक है परंतु धुआं और पीने के मामले में आप गलत हैं। बस फ़िर शुरु हो गये कि रोज ४-५ किमी घूमो नहीं तो परेशानी बड़ जायेगी और अगर वजन हाईट के बराबर हो गया तो समझो कि सारी बीमारियां छूमन्तर, अरे भैया हम तो हैरान परेशान हो गये उनकी बातें सुनकर कि इत्ता सारा वजन कम कैसे करेंगे, तभी वे शुरु हो गये डाईट प्लान ठीक करो, मीठा बंद, घी तेल बंद ये बंद वो बंद हमें लगा कि हम क्यों न अपना कान ही बंद कर लें, ये सब भी सुनना रह गया था जीवन में कि कोई तीसरा व्यक्ति हमारी जिंदगी में भगवान के रुप में एन्ट्री ले और बोलेगा कि ये बंद वो बंद हमारी जिंदगी, हमारे खानपान के सारे निर्णय वो ही लेगा।
    पर अपने पीछे परिवार को देखकर चुपचाप डॉक्टर के आदेशों पर “जी जी” कहकर सम्मानपूर्वक अमल करने के लिये सोच रहे थे। डॉक्टर भी अपने ठेठ अंदाज में बात कर रहा था ऐसा लग रहा था कि अपन अपने ही देश के किसी डॉक्टर को दिखाने आ गये हैं। एक और आदेश सुना दिया गया कि कुछ पेथालॉजी टेस्ट और सोनोग्राफ़ी भी करवायी जाये, १२-१४ घंटे की फ़ास्टिंग करने के बाद, क्या जुल्म ढ़ाया इस जान पर कि बस कुछ पूछिये ही मत, ठीक नहीं लग रहा था तो सोचा कि आराम कर लिया जाये वह ज्यादा बेहतर है ऑफ़िस का काम भी जरुरी था पर स्वास्थ्य को देखकर इससे जरुरी और कुछ नहीं लगा।  शाम को चुपचाप जल्दी खाना खाया और तभी हमारे छोटे भाई थोड़ी देर बाद ही होली की मिठाई जो कि उज्जैन से घर से भेजी गई थी, लेकर प्रकट हुए, पर मिठाई देखकर और फ़ास्टिंग भी करनी है, दुहाई देकर चुपचाप दूसरी ओर देखने लग गये कि उधर जैसे अपना दुश्मन बैठा है। मन तो हो रहा था कि गुझिया और मैसूरपाक भर भर कर खा लें पर तमतमाया हुआ मुस्कराता हुआ चेहरा देखकर हिम्मत नहीं पड़ी। (किसका चेहरा बताने की जरुरत नहीं है, सब समझ गये होंगे)
    सुबह उठकर तैयार होकर अपने बेटे को स्कूल की बस में बिठाकर चल दिये पेथालॉजी टेस्ट के लिये, पेथालॉजी क्या थी एक १ बी.एच.के. के फ़्लेट में व्यापार था, ढ़ेर सारे टेस्ट बताये गये थे, जो कि यूरिन और ब्लड के थे। ब्लड इत्ता सारा निकाला कि बस हम तो धक ही रह गये इत्ता ब्लड तो बनाने के लिये पता नहीं कितना समय लगेगा इसी बीच लेब का दरवाजा खुला और सामने एक वृद्ध सज्जन खड़े थे जिन्हें कुछ काम था, शक्ल जानी पहचानी लगी फ़िर दिमाग पर जोर दिया तो याद आया उन सज्जन का नाम सुधीर दलवी है, जो कि टीवी सीरियल और फ़िल्मों में काम कर चुके हैं।
    फ़िर चले सोनोग्राफ़ी के लिये वो दुकान अलग थी, वहाँ देखा कि पहले से ही अच्छी खासी भीड़ जमा थी, और दरवाजे के बाहर ही लिखा था कि जूते चप्पल बाहर न उतारें और अंदर लेकर आयें। पर हमारे यहाँ की भारतीय जनता उसका उल्टा मतलब ही निकालती है, और सारी जनता अपने जूते चप्पल बाहर उतारकर अंदर आ रही थी, हमें थोड़ा पढ़ा लिखा होने का अहसास सा था सो हम चल दिये अपने सैंडल के साथ अंदर, सभी लोग अपनी घोर आश्चर्यमयी नजरों से हमें घूर घूर कर देख रहे थे, जैसे १४११ बाघ होने के जिम्मेदार हम अकेले ही हैं। हमें बोला गया कि इंतजार करिये हमने पूछा कि कितना समय लगेगा हम घर जाकर पानी पी आते हैं, तो उत्तर मिला कि आप इत्ते बजे आ जाइये, और हम उनका एक खाली पर्चा जिसपर उस लेबनुमा दुकान का फ़ोन नंबर लिखा था लेकर अपने घर की ओर चल दिये। सोचते हुए कि यही अगर उज्जैन होता तो कितना समय लगता और मिन्नत अलग करना पड़ती, मुंबई में तो हरेक चीज फ़ोन पर ही मिल जाती है, शायद सबको समय की कीमत पता होगी। सब्जी से लेकर किराना, आईसक्रीम, दूध और भी जाने क्या क्या सब फ़ोन करो ओर हाजिर, उज्जैन में तो ये सब सोचना सपना जैसा ही लगता है।
    जब सोनोग्राफ़ी की दुकान पर वापिस पहुंचे तो देखा कि भीड़ और भी ज्यादा बड़ी हुई थी, हमने पूछा कि हमारा नंबर कितनी देर में आयेगा, उत्तर मिला कि बस आने ही वाला है हम वहीं एक बेंच पर जगह तलाशकर बैठ गये और इंतजार करने लगे अपने नंबर के आने का, इसी बीच जितने मरीज उतने घटनाक्रम देखने को मिल रहे थे, और सोच रहे थे कि सबकी अपनी अपनी राम कहानी है पर दुकान वालों को तो इसकी आदत पड़ गयी है।  कोई चाल का रहने वाला था तो कोई ब्लेकबैरी मोबाईल का उपयोग करनेवाला, शायद भगवान के दर के बाद ये ही एक ऐसा दर है जहाँ अमीरी गरीबी का अंतर नहीं रह जाता है। पर सब जगह ऐसा नहीं है। 
    जब हमारा नंबर आया तो लेडी डॉक्टर जो सुंदर भी थीं, और अधेड़ थीं, और बैकग्राऊँड में पुराने सदाबहार गाने चल रहे थे, “तेरा प्यार है तो फ़िर क्या कमी है….” अब अपना सामान्य ज्ञान गाने में बहुत कमजोर है इसलिये अपने को पता ही नहीं किसने गाया और कब कौन सी फ़िल्म के लिये गाया। और वो डॉक्टर चुपचाप हमारे ऊपर सोनोग्राफ़ी करने लगी और हम सामने वाले मानिटर में होने वाली गतिविधियों को समझने वाली दृष्टि से देखने लगे, समझ में नहीं आया ये अलग बात है, पर हम डॉक्टर के कम्पयूटर ज्ञान को देखकर आनंदित हो गये, उनका कम्पयूटर थोड़ा अलग किस्म का था और वो फ़टाफ़ट हाथ चला रहीं थीं, बिल्कुल माहिर हों जैसे, खैर माहिर तो होंगी ही उनका व्यापार ही वही था। पूरे पेट पर मशीन घुमाघुमाकर देखने के बाद हमें बोला गया कि हो गया शाम को आकर रिपोर्ट ले जाइयेगा। तभी हमने डॉक्टर से पूछ लिया कि “Anything Serious ?” तो वो बोलीं “Its like ok…” तो समझ में आ गया कि पेथालॉजी वाले डॉक्टर से पूछो तो हमेशा ऐसा ही जबाब मिलता है, असल में तो अपना डॉक्टर ही बतायेगा कि क्या समस्या है। बस अब शाम का इंतजार कर रहे हैं, रिपोर्ट के लिये…।

एन.सी.सी. के साथ गणतंत्र दिवस की कुछ यादें जो हमेशा रहेंगी पर क्या नयी पीढ़ी इस महत्व को समझ पायेगी या इसे केवल छुट्टी ही मानेगी मौज मस्ती के लिये… (My unforgettable experience on Republic Day with NCC)

    जब हम कॉलेज में पढ़ते थे तो साथ में एन.सी.सी. में भी थे और उस समय मिलेट्री का जुनून था, कि बस कैसे भी करके मिलेट्री में जाने का मौका मिल जाये, पर नहीं जा पाये। पर जितना हम एन.सी.सी. में कर सकते थे उतना किया।

    मैं एन.सी.सी. में अपने कॉलेज का सीनियर अंडर ऑफ़िसर था और मुझे शुरु से ही अनुशासन पसंद था इसलिये मुझे एन.सी.सी. में मजा भी बहुत आता था, गणतंत्र दिवस आने के पहले ही हम लोग अपनी ड्रिल का जबरदस्त अभ्यास करते थे, वैसे तो ड्रिल हर सप्ताह दो दिन होती थी, पर गणतंत्र दिवस का मौका विशेष होता था, क्योंकि वह जिले के परेड ग्राऊँड पर होता था और हम हमारी प्लाटून का नैतृत्व करते थे। हालांकि यह मौका हमें केवल दो बार मिला गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस पर आज भी हमारा सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है जब हम उन दिनों को याद करते हैं। पुलिस बैंड के साथ कदम से कदम मिलाते हुए कम से कम १० दिन अभ्यास करना पड़ता था और एक दिन पहले मोक ड्रिल होती थी, पूरे दो घंटे का कार्यक्रम होता था, जिसमें पूरे जिले के गणमान्य लोग और स्कूल के बच्चे और जिले के लोग आते थे।

    हम अपने अभिभावकों को भी बुलाया करते थे कि आईये देखिये आपका बेटा एक प्लाटून का नैतृत्व कर रहा है, जिले के परेड ग्राऊँड में। हमें टू नॉट टू बंदूकें दी जाती थीं जिसे लेकर हम परेड ग्राऊँड में परेड करते थे और सलामी देते थे। अपनी ड्रेस को चरक करते थे, जितने भी केम्प हमने किये थे सब के बैज अपने सीने पर सजा लेते थे, बैल्ट भी पोलिश की हुई होती थी, टोपी का बैज धातु चमकाने की पोलिश से चमकाते थे,  जूते बिल्कुल ऐसे पॉलिश करते थे जिसमें अपना मुँह तक देख पायें (हमारे हवलदार की भाषा में जो कि मिलिट्री से होते थे)।

    हम परेड ग्राऊँड पर जाकर खड़े हो जाते थे, पहले परेड के अतिथि परेड का निरिक्षण करते थे जिसमें कौन सा प्लाटून किसका है और उसे कौन नैतृत्व कर रहा है, बताया जाता था,  फ़िर सलामी होती थी और फ़िर राष्ट्रीय गान और फ़िर ड्रिल जिसमें मुख्य मंच के सामने से अतिथि को और राष्ट्रीय ध्वज को सलामी सम्मान देते हुए निकलते थे।

    आज भी वो दिन याद करते हैं तो हमारी आँखें चमक उठती हैं, सीने में देशभक्ति की ज्वाला जलने लगती है। अफ़सोस कि हम मिलिट्रि में न जा पाये।

    पर हम तक तो ठीक था, पर अब आज की भावी पीढ़ी, भविष्य के कर्णधारों को इस बात का कैसे अहसास होगा पता नहीं, वे अपने देश के लिये कभी भक्त भी बनेंगे या नहीं, क्योंकि देशभक्ति एक जज्बा होता है जो कि एक समूह से आता है, न कि घर पर बैठकर टी.वी. और चैट करने से।

    देशभक्ति के कार्यक्रमों में शामिल होना पड़ता है नहीं तो भावी पीढ़ी के लिये तो मौज मस्ती के लिये छुट्टी से ज्यादा कुछ नहीं है हमारे गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस।

    आप बतायें कि आप आखिरी बार कब परेड ग्राऊँड पर गये और अपने बच्चों को लेकर कब गये। या घर पर रहते हैं तो टी.वी. पर भी देखना पसंद नहीं करते हैं।