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ब्लॉगरी में भी विकृत मानसिकता… (Blogger’s Distorted mindset..)
विकृत मानसिकता जिसे मैं साधारण शब्दों में कहता हूँ मानसिक दिवालियापन या पागलपन, वैसे विकृत मानसिकता के लिये कोई अधिकृत पैमाना नहीं है, अनपढ़ और पढ़ेलिखे समझदार कोई भी हो जरूरी नहीं है कि उनकी मानसिकता विकृत नहीं हो।
और ऐसे ही कुछ उदाहरण मैंने हिन्दी ब्लॉगजगत में देखे पोस्ट पढ़कर पहली बार में ही विकृत मानसिकता का दर्जा मैंने दे दिया। अब यहाँ ब्लॉगर भी बहुत पढ़े लिखे हैं, और जिनके पास बड़ी बड़ी डिग्री है, वे हिन्दी ब्लॉगिंग की प्रगति में महति योगदान निभाने में अपनी जीवन ऊर्जा लगा रहे हैं। धन्य हैं वे ब्लॉगवीर और वीरांगनाएँ जो यह सोचते हैं कि वे हिन्दी लिख रहे हैं तो हिन्दी समृद्ध हो रही है, वाह ब्लॉगरी विकृत मानसिकता।
जितना समय दूसरे ब्लॉगर की टांग खींचने उनकी टिप्पणियों में अनर्गल पोस्ट लिखने में लगा रहे हैं उतना समय अगर किसी अच्छे विषय पर या अपनी दिनचर्या से कोई एक अच्छा सा पल लिखने में लगाते तो शायद उससे पाठक ज्यादा आकर्षित होते। परंतु कैसे स्टॉर ब्लॉगर बनें और कैसे ब्लॉगरों की टाँग खींचे ये सब प्रपंच कोई इन विकृत मानसिकता वाले ब्लॉगर्स से सीखें।
अपन तो अपने में ही मगन हैं, किसी की दो और दो चार में अपना कोई योगदान नहीं है, फ़िर भले ही वे दो और दो पाँच ही क्यों हो रहे हों, पर फ़िर भी पढ़े लिखों की विकृत मानसिकता नहीं देखते बनती। इससे अच्छा है कि … (अब भला मैं ये क्यों लिखूँ, वे खुद ही समझ लें।)
क्या फ़िर से इस भारत को आजाद करवाना होगा ? (Freedom of India… ?)
वैसे मैं फ़िल्म वगैराह देखने में अपना समय नष्ट करना उचित नहीं समझता हूँ परंतु “खेलें हम जी जान से” की इतनी चर्चा सुनी थी, कि फ़टाफ़ट से टोरन्ट से डाऊनलोड किया और देखने लगे। ये फ़िल्म भी हम कल रात को ३ दिन में पूरी कर पाये हैं, एक साथ इतना समय निकालना और इतना ध्यान से देखना शायद अपने बस की बात नहीं है।
फ़िल्म इतनी अच्छी लगी कि शायद ही इसके पहले स्वतंत्रता की पृष्ठभूमि पर इस अंदाज में फ़िल्मांकन किया होगा। यह फ़िल्म बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है, हमें आजादी दिलाने वाले नौजवानों ने अपना खून बहाया है (पानी या पसीना नहीं)।
हम इस आजादी का नाजायज लाभ उठा रहे हैं, क्या इसी आजादी के लिये क्रांतिकारियों ने अपनी शहादत दी थी, अगर उन्हें पता होता कि आजादी के बाद ये सब होगा तो शायद ही उनके मन में भारत माता के आत्मसम्मान को जागृत करने की बात आती। शहीदों को नमन जिन्होंने हम भारतवासियों को इतनी गुंडागर्दी, भ्रष्टाचारी और भी न जाने क्या क्या वाली सरकार दी, दिल रो रहा है यह सब लिखते हुए, क्या फ़िर से इस भारत को आजाद करवाना होगा ?
क्या भारत माता का आत्मसम्मान खो गया है, क्या हम क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों की शहादत का बदला इतने बड़े बड़े कांड़ों को झेलकर और करके चुका रहे हैं।
क्यों न वापिस से ऐसी ही एक क्रांति का जन्म हो जिसमें इन कांडों को करने वाले हरेक शख्स को खत्म कर दिया जाये और फ़िर से भारत माता के सम्मान को वापिस लाया जाये। अगर वाकई हमें अपना देश बचाना है तो ऐसी ही किसी क्रांति की जरुरत है, सजा तो इनको देनी ही होगी। क्योंकि अब ये लोग इतने बेशरम हो गये हैं कि ये न कलम की तलवार से डरते हैं और न ही भारत माता के सपूतों से ।
बताईये क्या करना चाहिये ….. क्या क्रांति की बात गलत है… फ़िर से हमें भारतमाता के आत्मसम्मान को पाने के लिये क्रांति की अलख जगानी होगी।
वन्दे मातरम !! जय हिन्द !!
१ रुपये की ओवर बिलिंग याने कि बेस्ट को कितना फ़ायदा ? (The profit of BEST by 1 Rupee over billing)
कौन से मूवर्स पैकर्स की सेवायें ली जायें, मुझे अब मुंबई से १२०० किमी दूर जाना है। (Movers n packers services)
मुझे अगले महीने के मध्य में मुंबई से १२०० कि.मी. दूर अपना समान स्थानांतरण करना है, और इतने सारे मूवर्स एन्ड पैकर्स से पूछा और गूगल के जरिये खोज भी की, तो और भी सांसत में आ गये।
हमने तकरीबन ५ मूवर्स एन्ड पैकर्स से बात की और कोटेशन लिया पर सबकी शिकायतें हैं, अब समझ में नहीं आ रहा कि क्या करें और किस की सेवा का उपयोग करें।
अभी तक जिनको बुलाया है वे इस प्रकार हैं –
1. Safe Movers & Packers
2. Sahara Movers & Packers
3. Agarwal Movers & Packers, Hyderabad
4. Agarwal Movers & Packers Pvt. Ltd., (Delhi)
सबसे सस्ता पहला वाला है और सबसे महँगा आखिरी चौथा वाला है।
और किस तरह से समान को स्थानांतरित किया जा सकता है, यह भी बताईयेगा। बस जरा जल्दी ….।
IFFI गोवा में बीयर २५ रुपये की और चाय ५८ रुपये की वाह !
आज सुबह अखबार के एक कोने में खबर थी कि A glass of beer is cheaper than a cup of tea at IFFI in Goa | अब बताईये चाय ५८ रुपये की और ठंडी बीयर का गिलास २५ रुपये में, क्या जमाना आ गया है।
आयोजक कहते हैं कि अगर चाय पीने वालों को चाय महँगी लग रही है तो वे सड़क पार कर स्थानीय ढाबे पर चाय पी सकते हैं। अब भई जो बीयर के शौकीन होंगे तो वे भला क्यों इतनी महँगी चाय पियेंगे। उससे अच्छा है कि दो गिलास ठंडी बीयर पियें और फ़िल्म फ़ेस्टिवल आयोजन का मजा लें।
क्यों अविनाश जी सही कह रहे हैं न हम, अब बाकी तो आप ही बतायेंगे कि कौन से स्टॉल पर ज्यादा भीड़ थी, चाय के या बीयर के।
पारंपरिक शिक्षा के परिवेश से कैसे मुक्ति पायें और संवेदनशील मनों को कैसे समझें..[Child Education ???]
- एस.एम.मासूम said…
- अध्यापक भी बहुत बार घर के झगड़ों या कभी कभी अपनी किसी ना कामयाबी का गुस्सा छात्रों पे निकलते हैं. इसके लिए अभिभावकों को जागरूक होना पड़ेगा. अच्छा विषय चुना है.
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बिल्कुल सही है, केवल अध्यापक ही क्या ये तो हर कहीं की कहानी है, अगर किसी का मूड खराब हो तो समझ जायें कि आज घर पर झगड़ा करके आये हैं। अभिभावकों को जागरुक होना ही पड़ेगा, ऐसा न हो कि बहुत देर हो जाये।
- Suresh Chiplunkar said…
- “क्या बेईज्जती करवाने जाऊँ“? क्या अध्यापक के मारने या डांटने से बेइज्जती हो जाती है? हमने तो बहुत मार खाई स्कूल में, कभी ऐसा नहीं लगा… 🙂 फ़िर नई पीढ़ी “अध्यापक की मार” के प्रति इतनी संवेदनशील क्यों है? ========= मैं अध्यापक द्वारा “हल्की मार” के पक्ष में हूं…। हल्की मार का स्तर = बच्चे को कोई स्थाई शारीरिक नुकसान न हो।
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प्रवीण पाण्डेय said…
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अन्तर सोहिल said…
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सजा देना गलत नहीं है, सजा देने का तरीका गलत होता है, जो बात बच्चों को प्यार से समझायी जा सकती है, जरुरी नहीं किस उसे पारंपरिक तरीके से ही समझाई जाये।
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बच्चे के शब्दों को मैंने बहुत गंभीरता से लिया और पूरी पड़ताल कर ली है, अब इतनी चिंता की कोई बात नहीं है।
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सोमेश सक्सेना said…
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सजा अनिवार्य है, अगर सजा नहीं होगी तो बलपूर्वक हम किसी गलत बात को उनसे रोकने के लिये कह भी नहीं सकते हैं, बस सजा के पारंपरिक तरीकों से आपत्ति है।
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Rahul Khare said…
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नमस्कार विवेक जी, ये मेरा प्रथम प्रयास है, अगर कोइ गल्ती हो तो माफ़ करे । आप ने जो विषय चयनित किया है वह काफ़ी महत्वपूर्ण है,और मेरा मानना है कि हम सब को मिल जुल कर इस के खिलाफ़ एक आंदोलन की शुरुआत करनी चाहिये। बच्चे बहुत कोमल दिल वाले होते है और शारीरिक रुप से कोइ भी सज़ा उनके मन मे काफ़ी गहराई से जाती है, जो उनका ना केवल शैक्षिक बल्कि मानसिक विकास भी बाधित करती है। अगर कोइ गलती हुई भी है तो भी किसी भी शिक्षक द्वारा बच्चे को शारीरिक रुप से कोइ भी सज़ा देने की कोइ शैली होनी ही नही चहिये। यहा विदेश मे शिक्षक द्वारा बच्चे को शारीरिक दंड देना अपराध है और मेरा मानना है कि अगर हम सब मिल कर प्रयास करे तो ये हमारे अपने देश मै भी मुमकिन है। यहा शिक्षक बच्चे को शारीरिक दंड की जगह उसे अलग अलग तरीको से किसी काम को सही तरह से करना सिखाते है और सुनिश्चित करते है कि वो गल्ती फिर से न हो।
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धन्यवाद राहुल, अखिरकार आपने हिन्दी में लिखना शुरु किया और पहली टिप्पणी दी, आंदोलन की शुरुआत की जरुरत तो है पर किस दिशा में यह भी तय किया जाना चाहिये।
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anshumala said…
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विवेक जी बिल्कूल सही कहा आज के बच्चे पहले से कही ज्यादा संवेदनशील है और बातो को कही ज्यादा समझते है और दिल से लेते है | हम उसका अंदाजा भी नहीं लगा सकते है मेरी बच्ची अभी मात्र साढ़े तीन साल की एक बार मैंने उसको उसके दोस्तों के सामने डाट दिया वो बच्ची जिस पर मेरी डांट का या तो असर नहीं होता था या यु ही जोर से रोने का नाटक करती थी वो उस समय चुपचाप आँखों में आँसू लेकर खड़ी रही और बार बार तिरक्षी नजरो से अपने दोस्तों को देखती रही | ये देख कर मुझे बहुत ही ख़राब लगा की मैंने गलत काम कर दिया उसे ये बात इनसल्टिंग लग रही है | उसके बाद हमेसा मै इन बातो का ख्याल रखती हु | उसके पहले मै सोच भी नहीं सकती थी की इतनी छोटी बच्ची बेईज्जती जैसी बातो को जानती भी होगी | आप के बच्चे के लिए बोलू तो कभी कभी बच्चे अपने माँ बाप को वो बाते नहीं बताते है जितना की अपने दोस्त से या कई बार तो उसके मम्मी पापा या पड़ोस की कोई दीदी या अपनी दीदी , भईया बुआ आंटी को बताते है | इसलिए पता कीजिये की वो ज्यादा समय किसके साथ गुजरता है या बाते करता है उसी के द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से उससे बात जानने का प्रयास कीजिये | कई बार बाते काफी गंभीर होती है समय रहते परिवार को पता चल जाये तो हम स्थिति को संभाल सकते है | और आगे की उसकी बातो को जानने के लिए आप उसी व्यक्ति से टच में रह सकते है | पर ध्यान रखियेगा की बच्चे को कभी ना पता चले की उसकी बाते आप तक पहुच रही है |
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यह सब हमारे बुद्धु बक्से का कमाल है और आधुनिक जीवन यापन के तौर तरीको का भी, आप खुद सोचिये कि हमारे जमाने में क्या हमें बेईज्जती का मतलब पता था और अगर पता था तो बेईज्जती का क्या मतलब हमें पता था, शायद यह मतलब तो नहीं था जो आज के दौर में बच्चे समझते हैं।
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shikha varshney said…
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विवेक जी बहुत अच्छा विषय उठाया है. आजकल बच्चे संवेदनशील हो गए हैं…पर क्यों? क्या कभी किसी ने यह सोचा ? समय बदल गया है ,परिवार बदल गए हैं,रहने का तरीका बदल गया है तो जाहिर है कि बच्चों की परवरिश का तरीका भी बदला है.अब बच्चे घर में भी इतनी दांट या मार नहीं खाया करते जितनी पहले खाया करते थे तो जरुरी है कि परंपरागत शिक्षा का तरीका भी बदलना चाहिए. आप जाकर स्कूल में टीचर्स और स्टाफ से बात कीजिये अगर स्कूल अच्छा है तो मुझे उम्मीद है कि जरुर फायेदा होगा.
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Learn By Watch said…
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मैं बच्चों को पीटे जाने के सख्त खिलाफ हूँ, क्यूंकि बचपन मे स्कूल मे तथा घर मे पड़ने वाली मार की वजह से मेरा आत्मविश्वास बहुत कम हो गया था, जिसकी वजह से मुझे आज भी कई बार परेशानी का सामना करना पड़ता है. मैं तो शिक्षा के क्षेत्र मे आया ही इसलिए हूँ जिससे बच्चों के साथ होने वाले इस तरह के व्यवहार को बदल सकूं. आप तुरंत प्रिंसिपल से जाकर बात कीजिये तथा यदि कोई संतोष जनक उत्तर नहीं मिलता है तो किसी दुसरे स्कूल मे दाखिला दिलवाइये, यह मुद्दा parent meeting मे भी उठाइये. मुझे ताज्जुब है कि यहाँ पर कुछ लोगो ने लिखा है कि उन्होंने खुद ही अध्यापक से कह रखा है कि बच्चे को गलती करने पर मारिये, ऐसे लोगो को अपने दिमाग का इलाज करवाने की जरूरत है. आप हिंसा करेंगे तो बच्चे या तो विरोधी हो जायेंगे या फिर गुमशुम रहने लगेंगे दोनों ही स्थितियां गंभीर है, याद रखिये आगे का समाज इन बच्चों को ही चलाना है | सजा देने के तरीके मे गृहकार्य को पुनः करके लाना या फिर बिषय से सम्बंधित प्रोजेक्ट थमा देना जैसी विधियाँ शामिल होनी चाहिए, ना कि मुर्गा बनाना या बेंत से पीटना. मुझे पता है कुछ अभिभावक बोलेंगे कि बच्चा अगर विरोधी हो जायेगा तो हम और मारेंगे, ऐसी स्थिती मे बच्चा अपने मन मे ठान लेता है “जितना मरना चाहो मार लो, इससे ज्यादा कर भी क्या सकते हो” | मे इस बिषय मे बहुत ही जल्द एक पोस्ट लिखूंगा, शायद उसमे अपने विचार पूरी तरह से लिख पाऊँ
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बिल्कुल सत्य वचन बच्चा मार खाकर ढ़ीठ हो जायेगा और फ़िर उस पर मार का भी कोई प्रभाव नहीं होगा, इसलिये स्थिती को शांति से ही निपटना होगा। और पारंपरिक शिक्षा पद्धति के साथ साथ पारंपरिक सजा के तौर तरीकों को भी बदलना होगा।
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hindizen.com said…
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आजकल स्कूलों में बच्चे को ईडियट या दफर कहने पर भी अभिभावक टीचरों के सर पर चढ़ जाते हैं. पच्चीस साल पहले हमारे शिक्षक हमें सिर्फ मारते नहीं थे, वे जो करते थे उसे हम ‘ठुकाई‘ या ‘सुताई‘ कहते थे. बड़ा कठिन समय था वह. आपने पोस्ट के शीर्षक में molestation शब्द क्यों लिखा है? इसका अध्यापकों की मार से क्या लेना? अब यह शब्द केवल कामोत्पीड़न के लिए ही प्रयुक्त होता है.
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वाणी गीत said…
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जब हमलोग विद्यार्थी थे , शिक्षकों द्वारा बुरी तरह मारपीट आम बात थी ..मगर कभी नहीं सुना कि किसी विद्यार्थी ने आत्महत्या कर ली …वे लोंग गुरुजन को माता–पिता की तरह ही सम्मान देते थे और उनकी मार पीत को भी सामान्य रूप में स्वीकार कर लेते थे … इससे आगे शिखा से सहमत हूँ कि आजकल हमलोग बच्चों को घर में भी नहीं डांटते हैं , इसलिए उन्हें ये सब सहने की आदत नहीं है …समय के साथ पालन पोषण के तरीके बदले हैं तो शिक्षा देने में भी परिवर्तन अपेक्षित है ..!
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बिल्कुल हमने भी बहुत सुताई खायी है, और हमें कभी भी बेईज्जती जैसी कोई बात नहीं लगी, और न ही उस दौर में आत्महत्या जैसी कोई बात सुनाई दी, जिसका कारण सुताई रहा हो। परंतु आजकल के कोमल मनों का क्या कहना, शिक्षा में परिवर्तन कैसे किये जायें उसके बारे में अपने विचार दें, या अगर कहीं किये गये हैं तो उसका उदाहरण दें, जिससे चर्चा को आगे बड़ाया जा सके।
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रचना said…
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रचना जी, टिप्पणी के लिये आपका बहुत धन्यवाद अगर आपकी टिप्पणी हिन्दी में होती तो मुझे और ज्यादा अच्छा लगता कि चर्चा जिस भाषा में हो रही है उसी भाषा में विषय पर चर्चा आगे बड़े, फ़िर भी विचारों के प्रगटीकरण के लिये मैं भाषाई बंधनों को नहीं मानता परंतु अगर सभी लोग जिस भाषा में बातें कर रहे हैं, उसी भाषा में बात हो तो सामंजस्य बनता है।
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बच्चे से मैंने बात कर ली है और अब सब ठीक है।
विद्यालयों में बच्चों को सजा देना कितना उचित ? मुझे भी अपने बेटे की चिंता हो रही है… क्या आपको है..? (Molestation in School)
आज बुद्धु बक्से पर एक शो देख रहा था, जिसमें एक बच्चे के अभिभावक बैठे हुए थे, उनकी लड़की जो कि मात्र १२ वर्ष की थी, ने विद्यालय में मिली सजा से आत्महत्या कर ली। अभिभावकों ने बताया की उनकी बेटी को किसी कारण से शिक्षक ने मारा पीटा और बेईज्जती की जिससे उनकी बेटी विद्यालय जाने को भी तैयार नहीं थी। परंतु उन्होंने समझा बुझाकर विद्यालय भेजा और उसने आकर दोपहर में घर पर आत्महत्या कर ली।
जब अभिभावकों ने विद्यालय में जाकर विरोध दर्ज करवाया तो प्रबंधन का रवैया भी रुखा ही रहा और आरोपी शिक्षक पर कोई कार्यवाही नहीं करने की बात की, और उल्टा उनकी बेटी और उनको भला बुरा कहा।
विद्यालयों को बच्चों के प्रति संवेदनशील होना चाहिये, किसी भी सजा का उनके मन पर क्या असर होता है, यह भी विद्यालय को सोचना चाहिये। पढ़ाने वाले शिक्षक पुरानी पीढ़ी के और पढ़ाने का तरीका भी पारंपरिक होता है, जब कि बच्चे आधुनिक परिवेश में रहकर उन चीजों से नफ़रत करते हैं। आज की बाल पीढ़ी बहुत जागरुक है, और पहले से बहुत ज्यादा संवेदनशील भी। आज के बच्चों को बहुत ही व्यवहारिक तरीके से समझाना चाहिये।
क्या विद्यालय पर प्रशासन कोई जाँच करता है, निजी विद्यालय अपने बच्चों को कैसे पढ़ा रहे हैं, उनके साथ कैसा बर्ताव कर रहे हैं, कैसे उनको व्यवहारिक शिक्षा दे रहे हैं। निजी विद्यालय आर.टी.आई. (Right for Information) के अंतर्गत आते हैं, पर फ़िर भी पारदर्शितापूर्ण जानकारी उपलब्ध नहीं होती है।
विद्यालयों के इस असंवेदनशील रवैये से आजकल के अभिभावक कैसे निपटें ? अगर किसी को जानकारी हो तो कृप्या बतायें, जिससे सभी अभिभावक जागरुक हों।
[मेरा बेटा भी पिछले दो दिनों से विद्यालय न जाने की जिद कर रहा है, कुछ भी पूछो तो बोलता है कि “क्या बेईज्जती करवाने जाऊँ”, कल मैंने बहुत प्यार से पूछा तो कोई भी कारण स्पष्ट नहीं हुआ, और विद्यालय में पूछने पर भी कुछ पता नहीं चला, अब विद्यालय का वह वक्त जो मेरे बेटे और विद्यालय के शिक्षकों के मध्य गुजरता है, और उस वक्त में वाकई क्या हो रहा है, मुझे पता ही नहीं है, और इसलिये मेरी भी चिंता बड़ती जा रही है, पर अब कुछ तो तरीका ईजाद करना ही होगा।]
मैंने आजतक कितनी रिश्वत दी उसका हिसाब (जितना याद आया)
रिश्वत की रकम १,१६,४०० रुपये
११. म.प्र.गृह निर्माण मंडल में ५०० रुपये दिये थे।
पासपोर्ट बनवाने के चक्कर में घनचक्कर… सरकारी दफ़्तर… वेबसाईट पर कानून कुछ ओर और दफ़्तरों में कुछ और ?
हमें यकायक सूझी कि चलो अपना खत्म हो चुका पासपोर्ट का नवीनीकरण करवा लिया जाये। पहले हमने पासपोर्ट की आधिकारिक वेबसाईट पर जाकर जानकारी ली और फ़िर कुछ चीजों में संशय था तो एक एजेन्ट घर के पास ही है, उसके पास चले गये कि आपसे पासपोर्ट बनवायेंगे बताईये क्या क्या लगेगा, तो सबसे पहले उसने अपनी फ़ीस बताई जो कि लगभग २००० रुपये थी और पासपोर्ट की अलग १००० रुपये, और तमाम तरह के कागजात भी बोले गये। हम तो हक्के बक्के रह गये कि वेबसाईट पर तो इतना सब कुछ नहीं दे रखा है फ़िर यह नये कागजात कहाँ से आ गये।
नवीनीकरण की प्रक्रिया में लगने वाले कागज वेबसाईट के अनुसार
१. पुराना पासपोर्ट
२. एड्रेस प्रूफ़ (कोई भी एक और राशन कार्ड के साथ एक और पते का सबूत)
यह पासपोर्ट की आधिकारिक साईट पर दे रखा है –
a) Proof of address (attach one of the following):
Applicant’s ration card, certificate from Employer of reputed companies on letter head, water /telephone /electricity bill/statement of running bank account/Income Tax Assessment Order /Election Commission ID card, Gas connection Bill, Spouse’s passport copy, parent’s passport copy in case of minors. (NOTE: If any applicant submits only ration card as proof of address, it should be accompanied by one more proof of address out of the above categories).
३. शादी का प्रमाणपत्र
हम तीनों चीजें साथ में लेकर गये फ़िर भी दो दिन धक्के खाने के बाद भी पासपोर्ट अधिकारी कहते हैं कि एड्रेस प्रूफ़ एक ओर चाहिये हमने कहा कि वेबसाईट पर तो एक ही प्रूफ़ की आवश्यकता बताई गई है, जो कि हम साथ में लाये हैं, तो बोलते हैं कि वहीं बनवा लो, यहाँ तो यह कागज भी चाहिये। हम बेरंग वापिस आ गये।
वहाँ लाईन में खड़े लोगों से बतियाया तो पता चला कि कागजात के ऊपर जितनी बहस इनसे करो ये लोग केस उतना ही खराब कर देते हैं, यहाँ तो पूरी तरह से इनकी दादागिरी चलती है। वह भी सभ्य भाषा में…
अगर एड्रेस प्रूफ़ दो चाहिये तो वेबसाईट पर भी लिखना चाहिये कि उसके बिना काम नहीं होगा। हाँ मानते हैं कि पासपोर्ट बनाने की प्रक्रिया बहुत संवेदनशील है, पर इसके लिये ही तो पोलिस वेरिफ़िकेशन भी होता ही है।
वहाँ पर बहुत सारे लोगों से बातें हुई जो कि हमारी तरह ही पासपोर्ट की लाईन में लगे हुये थे, तो पता चला कि अगर सीधे आओ तो कम से कम ये लोग ३-४ चक्कर तो लगवाते ही हैं, फ़िर ऑनलाईन पासपोर्ट का आवेदन क्यों पासपोर्ट की आधिकारिक वेबसाईट पर रखा गया है, यह समझ में नहीं आया, सीधे सीधे लिख देना चाहिये कि एजेन्ट के द्वारा आओ तो काम जल्दी हो जायेगा।
अगर पासपोर्ट के कागजात की प्रक्रिया पूर्ण हो भी जाये तो उसके बाद पोलिस वेरिफ़िकेशन में भी पोलिस की जेब गरम किये बिना आपका काम नहीं होता है, वे लोग फ़ाईल ही दबा देते हैं।
पासपोर्ट कार्यालय में भीड़ देखकर और काम करने वालों को देखकर बेहद गुस्सा आ रहा था, या तो ऑनलाईन सेवा से कम लोगों को बुलाना चाहिये या फ़िर और भी लोगों को कागजात को जाँचने के लिये लगाना चाहिये, और जो भी कागजात की कमी है वह एक बार में ही बता देना चाहिये, असल में होता यह है कि जब काऊँटर पर अधिकारी कागजात जाँचते हैं तो जहाँ भी पहला कागजात अपूर्ण पाया जाता है, वे अधिकारी वहीं रुक जाते हैं आगे के कागजात की जाँच ही नहीं करते हैं।
सरकारी दफ़्तर की मनमानी का शिकार आखिर हम हो ही गये हैं। पासपोर्ट नवीनीकरण की प्रक्रिया इतनी जटिल बनाई हुई है जिसे कि सरल बनाने की आवश्यकता है, क्योंकि पहले ही पासपोर्ट है। अब इच्छा है कि विदेश मंत्रालय से संपर्क करके इसके बारे में ज्यादा जानकारी ली जाये। और भी कोई तरीका हो तो बतायें। क्या आर.टी.आई. दायर की जा सकती है ?