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बैंगलोर का भारी पानी और बिना मतलब का एक्वागार्ड (Hard Water and Aquaguard Fail…)

बैंगलोर में आकर बहुत सारा सामान्य ज्ञान बढ़ा, जिसमें से एक है हार्ड वाटर याने कि भारी पानी।
    मुंबई से बैंगलोर शिफ़्ट होने के बाद अपना एक्वागार्ड लगवाने का समय नहीं मिल पाया, एक प्लंबर को बुलाकर एक्वागार्ड संस्थापित तो करवा लिया, परंतु मुंबई से परिवहन के दौरान उसमें कुछ समस्या हो गई थी इसलिये वह शुरु ही नहीं हो रहा था। एक्वागार्ड के ग्राहक सेवा केन्द्र को फ़ोन लगाकर अपनी शिकायत भी दर्ज करवाई, जब ७ दिन तक एक्वागार्ड वाला नहीं आया तो वापिस से उनको फ़ोन करके कहा कि बैंगलोर में क्या सारी कंपनियाँ ऐसी ही हैं, जो कि अपने ग्राहकों का ध्यान नहीं रखती हैं। तो हमें कहा गया कि ठीक करने वाला बंदा २ दिन में पहुँच जायेगा। खैर हम तो एक्वागार्ड की घटिया सेवा से परेशान हो चुके थे।
    इसी दौरान एक सुबह एक्वागार्ड बेचने वाले ने हमारे घर पर दस्तक दी, तो हमने पहले पूछा कि ठीक करने आये हो, उसने जबाब दिया “नहीं”, हम तो बेचने आये हैं, पहले तो हमने जबरदस्त फ़टकार लगाई कि क्या ग्राहकों को सेवाएँ देते हो, ७ दिन पूरे होने के बाबजूद अभी तक कोई ठीक करने नहीं आया, क्या बकबास कंपनी है, और भी बहुत कुछ उसे गरिया दिया।
    पर वह भी पक्का बेचनेवाला था, बोला कि अगर आप इजाजत दें तो मैं आपके यहाँ का पानी जाँच लूँ, मैंने कहा कि चलो भई देख लो, क्योंकि हमने भी सुना था कि यहाँ बैंगलोर का पानी भारी है। उसने जाँच की और हमें बताया कि देखिये ४८५ है और बिसलरी का ७२, पीने लायक पानी होता है ५०-१०० अब क्या मानदण्ड होता है, पता नहीं । उससे हमने पूछा कि भारी पानी पीने से क्या नुक्सान होता है वह हमें बता नहीं पाया पर बोला कि RO वाला मॉडल आपको खरीदना होगा तभी यह भारी पानी पीने लायक होगा, हमने कहा अभी तो हम बिसलरी पी रहे हैं, पर जल्दी ही कुछ तो लेना ही होगा अगर हमारा साधारण एक्वागार्ड काम नहीं आयेगा।
    उस समय हमारे पास इंटरनेट था नहीं, और ऑफ़िस में थोड़ा बहुत पढ़ा तो सब सिर के ऊपर से निकल गया, तो पास के एक मॉल में गये जहाँ Water purifier के सभी कंपनियों के उत्पाद थे, हमने पहले उससे कहा कि पहले हमें जानकारी दीजिये कि भारी पानी से क्या होता है, तो वह भी हमें केवल इतना ही बता पाया कि जब बहुत प्यास लगती है तभी पी पायेंगे, ज्यादा पानी पीने की इच्छा नहीं होगी। नुक्सान कुछ भी नहीं है। हमें वहाँ व्हर्लपूल कंपनी का RO वाला उत्पाद अच्छा लगा, और हम तय कर चुके हैं कि एक्वागार्ड जैसी घटिया ग्राहक सेवा देने वाली कंपनी से तो उनका उत्पाद नहीं खरीदेंगे वह भी कम से कम बैंगलोर में तो बिल्कुल नहीं।
    अगर आप में से किसी के पास इस बारे में जानकारी हो तो लिंक साझा करें या फ़िर टिप्पणी में ज्ञान प्रदान करें, तो हम नया RO Water Purifier ले पायें।
१. भारी पानी के नुक्सान क्या हैं ?
२. RO वाला कौन सा Water purifier लें ?
३. भारी पानी के उपचार के और कौन से तरीके हैं ?

ब्लॉगरी में भी विकृत मानसिकता… (Blogger’s Distorted mindset..)

    विकृत मानसिकता जिसे मैं साधारण शब्दों में कहता हूँ मानसिक दिवालियापन या पागलपन, वैसे विकृत मानसिकता के लिये कोई अधिकृत पैमाना नहीं है, अनपढ़ और पढ़ेलिखे समझदार कोई भी हो जरूरी नहीं है कि उनकी मानसिकता विकृत नहीं हो।

    और ऐसे ही कुछ उदाहरण मैंने हिन्दी ब्लॉगजगत में देखे पोस्ट पढ़कर पहली बार में ही विकृत मानसिकता का दर्जा मैंने दे दिया। अब यहाँ ब्लॉगर भी बहुत पढ़े लिखे हैं, और जिनके पास बड़ी बड़ी डिग्री है, वे हिन्दी ब्लॉगिंग की प्रगति में महति योगदान निभाने में अपनी जीवन ऊर्जा लगा रहे हैं। धन्य हैं वे ब्लॉगवीर और वीरांगनाएँ जो यह सोचते हैं कि वे हिन्दी लिख रहे हैं तो हिन्दी समृद्ध हो रही है, वाह ब्लॉगरी विकृत मानसिकता।

    जितना समय दूसरे ब्लॉगर की टांग खींचने उनकी टिप्पणियों में अनर्गल पोस्ट लिखने में लगा रहे हैं उतना समय अगर किसी अच्छे विषय पर या अपनी दिनचर्या से कोई एक अच्छा सा पल लिखने में लगाते तो शायद उससे पाठक ज्यादा आकर्षित होते। परंतु कैसे स्टॉर ब्लॉगर बनें और कैसे ब्लॉगरों की टाँग खींचे ये सब प्रपंच कोई इन विकृत मानसिकता वाले ब्लॉगर्स से सीखें।

    अपन तो अपने में ही मगन हैं, किसी की दो और दो चार में अपना कोई योगदान नहीं है, फ़िर भले ही वे दो और दो पाँच ही क्यों हो रहे हों, पर फ़िर भी पढ़े लिखों की विकृत मानसिकता नहीं देखते बनती। इससे अच्छा है कि … (अब भला मैं ये क्यों लिखूँ, वे खुद ही समझ लें।)

क्या फ़िर से इस भारत को आजाद करवाना होगा ? (Freedom of India… ?)

    वैसे मैं फ़िल्म वगैराह देखने में अपना समय नष्ट करना उचित नहीं समझता हूँ परंतु “खेलें हम जी जान से” की इतनी चर्चा सुनी थी, कि फ़टाफ़ट से टोरन्ट से डाऊनलोड किया और देखने लगे। ये फ़िल्म भी हम कल रात को ३ दिन में पूरी कर पाये हैं, एक साथ इतना समय निकालना और इतना ध्यान से देखना शायद अपने बस की बात नहीं है।

    फ़िल्म इतनी अच्छी लगी कि शायद ही इसके पहले स्वतंत्रता की पृष्ठभूमि पर इस अंदाज में फ़िल्मांकन किया होगा। यह फ़िल्म बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है, हमें आजादी दिलाने वाले नौजवानों ने अपना खून बहाया है (पानी या पसीना नहीं)।

आजादी     हम इस आजादी का नाजायज लाभ उठा रहे हैं, क्या इसी आजादी के लिये क्रांतिकारियों ने अपनी शहादत दी थी, अगर उन्हें पता होता कि आजादी के बाद ये सब होगा तो शायद ही उनके मन में भारत माता के आत्मसम्मान को जागृत करने की बात आती। शहीदों को नमन जिन्होंने हम भारतवासियों को इतनी गुंडागर्दी, भ्रष्टाचारी और भी न जाने क्या क्या वाली सरकार दी, दिल रो रहा है यह सब लिखते हुए, क्या फ़िर से इस भारत को आजाद करवाना होगा ?

    क्या भारत माता का आत्मसम्मान खो गया है, क्या हम क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों की शहादत का बदला इतने बड़े बड़े कांड़ों को झेलकर और करके चुका रहे हैं।

    क्यों न वापिस से ऐसी ही एक क्रांति का जन्म हो जिसमें इन कांडों को करने वाले हरेक शख्स को खत्म कर दिया जाये और फ़िर से भारत माता के सम्मान को वापिस लाया जाये। अगर वाकई हमें अपना देश बचाना है तो ऐसी ही किसी क्रांति की जरुरत है, सजा तो इनको देनी ही होगी। क्योंकि अब ये लोग इतने बेशरम हो गये हैं कि ये न कलम की तलवार से डरते हैं और न ही भारत माता के सपूतों से ।

    बताईये क्या करना चाहिये ….. क्या क्रांति की बात गलत है… फ़िर से हमें भारतमाता के आत्मसम्मान को पाने के लिये क्रांति की अलख जगानी होगी।

वन्दे मातरम !! जय हिन्द !!

१ रुपये की ओवर बिलिंग याने कि बेस्ट को कितना फ़ायदा ? (The profit of BEST by 1 Rupee over billing)

    आज किसी काम से बाहर गया था, तो बस नंबर २०४ से देना बैंक, कांदिवली से डीमार्ट कांदिवली तक का हमने टिकिट लिया, मास्टर को भी टिकिट कितने का है पता नहीं था, उसने अपना चार्ट देखा और ७ रुपये का टिकिट पकड़ा दिया। हमने भी छुट्टे ७ रुपये दे दिये।
    जगह खाली हुई तो हम सीट पर ठस लिये, फ़िर मास्टर पीछे से चिल्लाते हुए आया किसने टिकिट नहीं लिया है, हमारे आगे की सीट वाला १० का नोट दिखाते हुए बोला, हमें एक टिकिट दीजिये कांदिवली स्टेशन से राजन पाड़ा, मास्टर ने ३ रुपये वापिस दिये तो वह व्यक्ति बोला कि ६ रुपये लगते हैं, मास्टर ने फ़िर से अपने चार्ट में देखा और चुपचाप १ रुपया वापिस कर दिया और ६ रुपये का टिकिट दे दिया। जबकि उस व्यक्ति की यात्रा हमसे ज्यादा बस स्टॉपों की थी, पर हम फ़िर भी चुपचाप रहे कि छोड़ो १ रुपये में क्या होता है, फ़ालतू चिकचिक होगी और दिमाग का भाजीपाला होएंगा।
    हम तो उस व्यक्ति को जागरुक उपभोक्ता ही कहेंगे कि उसने अपना १ रुपया बचाया और चूँकि हमें इस रुट का पता ही नहीं था, इसलिये उसने हमसे १ रुपया ज्यादा ले लिया, पर बेस्ट की बसों में ऐसी कोई व्यवस्था भी नहीं कि आप अपना किराया जान सकें, जैसे कि रेल्वे स्टेशन पर पूरा चार्ट लगा होता है, यात्री किराये की राशि देख सकता है।
    भले ही वह १ रुपया उस मास्टर की जेब में नहीं जा रहा हो, परंतु बेस्ट की जेब में तो जा ही रहा था। ऐसा कई बार होता है जब नया मास्टर नये रुट की बस में चलता है, परंतु इस सबमें यात्री की क्या गलती है। अगर मास्टर नया है तो पहले उसे प्रशिक्षण देना चाहिये तभी बस के नये रुट में भेजना चाहिये, नहीं तो ऐसे ही नये मास्टर लोगों की जेब से १ रुपया ज्यादा निकालते रहेंगे और बेस्ट को फ़ायदा होता रहेगा।

कौन से मूवर्स पैकर्स की सेवायें ली जायें, मुझे अब मुंबई से १२०० किमी दूर जाना है। (Movers n packers services)

   मुझे अगले महीने के मध्य में मुंबई से १२०० कि.मी. दूर अपना समान स्थानांतरण करना है, और इतने सारे मूवर्स एन्ड पैकर्स से पूछा और गूगल के जरिये खोज भी की, तो और भी सांसत में आ गये।

    हमने तकरीबन ५ मूवर्स एन्ड पैकर्स से बात की और कोटेशन लिया पर सबकी शिकायतें हैं, अब समझ में नहीं आ रहा कि क्या करें और किस की सेवा का उपयोग करें।

अभी तक जिनको बुलाया है वे इस प्रकार हैं –

1. Safe Movers & Packers

2. Sahara Movers & Packers

3. Agarwal Movers & Packers, Hyderabad

4. Agarwal Movers & Packers Pvt. Ltd., (Delhi)

सबसे सस्ता पहला वाला है और सबसे महँगा आखिरी चौथा वाला है।

    और किस तरह से समान को स्थानांतरित किया जा सकता है, यह भी बताईयेगा। बस जरा जल्दी ….।

IFFI गोवा में बीयर २५ रुपये की और चाय ५८ रुपये की वाह !

    आज सुबह अखबार के एक कोने में खबर थी कि A glass of beer is cheaper than a cup of tea at IFFI in Goa | अब बताईये चाय ५८ रुपये की और ठंडी बीयर का गिलास २५ रुपये में, क्या जमाना आ गया है।

बीयर गिलास भरचाय      आयोजक कहते हैं कि अगर चाय पीने वालों को चाय महँगी लग रही है तो वे सड़क पार कर स्थानीय ढाबे पर चाय पी सकते हैं। अब भई जो बीयर के शौकीन होंगे तो वे भला क्यों इतनी महँगी चाय पियेंगे। उससे अच्छा है कि दो गिलास ठंडी बीयर पियें और फ़िल्म फ़ेस्टिवल आयोजन का मजा लें।

    क्यों अविनाश जी सही कह रहे हैं न हम, अब बाकी तो आप ही बतायेंगे कि कौन से स्टॉल पर ज्यादा भीड़ थी, चाय के या बीयर के।

पारंपरिक शिक्षा के परिवेश से कैसे मुक्ति पायें और संवेदनशील मनों को कैसे समझें..[Child Education ???]

विद्यालयों में सजा देना कितना उचित ? कल की पोस्ट पर जो प्रतिक्रियाएँ आईं पर व्यस्त होने के कारण बात को आगे नहीं ले जा पाया। इसलिये चर्चा को आगे बड़ा रहा हूँ।

 

एस.एम.मासूम said…
अध्यापक भी बहुत बार घर के झगड़ों या कभी कभी अपनी किसी ना कामयाबी का गुस्सा छात्रों पे निकलते हैं. इसके लिए अभिभावकों को जागरूक होना पड़ेगा. अच्छा विषय चुना है.

बिल्कुल सही है, केवल अध्यापक ही क्या ये तो हर कहीं की कहानी है, अगर किसी का मूड खराब हो तो समझ जायें कि आज घर पर झगड़ा करके आये हैं। अभिभावकों को जागरुक होना ही पड़ेगा, ऐसा न हो कि बहुत देर हो जाये।
Suresh Chiplunkar said…
क्या बेईज्जती करवाने जाऊँ“? क्या अध्यापक के मारने या डांटने से बेइज्जती हो जाती है? हमने तो बहुत मार खाई स्कूल में, कभी ऐसा नहीं लगा… 🙂 फ़िर नई पीढ़ी अध्यापक की मारके प्रति इतनी संवेदनशील क्यों है? ========= मैं अध्यापक द्वारा हल्की मारके पक्ष में हूं…। हल्की मार का स्तर = बच्चे को कोई स्थाई शारीरिक नुकसान न हो।
जी सुरेश जी, आजकल के बच्चे बहुत ही ज्यादा संवेदनशील हैं, अध्यापक के मारने या डांटने से अपनी इज्जत का प्रश्न जुड़ा हुआ मानते हैं, हमारा जमाना और था, उस समय ये बुद्धु बक्सा नहीं था, कि हम जीवन के इतने पहलुओं से परिचित हो सकें, हम इन सब पहलुओं से धीरे धीरे रुबरु हुए हैं, पर आजकल के बच्चों को जीवन के ये अनुभव बुद्धु बक्से पर बहुत आसानी से मिल जाते हैं, आप ऐसी ऐसी बातें बच्चों से सुन सकते हैं, और आपको उन बातों पर यकीन करने का मन भी नहीं होगा कि बच्चों को यह भी पता है। इसलिये यह पीढ़ी बहुत ही संवेदनशील है, और आगे आने वाली पीढ़ी तो और भी ज्यादा होगी क्योंकि इंटरनेट तेजी से पैर पसार रहा है, और बच्चों के लिये जानकारी की दुनिया के द्वार खुल गये हैं।
अध्यापक द्वारा हल्की मार का प्रश्न ही नहीं है यहाँ तो मार मतलब केवल मार होती है, वो स्थाई शारीरिक नुक्सान हो या नहीं, क्योंकि यह उनके कोमल मन पर सीधी असर करती है। स्थाई शारीरिक नुक्सान की स्थिती में तो यह आज क्रिमिनिल केस बन जायेगा।
शिक्षातन्त्र का त्यक्त पक्ष, विद्यार्थी पलायनवादी क्यों बने?
शिक्षातन्त्र से बहुत जल्दी ही इस मारपीट या बेईज्जती वाली बातों को हटाना होगा, नहीं तो पलायन अवश्यमभावी है।
मैं तो अभी भी अपने शिक्षक का आभारी हूं जो मुझे नियमित रूप से दोदो थप्पड़ लगाते थेनमन उन्हें.. लेकिन क्रूर नहीं थे..
मैं भी अपने शिक्षकों को नमन करता हूँ, क्योंकि वे हमारे हित में हमें सजा देते थे, और शिक्षक की सजा क्रूर कभी होती भी नहीं है, सजा का मतलब केवल इतना समझाना भर होता था कि जो किया है गलत किया है, आगे से ऐसी गलती न हो। पर उस समय हमारे पास जानकारी के इतने साधन मौजूद नहीं थे जितने आज हैं। इसलिये अब यह पारंपरिक शिक्षा पद्धति बदलने की जरुरत महसूस होने लगी है।
मैं तो अपने बच्चों के स्कूल में खुद कहकर आया हूँ कि इन्हें होमवर्क ना करने या गलती करने पर थोडी सजा भी दिया करें। लेकिन वहां देते ही नहीं हैं। आपके बच्चे के ये शब्द चिंतनीय हैं, स्कूल में जाकर पता करें। उसने ऐसा क्यों कहा। प्यार से बारबार पूछने की कोशिश करें। प्रणाम
सजा देना गलत नहीं है, सजा देने का तरीका गलत होता है, जो बात बच्चों को प्यार से समझायी जा सकती है, जरुरी नहीं किस उसे पारंपरिक तरीके से ही समझाई जाये।
बच्चे के शब्दों को मैंने बहुत गंभीरता से लिया और पूरी पड़ताल कर ली है, अब इतनी चिंता की कोई बात नहीं है।

थोड़ी बहुत सजा तो अनिवार्य है पर इतनी न हो के बच्चा भयभीत रहे। इससे उसके मानसिक विकास पर भी असर पड़ता है। शिक्षकों में मानवता का अभाव भी चिंतनीय है। विषय अच्छा है। गंभीर चर्चा मांगता है।

सजा अनिवार्य है, अगर सजा नहीं होगी तो बलपूर्वक हम किसी गलत बात को उनसे रोकने के लिये कह भी नहीं सकते हैं, बस सजा के पारंपरिक तरीकों से आपत्ति है।

Rahul Khare said…
नमस्कार विवेक जी, ये मेरा प्रथम प्रयास है, अगर कोइ गल्ती हो तो माफ़ करे । आप ने जो विषय चयनित किया है वह काफ़ी महत्वपूर्ण है,और मेरा मानना है कि हम सब को मिल जुल कर इस के खिलाफ़ एक आंदोलन की शुरुआत करनी चाहिये। बच्चे बहुत कोमल दिल वाले होते है और शारीरिक रुप से कोइ भी सज़ा उनके मन मे काफ़ी गहराई से जाती है, जो उनका ना केवल शैक्षिक बल्कि मानसिक विकास भी बाधित करती है। अगर कोइ गलती हुई भी है तो भी किसी भी शिक्षक द्वारा बच्चे को शारीरिक रुप से कोइ भी सज़ा देने की कोइ शैली होनी ही नही चहिये। यहा विदेश मे शिक्षक द्वारा बच्चे को शारीरिक दंड देना अपराध है और मेरा मानना है कि अगर हम सब मिल कर प्रयास करे तो ये हमारे अपने देश मै भी मुमकिन है। यहा शिक्षक बच्चे को शारीरिक दंड की जगह उसे अलग अलग तरीको से किसी काम को सही तरह से करना सिखाते है और सुनिश्चित करते है कि वो गल्ती फिर से न हो।

धन्यवाद राहुल, अखिरकार आपने हिन्दी में लिखना शुरु किया और पहली टिप्पणी दी, आंदोलन की शुरुआत की जरुरत तो है पर किस दिशा में यह भी तय किया जाना चाहिये।
सजा का मकसद ही यह होता है कि गलती वापस न हो या बच्चे को पता चले कि जो उसने किया है वह गलत है और आगे से उसका दोहराव न हो।
anshumala said…
विवेक जी बिल्कूल सही कहा आज के बच्चे पहले से कही ज्यादा संवेदनशील है और बातो को कही ज्यादा समझते है और दिल से लेते है | हम उसका अंदाजा भी नहीं लगा सकते है मेरी बच्ची अभी मात्र साढ़े तीन साल की एक बार मैंने उसको उसके दोस्तों के सामने डाट दिया वो बच्ची जिस पर मेरी डांट का या तो असर नहीं होता था या यु ही जोर से रोने का नाटक करती थी वो उस समय चुपचाप आँखों में आँसू लेकर खड़ी रही और बार बार तिरक्षी नजरो से अपने दोस्तों को देखती रही | ये देख कर मुझे बहुत ही ख़राब लगा की मैंने गलत काम कर दिया उसे ये बात इनसल्टिंग लग रही है | उसके बाद हमेसा मै इन बातो का ख्याल रखती हु | उसके पहले मै सोच भी नहीं सकती थी की इतनी छोटी बच्ची बेईज्जती जैसी बातो को जानती भी होगी | आप के बच्चे के लिए बोलू तो कभी कभी बच्चे अपने माँ बाप को वो बाते नहीं बताते है जितना की अपने दोस्त से या कई बार तो उसके मम्मी पापा या पड़ोस की कोई दीदी या अपनी दीदी , भईया बुआ आंटी को बताते है | इसलिए पता कीजिये की वो ज्यादा समय किसके साथ गुजरता है या बाते करता है उसी के द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से उससे बात जानने का प्रयास कीजिये | कई बार बाते काफी गंभीर होती है समय रहते परिवार को पता चल जाये तो हम स्थिति को संभाल सकते है | और आगे की उसकी बातो को जानने के लिए आप उसी व्यक्ति से टच में रह सकते है | पर ध्यान रखियेगा की बच्चे को कभी ना पता चले की उसकी बाते आप तक पहुच रही है |

यह सब हमारे बुद्धु बक्से का कमाल है और आधुनिक जीवन यापन के तौर तरीको का भी, आप खुद सोचिये कि हमारे जमाने में क्या हमें बेईज्जती का मतलब पता था और अगर पता था तो बेईज्जती का क्या मतलब हमें पता था, शायद यह मतलब तो नहीं था जो आज के दौर में बच्चे समझते हैं।
प्रत्यक्ष रुप से मैं खुद ही अपने बच्चे से संवाद कायम रखता हूँ, परंतु पिछले २-३ दिन से उसकी इस बात से परेशान था, परंतु अब पता चला कि यह भी उसकी कल्पनाशीलता का परिणाम है।
विवेक जी बहुत अच्छा विषय उठाया है. आजकल बच्चे संवेदनशील हो गए हैंपर क्यों? क्या कभी किसी ने यह सोचा ? समय बदल गया है ,परिवार बदल गए हैं,रहने का तरीका बदल गया है तो जाहिर है कि बच्चों की परवरिश का तरीका भी बदला है.अब बच्चे घर में भी इतनी दांट या मार नहीं खाया करते जितनी पहले खाया करते थे तो जरुरी है कि परंपरागत शिक्षा का तरीका भी बदलना चाहिए. आप जाकर स्कूल में टीचर्स और स्टाफ से बात कीजिये अगर स्कूल अच्छा है तो मुझे उम्मीद है कि जरुर फायेदा होगा.
शिखाजी, आजकल के बच्चे अपनी हर बात अपने अभिभावकों से करने में हिचकते नहीं है, और हम हैं कि आज भी अपने पितजी से खौफ़ खाते हुए अपनी बातें माताजी के द्वारा ही पहुँचाना उचित समझते हैं। तो मैं इतना कहना चाह रहा हूँ कि समय बहुत तेजी से बदल रहा है, पर इस पारंपरिक शिक्षा के तरीके को कैसे बदला जाये, आप अपने अनुभव बतायें कि कैसे वहाँ पढ़ाई होती है, या किसी और जगह पर, जिससे सही दिशा में सोचा जा सके और कुछ नयी शुरुआत की जा सके।
मैं बच्चों को पीटे जाने के सख्त खिलाफ हूँ, क्यूंकि बचपन मे स्कूल मे तथा घर मे पड़ने वाली मार की वजह से मेरा आत्मविश्वास बहुत कम हो गया था, जिसकी वजह से मुझे आज भी कई बार परेशानी का सामना करना पड़ता है. मैं तो शिक्षा के क्षेत्र मे आया ही इसलिए हूँ जिससे बच्चों के साथ होने वाले इस तरह के व्यवहार को बदल सकूं. आप तुरंत प्रिंसिपल से जाकर बात कीजिये तथा यदि कोई संतोष जनक उत्तर नहीं मिलता है तो किसी दुसरे स्कूल मे दाखिला दिलवाइये, यह मुद्दा parent meeting मे भी उठाइये. मुझे ताज्जुब है कि यहाँ पर कुछ लोगो ने लिखा है कि उन्होंने खुद ही अध्यापक से कह रखा है कि बच्चे को गलती करने पर मारिये, ऐसे लोगो को अपने दिमाग का इलाज करवाने की जरूरत है. आप हिंसा करेंगे तो बच्चे या तो विरोधी हो जायेंगे या फिर गुमशुम रहने लगेंगे दोनों ही स्थितियां गंभीर है, याद रखिये आगे का समाज इन बच्चों को ही चलाना है | सजा देने के तरीके मे गृहकार्य को पुनः करके लाना या फिर बिषय से सम्बंधित प्रोजेक्ट थमा देना जैसी विधियाँ शामिल होनी चाहिए, ना कि मुर्गा बनाना या बेंत से पीटना. मुझे पता है कुछ अभिभावक बोलेंगे कि बच्चा अगर विरोधी हो जायेगा तो हम और मारेंगे, ऐसी स्थिती मे बच्चा अपने मन मे ठान लेता है जितना मरना चाहो मार लो, इससे ज्यादा कर भी क्या सकते हो” | मे इस बिषय मे बहुत ही जल्द एक पोस्ट लिखूंगा, शायद उसमे अपने विचार पूरी तरह से लिख पाऊँ

बिल्कुल सत्य वचन बच्चा मार खाकर ढ़ीठ हो जायेगा और फ़िर उस पर मार का भी कोई प्रभाव नहीं होगा, इसलिये स्थिती को शांति से ही निपटना होगा। और पारंपरिक शिक्षा पद्धति के साथ साथ पारंपरिक सजा के तौर तरीकों को भी बदलना होगा।
hindizen.com said…
आजकल स्कूलों में बच्चे को ईडियट या दफर कहने पर भी अभिभावक टीचरों के सर पर चढ़ जाते हैं. पच्चीस साल पहले हमारे शिक्षक हमें सिर्फ मारते नहीं थे, वे जो करते थे उसे हम ठुकाईया सुताईकहते थे. बड़ा कठिन समय था वह. आपने पोस्ट के शीर्षक में molestation शब्द क्यों लिखा है? इसका अध्यापकों की मार से क्या लेना? अब यह शब्द केवल कामोत्पीड़न के लिए ही प्रयुक्त होता है.
हमारी भी बहुत ‘ठुकाई’ और ‘सुताई’ हुई है, परंतु आज उसी का परिणाम है कि हम कुछ बन पाये, पोस्ट के शीर्षक मॆं molestation शब्द का अर्थ मारपीट से ही है, परंतु अब उसे कामोत्पीड़न के लिये ही लेते हैं, इस बारे में तो हिन्दी विशेषज्ञों की राय लेनी होगी।
जब हमलोग विद्यार्थी थे , शिक्षकों द्वारा बुरी तरह मारपीट आम बात थी ..मगर कभी नहीं सुना कि किसी विद्यार्थी ने आत्महत्या कर ली वे लोंग गुरुजन को मातापिता की तरह ही सम्मान देते थे और उनकी मार पीत को भी सामान्य रूप में स्वीकार कर लेते थे इससे आगे शिखा से सहमत हूँ कि आजकल हमलोग बच्चों को घर में भी नहीं डांटते हैं , इसलिए उन्हें ये सब सहने की आदत नहीं है समय के साथ पालन पोषण के तरीके बदले हैं तो शिक्षा देने में भी परिवर्तन अपेक्षित है ..!

बिल्कुल हमने भी बहुत सुताई खायी है, और हमें कभी भी बेईज्जती जैसी कोई बात नहीं लगी, और न ही उस दौर में आत्महत्या जैसी कोई बात सुनाई दी, जिसका कारण सुताई रहा हो। परंतु आजकल के कोमल मनों का क्या कहना, शिक्षा में परिवर्तन कैसे किये जायें उसके बारे में अपने विचार दें, या अगर कहीं किये गये हैं तो उसका उदाहरण दें, जिससे चर्चा को आगे बड़ाया जा सके।
रचना said…
Its my humble request please take your child to child psychologist immediately sodomization is in many forms not just physical please dont waste time in thinking and dont go by the fact that he is just a child i hope you understand the gravity of the situation
रचना जी, टिप्पणी के लिये आपका बहुत धन्यवाद अगर आपकी टिप्पणी हिन्दी में होती तो मुझे और ज्यादा अच्छा लगता कि चर्चा जिस भाषा में हो रही है उसी भाषा में विषय पर चर्चा आगे बड़े, फ़िर भी विचारों के प्रगटीकरण के लिये मैं भाषाई बंधनों को नहीं मानता परंतु अगर सभी लोग जिस भाषा में बातें कर रहे हैं, उसी भाषा में बात हो तो सामंजस्य बनता है।
बच्चे से मैंने बात कर ली है और अब सब ठीक है।
पारंपरिक शिक्षा के परिवेश से कैसे मुक्ति पायें और संवेदनशील मनों को कैसे समझें, इस पर चर्चा अगर आगे हो तो कुछ बात बने।

विद्यालयों में बच्चों को सजा देना कितना उचित ? मुझे भी अपने बेटे की चिंता हो रही है… क्या आपको है..? (Molestation in School)

आज बुद्धु बक्से पर एक शो देख रहा था, जिसमें एक बच्चे के अभिभावक बैठे हुए थे, उनकी लड़की जो कि मात्र १२ वर्ष की थी, ने विद्यालय में मिली सजा से आत्महत्या कर ली। अभिभावकों ने बताया की उनकी बेटी को किसी कारण से शिक्षक ने मारा पीटा और बेईज्जती की जिससे उनकी बेटी विद्यालय जाने को भी तैयार नहीं थी। परंतु उन्होंने समझा बुझाकर विद्यालय भेजा और उसने आकर दोपहर में घर पर आत्महत्या कर ली।

जब अभिभावकों ने विद्यालय में जाकर विरोध दर्ज करवाया तो प्रबंधन का रवैया भी रुखा ही रहा और आरोपी शिक्षक पर कोई कार्यवाही नहीं करने की बात की, और उल्टा उनकी बेटी और उनको भला बुरा कहा।

विद्यालयों को बच्चों के प्रति संवेदनशील होना चाहिये, किसी भी सजा का उनके मन पर क्या असर होता है, यह भी विद्यालय को सोचना चाहिये। पढ़ाने वाले शिक्षक पुरानी पीढ़ी के और पढ़ाने का तरीका भी पारंपरिक होता है, जब कि बच्चे आधुनिक परिवेश में रहकर उन चीजों से नफ़रत करते हैं। आज की बाल पीढ़ी बहुत जागरुक है, और पहले से बहुत ज्यादा संवेदनशील भी। आज के बच्चों को बहुत ही व्यवहारिक तरीके से समझाना चाहिये।

क्या विद्यालय पर प्रशासन कोई जाँच करता है, निजी विद्यालय अपने बच्चों को कैसे पढ़ा रहे हैं, उनके साथ कैसा बर्ताव कर रहे हैं, कैसे उनको व्यवहारिक शिक्षा दे रहे हैं। निजी विद्यालय आर.टी.आई. (Right for Information) के अंतर्गत आते हैं, पर फ़िर भी पारदर्शितापूर्ण जानकारी उपलब्ध नहीं होती है।

विद्यालयों के इस असंवेदनशील रवैये से आजकल के अभिभावक कैसे निपटें ? अगर किसी को जानकारी हो तो कृप्या बतायें, जिससे सभी अभिभावक जागरुक हों।

[मेरा बेटा भी पिछले दो दिनों से विद्यालय न जाने की जिद कर रहा है, कुछ भी पूछो तो बोलता है कि “क्या बेईज्जती करवाने जाऊँ”, कल मैंने बहुत प्यार से पूछा तो कोई भी कारण स्पष्ट नहीं हुआ, और विद्यालय में पूछने पर भी कुछ पता नहीं चला, अब विद्यालय का वह वक्त जो मेरे बेटे और विद्यालय के शिक्षकों के मध्य गुजरता है, और उस वक्त में वाकई क्या हो रहा है, मुझे पता ही नहीं है, और इसलिये मेरी भी चिंता बड़ती जा रही है, पर अब कुछ तो तरीका ईजाद करना ही होगा।]

मैंने आजतक कितनी रिश्वत दी उसका हिसाब (जितना याद आया)

    आज डी.एन.ए. में एक आलेख आया है कि आम आदमी जन्म से मृत्यु तक भारत में लगभग १ लाख ६९ हजार रुपये की रिश्वत देता है जो कि भारत के हर हिस्से में अलग हो सकती है। तो मैंने भी अभी तक अपने हाथों से दी गई रिश्वत जो कि अपने खुद के कार्य करने के लिये दी, उसका हिसाब लगाना जरुरी समझा कि कम से कम पता तो चले कि हमने अभी तक कितनी रिश्वत दी है।
१. दो घर के लोगों के मनपसंद जगह ट्रांसफ़र करवाये – २५,००० रुपये
२. पहली बार पासपोर्ट बनवाने पर पुलिस को ५० रुपये दिये चाय पानी के
३. एक और स्थानांतरण में १०,००० रुपये की रिश्वत दी।
४. एक और जगह ४०,००० रुपये की रिश्वत दी (नाम नहीं बता सकता और न ही जगह)
५. मुंबई में गैस का कनेक्शन लेने के लिये १५०० रुपये का चूल्हा ६५०० में खरीदा।
६.रेल्वे में टीसी को कई बार सीट लेने के लिये रिश्वत दी है शायद १०,००० या उससे भी ज्यादा दे चुके होंगे।
७. एक और बार पुलिस को ५०० रुपये की रिश्वत दी।
८. एक और जगह २५,००० की रिश्वत दी (नाम नहीं बता सकता और न ही जगह)
९. यातायात पुलिस को २०० रुपये की रिश्वत
अभी तो इतना ही याद है, और याद आता है तो ९ नंबर के आगे बड़ाता जाऊँगा, या फ़िर कभी वापिस से रिश्वत देनी पड़ी तो यहाँ जरुर लिखूँगा।
आजतक की रिश्वत में दी गई रकम होती है लगभग १,१५,७०० रुपये की रिश्वत दे चुका हूँ। क्या आपने कभी हिसाब लगाया है ?
मेरे पास अतिरिक्त ५०० रुपये हैं, जिस रिश्वतखोर को चाहिये वह संपर्क करे ।


रिश्वत की रकम १,१६,४०० रुपये

१०.  ठाणे से मुंबई घर का सामान लाते समय ३५०० रुपये की रिश्वत मांगी गयी थी परंतु केवल २०० रु. की रिश्वत में काम बन गया। 


११. म.प्र.गृह निर्माण मंडल में ५०० रुपये दिये थे।

पासपोर्ट बनवाने के चक्कर में घनचक्कर… सरकारी दफ़्तर… वेबसाईट पर कानून कुछ ओर और दफ़्तरों में कुछ और ?

    हमें यकायक सूझी कि चलो अपना खत्म हो चुका पासपोर्ट का नवीनीकरण करवा लिया जाये। पहले हमने पासपोर्ट की आधिकारिक वेबसाईट पर जाकर जानकारी ली और फ़िर कुछ चीजों में संशय था तो एक एजेन्ट घर के पास ही है, उसके पास चले गये कि आपसे पासपोर्ट बनवायेंगे बताईये क्या क्या लगेगा, तो सबसे पहले उसने अपनी फ़ीस बताई जो कि लगभग २००० रुपये थी और पासपोर्ट की अलग १००० रुपये, और तमाम तरह के कागजात भी बोले गये। हम तो हक्के बक्के रह गये कि वेबसाईट पर तो इतना सब कुछ नहीं दे रखा है फ़िर यह नये कागजात कहाँ से आ गये।

नवीनीकरण की प्रक्रिया में लगने वाले कागज वेबसाईट के अनुसार

१. पुराना पासपोर्ट

२. एड्रेस प्रूफ़ (कोई भी एक और राशन कार्ड के साथ एक और पते का सबूत)

यह पासपोर्ट की आधिकारिक साईट पर दे रखा है –

a) Proof of address (attach one of the following):

Applicant’s ration card, certificate from Employer of reputed companies on letter head, water /telephone /electricity bill/statement of running bank account/Income Tax Assessment Order /Election Commission ID card, Gas connection Bill, Spouse’s passport copy, parent’s passport copy in case of minors. (NOTE: If any applicant submits only ration card as proof of address, it should be accompanied by one more proof of address out of the above categories).

३. शादी का प्रमाणपत्र

    हम तीनों चीजें साथ में लेकर गये फ़िर भी दो दिन धक्के खाने के बाद भी पासपोर्ट अधिकारी कहते हैं कि एड्रेस प्रूफ़ एक ओर चाहिये हमने कहा कि वेबसाईट पर तो एक ही प्रूफ़ की आवश्यकता बताई गई है, जो कि हम साथ में लाये हैं, तो बोलते हैं कि वहीं बनवा लो, यहाँ तो यह कागज भी चाहिये। हम बेरंग वापिस आ गये।

वहाँ लाईन में खड़े लोगों से बतियाया तो पता चला कि कागजात के ऊपर जितनी बहस इनसे करो ये लोग केस उतना ही खराब कर देते हैं, यहाँ तो पूरी तरह से इनकी दादागिरी चलती है। वह भी सभ्य भाषा में…

    अगर एड्रेस प्रूफ़ दो चाहिये तो वेबसाईट पर भी लिखना चाहिये कि उसके बिना काम नहीं होगा। हाँ मानते हैं कि पासपोर्ट बनाने की प्रक्रिया बहुत संवेदनशील है, पर इसके लिये ही तो पोलिस वेरिफ़िकेशन भी होता ही है।

    वहाँ पर बहुत सारे लोगों से बातें हुई जो कि हमारी तरह ही पासपोर्ट की लाईन में लगे हुये थे, तो पता चला कि अगर सीधे आओ तो कम से कम ये लोग ३-४ चक्कर तो लगवाते ही हैं, फ़िर ऑनलाईन पासपोर्ट का आवेदन क्यों पासपोर्ट की आधिकारिक वेबसाईट पर रखा गया है, यह समझ में नहीं आया, सीधे सीधे लिख देना चाहिये कि एजेन्ट के द्वारा आओ तो काम जल्दी हो जायेगा।

    अगर पासपोर्ट के कागजात की प्रक्रिया पूर्ण हो भी जाये तो उसके बाद पोलिस वेरिफ़िकेशन में भी पोलिस की जेब गरम किये बिना आपका काम नहीं होता है, वे लोग फ़ाईल ही दबा देते हैं।

    पासपोर्ट कार्यालय में भीड़ देखकर और काम करने वालों को देखकर बेहद गुस्सा आ रहा था, या तो ऑनलाईन सेवा से कम लोगों को बुलाना चाहिये या फ़िर और भी लोगों को कागजात को जाँचने के लिये लगाना चाहिये, और जो भी कागजात की कमी है वह एक बार में ही बता देना चाहिये, असल में होता यह है कि जब काऊँटर पर अधिकारी कागजात जाँचते हैं तो जहाँ भी पहला कागजात अपूर्ण पाया जाता है, वे अधिकारी वहीं रुक जाते हैं आगे के कागजात की जाँच ही नहीं करते हैं।

    सरकारी दफ़्तर की मनमानी का शिकार आखिर हम हो ही गये हैं। पासपोर्ट नवीनीकरण की प्रक्रिया इतनी जटिल बनाई हुई है जिसे कि सरल बनाने की आवश्यकता है, क्योंकि पहले ही पासपोर्ट है। अब इच्छा है कि विदेश मंत्रालय से संपर्क करके इसके बारे में ज्यादा जानकारी ली जाये। और भी कोई तरीका हो तो बतायें। क्या आर.टी.आई. दायर की जा सकती है ?